हमारा सनातनी समाज बेशक तरक्की की राह पर दौड़ लगा रहा है, धर्म ध्वजा लहरा रहा है और आधुनिक तकनीक अभियांत्रिकी वाणिज्य तथा विज्ञान जगत की शिक्षा में तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, लेकिन सम्पत्ति अर्जन की ललक-आतुरता के आगे संस्कारों को तरजीह नहीं मिल पा रही है। सम्पत्ति और संस्कार दो अलग-अलग धाराएं हैं। हमें दोनों धाराओं से होकर गुजरना है। दोनों में तैरने का हुनर रखना है। अत्याधुनिक शिक्षा निश्चित रूप से धनोपार्जन-सम्पत्ति अर्जन के लिए सम्बल बन रही है, मगर सम्पत्ति बनाने की आपाधापी और भाग-दौड़ में संस्कार छूटते जा रहे हैं। नतीजतन धन-दौलत-शोहरत, सारी सुख-सुविधाएं तो मिल जा रही हैं, लेकिन संस्कारों के सर्वथा अभाव में जिन्दगी की डगर कठिन होती जा रही है। निजी जीवन में, परिवारों में, समाज में और जिन्दगी के चौथेपन में संस्कारों के अभाव अपना असर दिखा रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा जायदाद बनाने की जद्दोजहद में पड़े रहते हैं और जब बुढ़ापा आता है तो फिर सहारे की जरूरत पड़ती है। लेकिन सहारा नहीं मिल पाता, क्योंकि बच्चों का लालन-पालन संस्कारों के अभाव वाले और सम्पत्ति के प्रभाव वाले माहौल हुआ होता है। ऐसे लोगों का, ऐसी पीढ़ी का ही सारा दोष नहीं होता, क्योंकि साफ-सुथरे माहौल में बच्चों की परवरिश करना अभिभावकों की नैतिक ही नहीं, बल्कि मौलिक जिम्मेदारी होती है। हमें अपने आप में झांकना होगा। अपने आप से पूछना होगा कि क्या जिम्मेदारी निभा रहे हैं ? सिर्फ यह कहने-बोलने से जिम्मेदारी नहीं खत्म होती कि क्या किया जाए- आज के बच्चे हैं। उनकी अपनी सोच है, समझ है, पसंद है। वे अपने तरीके से जिन्दगी जीना चाहते हैं। सुनते नहीं। बोलने का कोई असर नहीं पड़ता। बच्चों को सुनाना होगा, समझाना होगा। अलग-अलग तरीकों से बात कहनी होगी, बतानी होगी।
अगर सम्पत्ति अर्जित करने की दौड़-होड़ संस्कारों की बुनियाद पर भारी पड़ती रही, माहौल नहीं सुधरा तो हालात बिगड़ते जाएंगे। सम्पत्ति बढ़ती रहेगी तो दूसरी तरफ सामाजिक-पारिवारिक स्थिति बिगड़ती रहेगी। सम्पत्ति भी जरूरी है, मगर संस्कारों की कीमत पर नहीं ! संस्कार रहेंगे तो सम्पत्ति आती रहेगी, मिलती रहेगी, बढ़ती रहेगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि सम्पत्ति टिकी रहेगी। संस्कृति और संस्कारों से विरत सम्पत्ति कभी भी फलीभूत नहीं होती। एक दरवाजे से आती है तो दूसरे दरवाजे से निकल जाती है। इसलिए सम्पत्ति अर्जित करें, मगर टिकने वाली और उसका नुस्खा संस्कारों की पाठशाला में पढ़ने को मिलता है। सम्पत्ति और संस्कारों के बीच संतुलन बनाए रखने में रचनाकारों-कलमकारों की बहुत बड़ी भूमिका है।