गुसलखाने से एक मधुर स्वर में कुछ गीतों के गुनगुनाये जाने की आवाज़ आ रही थी। पर, ताज्जुब की कोई बात नहीं, “प्रकाश का यह रोज़ का काम है” मन ही मन रौशनी यह सोचकर मुस्कुरा रही थी। उसके दिन की शुरुआत इसी तरह होती है। प्रकाश मध्यमवर्गीय परिवार की ज़िन्दगी में खुशहाली के साथ अपने पिता, पत्नी व बच्चों सहित रहता है। वहीं रौशनी एक पढ़ी लिखी और एकल परिवार के ढर्रे में पली बढ़ी अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है। विवाह के तकरीबन १८ साल हो गए और अपने दो बच्चों व ससुर के साथ अच्छे ताल मेल से रहती है।
कुछ पल बीते होंगे और गुसलखाने से आने वाली आवाज़ बंद हो गयी जो अक्सर प्रकाश के निकलने का संकेत हुआ करता है। पर, यह क्या रौशनी ने अपने रसोईघर से झांक कर देखा तो ऐसा नहीं था, दरवाज़ा अभी भी बंद ही था। तकरीबन, १० मिनट बाद प्रकाश आँखों में चमक और आवाज में बुलंदी के साथ बाहर निकलता है।
प्रकाश : अरे! रौशनी कहाँ हो…, जल्दी आओ।
रौशनी : आ रही हूँ, आज इतनी जल्दी भी क्या है? १५ अगस्त की छुट्टी जो है।
प्रकाश : इसीलिए तो कह रहा हूँ, जल्दी आओ कुछ बताना है।
औरतें कितनी भी जल्दी कर लें पर अपने रसोईघर से तुरंत निकल कर आना, लगभग असंभव सा लगता है। फिर भी रौशनी हाथ पोछते हुए वहां से निकलती है। पर, तब तक १० मिनट बीत चुके थे।
रौशनी : लो बाबा, आ गई, बोलो क्या है ?
प्रकाश : कमरे में लगी घड़ी की तरफ देखते हुए, एक विचार आया था मन में पर….., अभी नहीं। तुम पहले नास्ता दे दो फिर बताएँगे। बहुत भूख लगी है १०:३० बज गए हैं।
रौशनी : नास्ता तैयार है। पर, अब मेरा मन नहीं लगेगा। बोलो न क्या बात है ?
तभी पापा की आवाज़ सुनकर १५ वर्षीय बेटा दीपक भी कौतुहल के साथ कमरे में दाखिल होता है।
मध्यमवर्गीय परिवार के घर इतने छोटे होते हैं कि, चाह कर भी कोई बात गोपनीय नहीं रख सकते।
दीपक : आशा भरी नजरों के साथ, पापा ! क्या आज घूमने जाना है। नाना के यहाँ जब गए थे वही हमलोगों का आखरी बार बाहर निकलना हुआ था।
आवाज इतनी खुशनुमां थी कि भला उज्ज्वला (१२ साल की बेटी) कैसे रुक सकती थी, और सुनकर भागी चली आई।
उज्ज्वला : ये ये ये ……..! आज तो घूमने जाना है। पापा मैं भी।
प्रकाश : हा हा हा ! रुको पहले नास्ता, फिर कोई बात।
खैर, नास्ता, खाना सब निपटाते रौशनी को दोपहर के ३ बज गए और उस समय तक का अपना आखरी काम “बाबू जी को दवा खाने की याद दिलाकर” वह अपने कमरे में आई। बाबू जी ६२ वर्षीय, जो २ वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हुए थे, ब्लड प्रेसर और शुगर की वजह से दवा के आधीन हो चुके हैं, बहुत ही शांत और गंभीर व्यक्तित्व वाले हैं। वो भी तब से, जब ५ वर्ष पूर्व प्रकाश की माँ का असमय निधन हो गया था।
रौशनी : कमरे में घुसते ही, अब कोई और बहाना नहीं। मेरा तो सब दिन एक समान ही जाता है, छुट्टी का भी कोई फायदा नहीं। सारे काम अब तक के निपटा कर आई हूँ, अब बताओ अपनी बात।
प्रकाश : अपने दोनों बच्चों के साथ लूडो का पासा चलाते हुए, हाँ हाँ क्यूँ नहीं। आओ बैठो, तुम भी खेलो
रौशनी : नहीं, तुम लोग खेलो। मैं देखती हूँ और तुम्हारी बात सुनूंगी।
