मगर तुम न थे….. (ग़ज़ल)

डॉ. कनकलता  तिवारी
नवी मुंबई

मिल गया ख़ाक में तन मगर तुम न थे,
ख़ोदा ख़ुद अपना मदफ़न मगर तुम‌ न थे।


राख है शाख़ पर हर कली प्यार की,
जल गया दिल का गुलशन मगर तुम न थे।


मर गए ख़्वाब ऑंखों में देखे बिना,
ऑंख का टूटा दर्पन मगर तुम न थे।


झाँक के देखा हो बादलों से मुझे,
यूँ लगा मेरे साजन मग़र तुम न थे।

रात की नींद, दिन का सुकूँ है कहाँ,
नोच डाला ये तन-मन मगर तुम न थे।

आस का सहरा सूखा था सूखा रहा,
हर तरफ़ बरसा सावन मगर तुम न थे।

ऑंखों की खिड़कियां मुंतज़िर कब से थीं,
दिल का कमरा था निर्जन मगर तुम न थे।

हर तरफ़ ढूँढती थी निगाह-ए-कनक,
सूना था घर का आँगन मगर तुम न थे l

ना हारना है

पूजा अंतिल, सोनीपत

ना हारना है, ना थकना है,
अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।

चाहे मुश्किलें आए हजारों,
हमें आगे बढ़ते चलना है,
अब गोता मार दिया झील में,
तो खुद ही बाहर निकलना है।

जब कदम आगे बढ़ा लिया,
तो पीछे नहीं मुड़ना है,
हमारी कामयाबी को देखें चाँद-तारे,
एक दिन ऐसा बनना है।

पिता करेंगे नाज हम पे,
माँ को एहसास दिलाना है,
थकना कोई शब्द नहीं,
ये खुद को समझाना है।

आँखें जब लगेंगी सोने,
खुद की औकात दिखाना है,
दिन-रात हम लगे रहें,
अब हार ना जाना है।

सही चुनना तू अपने रास्ते,
लक्ष्य खोजते जाना है,
सबर रखना मेहनत पर अपनी,
यूँ ही बिखर ना जाना है।

हर कदम पर दुश्मन तेरे,
एक-एक वार से बचते जाना है,
ये सफर जो तूने चुन लिया,
खुद के दम पर बढ़ते जाना है।

दफन है तेरी खुशियां कफन में,
उनको तुझे रिहा कराना है,
सहारा अगर कोई ना मिले,
अकेले ही पैदल चलकर जाना है।

ना हारना है, ना थकना है,
अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।