लो ! बसंत आ गया

खेतों में फूली है सरसों
चाहत मन में बो रहीं।
गीत सुन‌ भ्रमरों के कलियाँ,
गोपियों सी हो रहीं।
पवन गंध बिखेरती,
अनंग भाव टेरती।
प्रेमसिक्त तूलिका,
चित्र है उकेरती।
बौराया आम भी,
प्रकृति को भा गया।
लो ! बसंत आ गया।।

माँ शारदे का जन्मदिन,
प्रकृति भी मना रही।
उपवन भी हर्षित हुआ,
कोयलिया गीत गा रही।
कलियों का आमंत्रण सुन,
भ्रमरों ने रचे भ्रमर-गीत।
नदियों की गति देख,
सागर बन गया मीत।
गर्जन उसी का ये बता गया।
लो ! बसंत आ गया।।

चाह भी नयी हुयी,
भाव नवल हो गये।
जो मिले अभी-अभी,
फिर कहाँ वे खो गये।
द्वार पर बसंत है,
भावना ही कंत है।
पढ़ सके जो भाव ये,
वो प्रेम का महंत है।
गहरी बात यह खुद,
वो बता गया।
लो ! बसंत आ गया।।

ग्रीष्म भी नहीं निकट,
शीत भी गयी चली।
नफरतों के राज्य से,
प्रेम की दुनिया भली।
विरह से मिलन बडा़,
सृजन अजेय है खड़ा।
बसंत रुप ही सदा,
पतझड़ों से लड़ा।
अमरत्व का मंत्र बता गया।
लो ! बसंत आ गया।।

राज किशोर वाजपेयी "अभय", ग्वालियर