उज्ज्वला : पापा आपकी चाल आ गई।
प्रकाश : अपनी चाल (पासा फेंकना) चलते हुए, आज सुबह ही मेरे मन में ख्याल आया कि क्यूँ न अपनी टी.वी. बदल दी जाये। पुरानी टी.वी. को लगभग १२ साल हो गए और अब तक तीन बार इसकी मरम्मत भी हो चुकी है।
दीपक : हाँ पापा, आप ठीक कह रहे हैं।
रौशनी : अभी तीन महीने पहले ही मेकैनिक १२०० रूपए लेकर गया है। मेरा भी मन कर रहा था। पर, घर खर्चे से उबरें तब न ये सब सोंचे।
मध्यमवर्गीय परिवार में अक्सर देखा गया है बड़े खर्चों का दारोमदार परिवार के एकमात्र अर्निंग मेंबर पर निर्भर करता है। और कमोबेस प्रस्ताव भी वहीं से आता है क्यूँ कि नकारे जाने का जोखिम कोई दूसरा सदस्य कभी लेना नहीं चाहता।
प्रकाश : अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए, देखो ! अभी अगस्त का महीना है और ठीक २ महीने बाद अक्टूबर में दिवाली है। सितम्बर महीने में बोनस भी मिलेगा, क्यूँ न इस धनतेरस में हम टी.वी. ले लें।
उज्ज्वला : पापा प्लीज़ ! थोड़ा बड़ी लेना ४० इंच वाली, मेरे सभी दोस्तों के यहाँ दीवाल पर लगी है।
दीपक : तपाक से ! ऍम.आई. की ले सकते हैं। पापा ४० हज़ार में आ जाएगी।
रौशनी : दिमाग ख़राब हो गया है क्या तुम्हारा, इतना मंहगा नहीं।
दरअसल, सीमित आय और बढ़ते खर्चों के मद्देनजर, परिवार में महिलाएं अपने आपको काफी हद तक कमतर कर के आंकती हैं। किसी भी हालात में वो अपने जरूरी खर्चों में कोई कटौती करना नहीं चाहती। वाकई में, वो जरुरी खर्चे परिवार के सदस्यों के सेहत की बुनियाद होते हैं। इसका आंकलन किसी पुरुष के द्वारा कभी संभव नहीं है और यही शायद महिलाओं का उनके परिवार के प्रति समर्पित भाव का ज्वलंत उदहारण भी है।
प्रकाश : इसके पहले की रौशनी कुछ और बोलती, बीच में टोकते हुए, अरे ! गुस्सा क्यूँ करती हो ? बच्चे ठीक ही तो कह रहे हैं। आजकल ३२ और ४० इंच की कीमत में ज्यादा फर्क नहीं है।
दीपक : मम्मी ! पापा ठीक बोल रहे हैं।
रौशनी : ठीक है ठीक है। यही बात थी। लेना कब है और बात आज कर रहे हो, जब पैसे हों तब बात करना।
प्रकाश : नहीं ! आज ही बात करेंगे और फाइनल भी करेंगे। दिवाली में ऑफर भी होते हैं और हम कौन सा कैश में लेंगे……… १० महीने की ई.ऍम.आई. पर कोई एक्स्ट्रा चार्ज नहीं लगता, सिर्फ १५०० रुपये ऊपर के लगेंगे।
रौशनी : हमको मत सिखाओ, डाउन पेमेंट का क्या, वो तो लगेगा ना।
प्रकाश : उसका इंतज़ाम बोनस के पैसों से हो जायेगा।
मध्यमवर्गीय परिवारों में खर्चे की प्लानिंग आय होने के पहले हो जाती है और शायद इसी वजह से उनका सेविंग्स अकाउंट अक्सर खाली ही पाया जाता है। दरअसल, खर्चे अपना मुंह बाये हर समय खड़े रहते हैं और वो किसी भी रूप में प्रस्तुत हो जाते हैं। चाहे किसी की शादी या बर्थडे का इन्विटेशन हो, किसी की बीमारी या फिर घर में आगंतुक का आना। एक सामजिक एवं व्यवहार कुशल परिवार को ये खर्चे वरदान के रूप में मिलते हैं। और वो भी इनको बड़ी तत्परता से पूरा करते हैं क्यूँ कि, उन्होंने भी बचपन से यही देखा होता है।
रौशनी : बच्चों को जाने का संकेत देते हुए, बताओ कैसे ?
