संवेदनशील कवि, लोकप्रिय राजनेता, प्रखर हिन्दी प्रेमी, पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल पं.केशरीनाथ त्रिपाठी

गंगा, यमुना,सरस्वती के निवेणी संगम के कारण तीर्थराज प्रयाग की महिमा सविदित है। उसी नगर के प्रतिष्ठित विधिवेत्ता, लोकप्रिय राजनेता, सम्मानित कवि, पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी अपने बहुआयामी कर्तत्व एवं सरल स्वभाव के कारण सबके आत्मीय रहे हैं। उनके व्यक्तित्व कृतित्व में साहित्य, राजनीति तथा कानून की लिवेणी का समावेश था। कवि की संवेदना, कानून के पेशे की दक्षता तथा राजनीतिज्ञ की सहज-सुलभता ने उन्हें सर्वप्रिय बनाया।
अपने संघर्षशील जीवन में उन्होंने निरंतर अध्यवसाय एवं कठिन परिश्रम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निष्णात अधिवक्ता के रूप में ख्याति अर्जित की, तो राजनीति के क्षेत्र में अपनी अनन्य निष्ठा,तथा लोक-सम्पर्क के कारण-जनसंघ एवं भारतीय जनता पार्टी के विधायक, प्रदेश अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष के रूप में वे सम्मानित प्रशंसित हुए। समाज एवं राष्ट्र के प्रति उनकी अनवरत सेवा को आदर प्रदान करते हुए केन्द्र सरकार ने 2014 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया। महामहिम के रूप में अपनी सहजता, सदाशयता तथा निरभिमानी स्वभाव के कारण वे प्रदेश के वृहत्तर समाज के आत्मीय बने। कवि केशरीनाथ जी का ही एक दोहा है — सत्य, प्रेम, करुणा, दया, जीवन में अपनाय / सुख-दुख सबका बाँट ले, सबका प्रिय बन जाय ॥ कह सकते हैं कि उन्हौने केवल इस दोहे की रचना ही नहीं की थी, इसे अपने जीवन में उतारा भी था।
पं. केशरीनाथ त्रिपाठी भले ही राजनीति के बीहड़ पथ के पथिक हों या कानून के पेचीदगी भरे पेशे से सम्ब रहे हों उनके भीतर का कवि उनकी संवेदना तथा सहृदयता को सदैव जागरूक रखता रहा है। देश के एक विशिष्ट प्रदेश पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जैसे सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बावजूद वे सहज बने रहे। पद की गरिमा का वे निर्वाह तो करते रहे, परन्तु इसका अहंकार उन्हें जरा भी नहीं था।
भारतीय राजनीति के दो विशिष्ट व्यक्तित्व पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा उत्तरप्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की कविपरक संवेदना तथा सहृदयता के सभी कायल रहे हैं। ये दोनों ही केशरीनाथजी के श्रद्धेय रहे हैं। अटलजी की पक्तियाँ हैं –
हे प्रभु ! मुझे ऐसी ऊँचाई कभी मत देना।
गैरों को गले न लगा सकूँ। ऐसी रुखाई कभी मत देना ॥
निपाठी जी की छः काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं मनोनुकृति, आयु-पंख, चिरंतन, मौन और शून्य तथा निर्मल दोहे। डॉ. प्रकाश त्रिपाठी के संपादन में इन छहों कृतियों का एकन संकलन ‘संचयिता’ भी प्रकाशित हो चुका है। कवि केशरीनाथजी की सूजन-प्रक्रिया के सूत्र उन्हीं की पक्तियों में — मैं तलाश रहा हूँ। शब्दों को बनाने वाले अक्षर, रेखायें, मात्रायें। ताकि उनमें भर सकूँ जीवंतता, जिजीविषा, सत्य और निहितार्थ। ‘शून्य, मौन और में यही तीन / मेरी बीन’ और यह भी अक्षर-अक्षर भाव भरे सागर से गहरे शब्द सँजोकर मन से निकले, गीत हो गये ॥
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने श्री केशरीनाथ त्रिपाठी रचित ‘आयु-पंख’ के लोकार्पण के अवसर पर जो बात कही थी, वह केशरीनाथजी के कवि रूप पर बड़ी ही सारगर्भित टिप्पणी है – ‘भाव के ऊपर विवेक का नियंत्रण और विवेक द्वारा मंगलमय भविष्य की रचना के लिए परंपरा से निरंतर शक्ति संग्रह का प्रयास। मनुष्य जैसा होता है, उसकी रचनाएँ वैसी ही होती हैं।’ मुझे इस संदर्भ में ‘मनोनुकृति’ कृति की ‘लक्ष्य’ कविता सार्थक लगती है — शून्य जीवन में चलो खुशियाँ बटोरें, हों जहाँ काँटे गुलाबी शाम दे दें। क्या करेंगे जो मिला है पास रखकर, चल न पाए जो उन्हे दो पाँव दे दें।
गीत की इनप्रारंभिक पक्तियोंके साथ पूरी रचना में ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘जीवेम शरदः शतम्’, ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’, ‘सत्यमेव जयते’ आदि मंत्र-पंक्तियों को अलग-अलग अनुच्छेदों में काव्य-कौशल के साथ समाहित कर लिया गया है। त्रिपाठी जी के काव्य संसार में प्रेम की सहज अभिव्यक्ति की भी अनेक रचनाएँ हैं। कितनी मोहक हैं ये पंक्तियाँ – – मीत के संग गीत हो, अच्छ लगेगा, प्रीति के संग रीति हो, अच्छा लगेगा। एक सुन्दर गज़ल सी तुम सामने आकर खड़ी हो, बस तुम्हारी ख्वाहिशों की जीत हो,अच्छा लगेगा।
संक्षेप में त्रिपाठीजी की कविताओं में राष्ट्र-राग है, संस्कृति-सौरभ है, प्रेम की प्रगाढ़ता है, भक्तमन की भावकता है, विसंगतियों पर विकट प्रहार है,व्यंग्य की वक्र-मुद्रा है और है समसामयिक स्थितियों का सम्यक् विवेचन। उनकी बहुरंगी कविताओं में पुष्प-स्तवक की भाँति वैविध्य भी है और वैशिष्ट्य भी।
श्री केशरीनाथ त्रिपाठी ने 24 जुलाई 2014 को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में दायित्व ग्रहण किया था। उन्होंने 28 जुलाई 2019 को अपना पाँच वर्षीय कार्यकाल पूर्ण किया। केन्द्र में नई सरकार के गठन के बाद राज्यपालों की नियुक्ति की यह सामान्य सी दिखने वाली प्रक्रिया पश्चिम बंगाल के लिए विशिष्ट एवं अविस्मरणीय बन जायेगी, इसकी कल्पना तब किसी को नहीं थी। उनके आगमन के साथ ही अतीत की उनकी सक्रियताओं के आधार पर उनका आकलन शुरू हो गया था। कोई उन्हें मूर्द्धन्य कानूनविद तथा संविधान विशेषज्ञ कह रहा था;किसी की दृष्टि में वे संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक एवं प्रभावी राजनीतिक कार्यकर्ता थे, तो कोई आम जन के कल्याण हेतु समर्पित जननेता के रूप में उनकी ख्याति का गुणगान कर रहा था। साहित्य-संस्कृति से जुड़े लोग संवेदनशील साहित्यकार एवं सहृदय कवि के रूप में देश-विदेश में उनकी ख्याति की चर्चा कर रहे थे।
उनके आगमन के साथ ही समाचार-पत्रों में उनकी संभावित कार्यशैली पर विवेचन शुरू हो गया था। ‘दृष्टि भेद से दृश्य भेद’ के आधार पर टिप्पणियाँ भी आने लगी थीं। ‘मैं मानव हूँ, मानवता का अनुगीत सुनाने आया हूँ’ जैसे असंख्य गीतों के रचनाकार त्रिपाठीजी इसे सहज रूप से सुनते-समझते गुनते रहे। ‘बंद वातायन सभी खुल जायेंगे / गीत मेरे गूंजकर कह जायेंगे’ जैसी पंक्तियों के कवि को इन बातों पर अधिक गौर करने की जरूरत भी नहीं थी।
उस दौरान किसी बांग्ला समाचार पत्र में त्रिपाठीजी के कवि-रूप को विशेष रूप से रेखांकित किया गया था। साहित्य, संगीत और कला से समृद्ध इस बंगभूमि के लिए यह अतिरिक्त गौरव की बात थी। बावजूद इसके यह चर्चा भी आम थी कि प्रदेश के प्रथम नागरिक के रूप में ‘अति विशिष्ट’ पद पर विराजमान व्यक्ति अपनी मर्यादा (प्रोटोकॉल) में रहते हुए आम लोगों से कितना जुड़ पाएँगे—’लाट साहब’ के रूप में जन-मानस में प्रतिष्ठित छवि आम और खास के बीच की दूरी को स्वतः व्यंजित करती है। राजभवन को बुजुर्ग राजनेताओं का विश्राम स्थल मानने वाले समीक्षकों की धारणा के वशीभूत लोगों के मन में 80 वर्षीय राज्यपाल की सक्रियता के बारे में भी तब सन्देह था। यद्यपि एक वर्ग ऐसा भी था, जो उनकी कर्मठता से सुपरिचित होने के कारण पूर्णतः आश्वस्त था।