प्रकाश : बच्चों को पुनः रोकते हुए, इस विचार से कि दुनियादारी की समझ उन्हें भी रहे, बताता हूँ। मैंने पता किया है, ४२ हजार की टी.वी. आएगी, तकरीबन १२ हज़ार रुपये डाउन पेमेंट का देना होगा और बाकी १० महीनों में आराम से।
रौशनी : अच्छा ! याद है पिछली बार का बोनस। २० हज़ार मिले थे और बच्चों के कपड़े, दिवाली पूजा की तैयारी में ही सब ख़त्म हो गए थे। ऊपर से बाबू जी के चस्मा का भी खर्च आ गया था। इस बार तो सैलरी भी नहीं बढ़ी, तो बोनस भी इतना ही मिलेगा ना।
प्रकाश : मैं वो सब नहीं जनता। बस टी.वी. लेना है और वो भी ४० इंच की, भले ही कपड़े ना बनें इस बार।
दीपक : हाँ पापा। वैसे भी ४ महीने पहले मामा की शादी में बनवाए हैं, हो जायेगा उससे ही।
एकसूत्रीय परिवार की यह बड़ी ख़ूबसूरती होती है कि किसी भी परिस्थिति से निपटने की मनःस्थिति में सबके विचार एक दूसरे से सहमत नज़र आते हैं। यहाँ ज़िद और हठ के लिए कोई गुन्जाईस नहीं बचती और सबसे बड़ी बात यह कि परिवार का छोटे से छोटा सदस्य भी इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है। तो भला उज्ज्वला पीछे कैसे रह सकती थी।
उज्ज्वला : मैं अपना लंहगा पहन लूंगी।
रौशनी : कोई जरुरत नहीं। बाबू जी कि पेंशन आती है वहां से ले लेंगे।
प्रकाश : सुनते ही आगबबूला होते हुए, क्या बोल रही हो रौशनी ? ऐसा हरगिज नहीं होगा।
रौशनी : क्यूँ नहीं होगा ? अपनी बात को ज़ोर से बोलते हुए, उनसे हम कोई खर्च थोड़े ही लेते हैं।
इतना बोलते ही रौशनी को स्वयं में झेंप सी महसूस हुई, उसका सर थोड़ा झुक सा गया। बच्चे भी मम्मी का मुँह ताकने लगे कि आज मम्मी को क्या हो गया है।
प्रकाश : रौशनी ! तुमसे तो यह उम्मीद न थी। फिर तुम ऐसा कैसे सोच बैठी ? अब तो मैं टी.वी. लाऊंगा ही, चाहे जैसे भी हो।
दीपक : पापा आप गुस्सा मत करो। मम्मी का ये मतलब नहीं था प्रकाश : गुस्से में…. मतलब साफ़ है।
दीपक : जाने दो पापा। हमसब मिलकर इसका हल निकालते हैं। मैं भी अब बड़ा हो गया हूँ। कुछ ना कुछ जरूर करूँगा।
सामान्यतः, परिवार खासकर तब, जब आर्थिक तंगी का सामना करता हो, अक्सर साथ बैठ कर किसी विषय पर जब चर्चा करते हैं, तो किसी भी वजह से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह संभव नहीं कि बगैर विरोध के किसी निर्णय पर पंहुचा जा सके। यही कारण होता है कि बात अधूरी रह जाती है और सभी सदस्य अपने अपने रोज़मर्रे के कामकाज पर फिर से जुट जाते हैं। पर, शायद आज ऐसा नहीं होगा। दीपक ने भी ठान रखा था कि आज अपनी बात मनवा कर ही रहेंगे।