आशंकाओं और अपेक्षाओं की मिली-जुली अनुभूतियों के बीच महामहिम राज्यपाल ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया था। उनकी प्रारम्भिक सक्रियता ने अधिकारियों-कर्मचारियों को यह संकेत दे दिया था कि वे आम लोगों से जुड़कर अपनी गतिशीलता बनाये रखना चाहते हैं। ‘चरैवेति-चरैवेति’ शीर्षक वाली अपनी एक रचना में वे कहते भी हैं—’चारों ओर बंधे / निकास रहित। थोड़ा हो या अधिक / पोखरे का पानी सड़ जाता है, या सूख जाता है।’ कवि ने ‘यथास्थिति भी कोई जीवन है’ कहकर रचना का समापन यों किया है—‘गतिशीलता ही जीवन है। इसलिए चरैवेति-चरैवेति।’
उन दिनों की आरम्भिक मुलाकातों के दौरान वार्तालाप के क्रम में जिन भावों का आदान-प्रदान हुआ, उसे केशरीनाथजी द्वारा कही गयी एक ग़ज़ल के माध्यम से आज यूँ व्यक्त किया जा सकता है—‘मुझमें जो पीर थी, वह पीर न जानी मेरी। यूँ ही बेगानी रही, एक कहानी मेरी॥ वक्त आयेगा और यूँ ही गुजर जायेगा। मुझको कह लेने दो छोटी-सी कहानी मेरी॥’
यह कहानी कहने के लिए भले ही छोटी हो, लेकिन इसके अन्तःकरण में वे ढेर सारी सक्रियताएँ हैं, जो सर्वोच्च संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति की कर्मठता का दीर्घ इतिवृत्त बन सकती हैं। शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक, सांगीतिक—सभी क्षेत्रों को अपनी उपस्थिति एवं उद्गारों से प्रभावित बनाने वाले राज्यपाल केशरीनाथजी ने सैकड़ों संस्थाओं को अपनी शुभेच्छाएँ दीं, अपनी सद्भावना प्रदान की। उनकी इस सदाशयता से वृहत्तर महानगर की अनेक संस्थाएँ अभिभूत रही हैं। हिन्दी भाषा तथा साहित्य से जुड़ी शायद ही कोई संस्था होगी, जिसे राज्यपाल त्रिपाठीजी का नेह न मिला हो। हिन्दी भाषा-भाषियों की संस्थाओं के साथ बांग्ला भाषा-भाषियों के आयोजनों में भी वे रुचिपूर्वक भाग लेते रहे। ऊपर उद्धृत ग़ज़ल की अगली पंक्तियाँ बड़ी ही सार्थक हैं—‘लम्हे ऐसे हैं कि भूले से नहीं भूलेंगे। करेंगे रश्क सभी, सुनके कहानी मेरी। शोले जो दहके थे गुलशन में बुझाया मैंने। गुंचे-गुंचे पर होगी निशानी मेरी॥’
एक ओर कवि राज्यपाल यदि अपनी कार्यशैली से आश्वस्त संतुष्ट रहे, तो दूसरी तरफ उन्हें यह भी मालूम था कि उसके प्रति कुछ लोगों के मन में नाराज़ी है। बड़ी साफगोई से कवि कहता है — ‘लोग नाराज क्यों रहते हैं, मुझ ही से अक्सर। बात यह है कि कबीरा-सी है बानी मेरी ॥
पद के मद से दूर रहकर त्रिपाठीजी ने अपने को वृहत्तर समाज से जोड़ा। कोलकाता को उन्होंने अपना बनाया तो पूरे शहर के वे अपने हो गये। उनके आत्मीय वृत्त में हिन्दी, बांग्ला, उर्दू और अन्य भाषाओं के कवि, साहित्यकार, रचनाकार, संस्कृतिकर्मी, कलाकार जुड़ते गये। यह दायरा कब, कैसे लघु से विराट हो गया, इसकी प्रतीति किसी को नहीं हुई। भाषिक दृष्टि से बांग्ला की जानकारी का अभाव बाधक नहीं बना; साधक की भूमिका का निर्वाह किया अकुंठ आत्मीयता ने और एक बड़ा वर्ग उनसे जुड़कर प्रमुदित-आनन्दित हुआ। केशरीनाथजी की विद्वत्ता, वाग्मिता तथा विनम्रता ने राज्यपाल के रूप में कार्यकाल को अविस्मरणीय तो बनाया ही, उनकी सर्वसुलभता ने लोक-मानस पर अमिट छाप भी छोड़ी। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वे पश्चिम बंगाल के अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय राज्यपाल रहे हैं। यहाँ यह भी लिख रखूँ कि इस ‘सर्वाधिक लोकप्रिय’ विशेषण पर आपत्ति करते हुए उन्होंने मुझे टोका भी था। खास पद पर आसीन होते हुए भी उनका आचरण-व्यवहार आम लोगों जैसा रहा। वे ‘दल’ की परिधि से ऊपर उठकर सभी के ‘दिल’ में अपना स्थान बनाने में सफल हुए।
अपनी उदारहृदयता से उन्होंने सबका समादर प्राप्त किया। मुझे स्मरण है जब कोलकाता के एक अति-वरिष्ठ वामपंथी लेखक-कविकर्मकार ने उत्स्फुल्ल कंठ से टिप्पणी की थी—‘केशरीनाथजी बहुत ही सहज एवं आत्मीय हैं; उनसे मिलकर विष्णुकान्त शास्त्रीजी याद आते हैं।’ मैंने उन्हें छेड़ते हुए कह दिया था कि दोनों जिस विचार-सरणि के पथिक रहे हैं, वहाँ ये गुण स्वाभाविक रूप से विकसित हो ही जाते हैं। इस टिप्पणी पर मेरे वरिष्ठ मित्र ने सहज भाव से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए मुस्कराकर सद्भाव भी प्रकट कर दिया था। ऐसे असंख्य प्रसंग हैं, जो त्रिपाठीजी की आत्मीयता एवं सदाशयता को रेखांकित करते हैं।
पं. केशरीनाथ त्रिपाठी का जन्म 1934 ई. को इलाहाबाद (उ. प्र.) में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद में ही हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने 1953 ई. में बी.ए. तथा 1955 ई. में एल.एल.बी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। केशरीनाथजी वर्ष 1956 ई. से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में संबद्ध हुए। वे 1965 ई. में इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के पुस्तकालय सचिव तथा 1987–88 एवं 1988–89 में इसके अध्यक्ष रहे। 1980 ई. में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पद स्वीकार करने का प्रस्ताव आया, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। 1989 ई. में त्रिपाठीजी उच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता निर्दिष्ट हुए। सिविल, संविधान तथा चुनाव संबंधी कानून के विशेषज्ञ के रूप में आपकी ख्याति रही।
12 वर्ष की अवस्था में, वर्ष 1946 ई. में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े तथा 1952 ई. में भारतीय जनसंघ की स्थापना काल से ही उसके कार्यकर्ता के रूप में संबद्ध हो गए। उन्होंने कई आंदोलनों में सक्रियतापूर्वक भागीदारी की और कारावास भी किया। जनता पार्टी की टिकट पर वर्ष 1977 से 1980 तक झाँसी विधानसभा (इलाहाबाद) से विधायक रहे। 1977 ई. से 1979 तक उत्तरप्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री (वित्त तथा कर मंत्रालय) रहे। भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर वर्ष 1989, 1991, 1993, 1996, 2002 से 2007 तक इलाहाबाद (दक्षिण) क्षेत्र से उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। केशरीनाथ जी उत्तरप्रदेश विधानसभा के तीन बार अध्यक्ष भी रहे—30 जुलाई 1991 से 15 दिसंबर 1993 तक, 27 मार्च 1997 से मार्च 2002 तक तथा मार्च 2002 से 19 मई 2004 तक। 14 जुलाई 2014 से 28 जुलाई 2019 तक पश्चिम बंगाल के 20वें राज्यपाल का दायित्व संभाला। इसी कालखंड में समय-समय पर बिहार, मेघालय, मिजोरम तथा त्रिपुरा के राज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार भी उन्हें प्राप्त हुआ।

केशरीनाथ जी उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे। इंग्लैंड, सूरीनाम तथा मॉरीशस के विश्व हिन्दी सम्मेलनों में आपने सक्रिय भागीदारी की। अनेक साहित्यिक, सामाजिक, शैक्षिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं से आपका जुड़ाव रहा।