रौशनी : अपने मिज़ाज़ में नर्मी लाते हुए…., मेरी बात का बुरा मत मानों प्रकाश। मैंने तो बस सहूलियत के लिए कही थी। मेरे पास सेविंग्स के कुछ पैसे हैं और अभी २ महीने बाकी हैं तो और भी इकठ्ठा कर के दूंगी।
दीपक : पापा, मैंने भी २ आर्टिकल लिखे थे स्कूल के मैगज़ीन में, जिसको फर्स्ट प्राइज़ के लिए सेलेक्ट किया गया है। २ हज़ार रुपये का पुरस्कार है। अक्टूबर में एनुअल डे के दिन मिलेगा।
उज्ज्वला : पापा मेरे पास भी ५०० रुपये है, मैं भी दूंगी।
रौशनी : यह सब सुनकर आँखों में आंसू लिए……, नहीं बच्चों मैं और पापा मिलकर इसको सुलझा लेंगे। अब तो टी.वी. आएगी ही और वो भी ४० इंच।
दीपक/ उज्ज्वला : ये ये ये …….! और अपनी मम्मी के गले लग जाते हैं।
मतभेद चाहे जितने हों, पर यदि अपनी उग्रता पर काबू पाकर कोई अपने विचारों को परिवार में ख़ुशी स्थापित करने के लिए कदम बढ़ाता है, जो इतना मुश्किल भी नहीं, तो अंत में अपने वांछित निस्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है। और यही उदाहरण रौशनी ने भी पेश किया।
प्रकाश : थोड़ा नरम पड़ते हुए…., हाँ रौशनी, मैं भी नाहक ही गुस्सा कर बैठा। मैं समझता हूँ, तुम्हारे मन में बाबू जी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। हमलोग मिलकर अब टी.वी. भी लाएंगे और दिवाली भी धूमधाम से मनाएंगे।
दीपक : हाँ पापा ! आज हमलोग घूमने नहीं जायेंगे। अब पहले दिवाली, उसके बाद ही कुछ और होगा।
उज्ज्वला : भैया का हाथ पकड़ कर, हाँ पापा।
इस तरह योजनाबद्ध तरीके से दीपक ने रौशनी के साथ मिलकर, धनतेरस के दिन पहले तो टी.वी. खरीदी, फिर पूरे परिवार के लिए कपड़े और दिवाली का सामान। पर, मन ही मन प्रकाश अपनी कंपनी को दुवाएं दे भी रहा था, क्यूँ कि पिछली बार कि तरह कोविड की वजह से कंपनी ने बोनस काटा नहीं, बल्कि इस बार दुगुना बोनस दिया।
दिवाली की पूजा समाप्त होने के पश्चात,
परंपरागत तरीके से बड़ों का आशीर्वाद लिया जाता है। सभी खुश थे और एक-एक कर बाबू जी
से आशीर्वाद ले रहे थे। बाबूजी भी सबको आशीर्वाद देने के साथ शगुन के रूप में ५०० रुपये
दे रहे थे।
रौशनी : सबसे बाद में पांव छूने के लिए आगे बढ़ती है ……. बाबू जी चरण स्पर्श।
बाबू जी : खुश रहो बेटा और ऐसे ही परिवार में खुशियां बांटती रहो। और धीरे से अपने कुर्ते के दूसरे जेब से एक लिफाफा निकाल कर रौशनी को थमा दिया जो शायद खास रौशनी के लिए बनाया गया था।
बाद में जब रौशनी ने लिफाफा खोल कर देखा तो उसकी आँखों से अश्रुधारा रुक ना पाए अंदर १० हजार रुपये जो थे।
हम चाहे जितना भी छिपाना चाहें, पर माँ-बाप हमारी हर ज़रूरतों का ख्याल रखते हैं। और शायद बाबू जी ने भी परिस्थितिवश जरूरतों को भांप लिया था और नतीजा आपके सामने है।