त्रिपाठीजी की प्रकाशित कृतियाँ हैं—
काव्य-संग्रह: मनोनुकृति, आयुपक्ष, चिरंतन, उन्मुक्त, मौन और शून्य, निर्मल दोहे। इन सभी काव्य कृतियों का एक संकलन ‘संचयिता’ नाम से भी प्रकाशित है। ‘शब्द भ्रमर’ काव्य-संग्रह 2022 में प्रकाशित हुआ।
‘जख्मों पर शबाब’ और ‘ख्यालों का सफ़र’ (उर्दू–देवनागरी) — दोनों पुस्तकों का उर्दू भाषा में लिप्यंतर किया गया है तथा ‘जख्मों पर शबाब’ का राजस्थानी और संस्कृत भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है।
मनोनुकृति और आयुपक्ष का क्रमशः The Images और The Wings of Age के नाम से अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किया गया है। I am the Love, From Nowhere तथा Destination Jesus नामक अंग्रेज़ी भाषा में तीन काव्य-संग्रह भी प्रकाशित हैं। I am the Love का बांग्ला और हिन्दी में अनुवाद भी उपलब्ध है।
चुनिंदा भाषणों का संग्रह ‘समय-समय पर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।
देहावसान: 8 जनवरी 2023 को प्रयागराज (उ.प्र.) में।
राज्यपाल बनने के बाद केशरीनाथजी पहली बार श्री बड़ाबाज़ार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता के ‘हिन्दी दिवस समारोह’ में सितम्बर 2014 को पधारे। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे अपनी कुछ कविताएँ भी सुनाएँ। हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा से पूरित अपने प्रभावी वक्तव्य से उन्होंने उस दिन श्रोताओं को मंत्रमुग्ध तो किया ही, अपनी कविताओं से भी काव्य-प्रेमियों को सम्मोहित कर लिया। विविधरंगी कविताओं के रस-प्रवाह में केवल श्रोता ही नहीं, बल्कि स्वयं कवि केशरीनाथ त्रिपाठी भी बह गए। उन्होंने कहा भी—‘आप सबका काव्य-प्रेम देखकर मैं आनंदित हूँ; मैं भूल गया था कि मैं राज्यपाल हूँ।’ मीडिया में इसकी खूब चर्चा हुई और पूरे प्रदेश में वे ‘कवि-राज्यपाल’ के रूप में सुप्रतिष्ठित हो गए। बाद में तो वे उल्लासपूरित उलाहना देते हुए मुझसे प्रायः कहने लगे थे कि कुमारसभा के मंच से मेरी काव्य-प्रस्तुति की ऐसी ख्याति हो गई है कि जहाँ भी जाता हूँ, लोग मेरी एकाध रचना अवश्य सुनना चाहते हैं।
सुवक्ता के रूप में भी पं. केशरीनाथ त्रिपाठी ने गहरी छाप छोड़ी थी। अपनी गुरु-गंभीर वाणी में जब वे बोलना प्रारंभ करते थे, श्रोताओं पर उसका त्वरित प्रभाव पड़ता था। विषय का संतुलित और सुव्यवस्थित विवेचन, नवीन विचारों से युक्त व्यावहारिक परामर्श—ये सभी गुण उनके वक्तव्य को प्रभावी बनाते थे। खासियत यह भी थी कि अस्सी वर्ष से ऊपर की उम्र के बावजूद कहीं भटकाव या समय का अतिक्रमण नहीं होता था। हर भाषण में सकारात्मक संदेश निहित रहता था।
वर्षों पहले, यानी नवम्बर 2000 में पश्चिम बंगाल (कोलकाता) ने उत्तरप्रदेश को साहित्यमनीषी, हिन्दीप्रेमी आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री के रूप में ऐसा राज्यपाल प्रदान किया था, जिनके सयवहार-सदाचरण के साथ जिनकी सक्रियता – सदाशयता ने उत्तरप्रदेश के जन-जन के मन में सम्मानजनक स्थान बना लिया था। वे 2 जुलाई 2004 तक उ.प्र.के राज्यपाल रहे। उनकी उपस्थिति ने राज भवन लखनऊ को साहित्यिक सुवास से सुगन्धित एवं मानवीय संवेदना से आपूरित कर जनोन्मुखी बना दिया था। प्रतीत होता है कि ठीक 10 बरस बाद उत्तरप्रदेश ने उस ‘नेहोपहार’ के बदले श्री केशरीनाथ त्रिपाठी के रूप में सहदय-शालीन व्यक्तित्व को पश्चिम बंगाल भेजकर ‘आदान प्रदान’ की परम्परा का सम्यक्निर्वाह किया था।
