बहू बिना घर सूना

हल्की-हल्की बूंदाबांदी से सर्दी का आभास होने लगा था। नवंबर का महीना, हिंदुस्तानी अगहन में वैसे भी गुलाबी जाड़ा मनभावन हो जाता है। दिन के लिए अम्मा कहा करती थीं कि, ‘कार्तिक बात कहातिक, अगहन हंड़िया, पूस कान का ठूंस, माघ मास तिल – तिल बाढ़े, फागुन गोड़िया काढ़े !’
अगहन मास पहले गांव में खेत – खलिहान का महीना हुआ करता था, जहां पहले बाजरा, ज्वार, तिल, मूंग आदि अनाजों की कटाई का महीना होता था। अब तो वही धान, गेहूं, यदा – कदा डंकल बाजरा ! अब खलिहान होते ही नहीं हैं, खलिहानों में किस्सा – कहानियां सिर्फ श्याम के उम्र वालों की याद में हैं बस !
श्याम की उम्र अब काम करने की नहीं रही थी बल्कि वह अब खेतों में भी बहुत कम जाता था। श्याम की अन्य बहुएं लाली – लिपिस्टिक में रहकर अपने बच्चों का ख्याल तो रख नहीं पातीं थीं, श्याम का क्या ख्याल रख सकतीं थीं। हां श्याम की बड़ी बहू इन सबसे अलग थी।
श्याम खेत जाए न जाए घर बैठे अपने सभी खेतों की स्थिति कब खाद, कब पानी देना है, कब बोना है, कब काटना है सबकुछ बता दिया करता था।
श्याम का बड़ा लड़का अधिकतर परदेश में कमाई करने चला जाता था, घर में बड़ी बहू को ही खेत देखना, श्याम का ख्याल रखना होता था। श्याम की बड़ी बहू मालती श्याम का बिस्तर लगाया करती, खाना का ख्याल रखती थी। दवा समय से देती, मनपसंद खाना बनाकर खिलाती, कपड़े धोकर प्रेस करती थी।
मालती जैसी बहुएं बहुत कम लोगों को मिलती हैं। मालती की ननद आती थी, मालती उसके भी नखरे बर्दाश्त करती थी। श्याम समझ रहा था कि, बेटी से बहू ज्यादा अच्छी, महत्वपूर्ण होती है।
एक दिन श्याम ने मालती को बुलाकर कहा, “मालती बेटे, तुझे क्या कहूं ? बेटा कहूं तो बेटा से बढ़कर तू है, बेटी कहूं तो बेटी से बढ़कर तू है। बहुएं भी बहुत कम ऐसी होती हैं जैसी तू है। एक तेरे चयन में मैंने सबसे अच्छा काम किया था, बाकी पूरा जीवन नासमझी में गुजर गया !”
मालती ने कहा, “नहीं पापा, आपका पूरा जीवन अनुभवों का खजाना रहा है। आपने मुझे बहुत कुछ सिखाया है, जिंदगी में मां – बाप से बढ़कर कोई नहीं होता है। सास ससुर तो मां – बाप से बढ़कर होते हैं; अपनी जीवन भर की पूंजी तो आप हम बहुओं को समर्पित कर देते हैं। बहू का सौभाग्य होते हैं सास – ससुर ! घर की दीवारों को बहुत मजबूत बना दिया जाए, छत नहीं हो तो उस घर को घर कहेंगे क्या? घर बिना मजबूत छत के अच्छा नहीं होता है, उसी तरह बिना सास ससुर बुजुर्गों के हम बहुओं का जीवन, कोई जीवन नहीं होता है !”
श्याम की आंखें डबडबा आईं ! श्याम ने मालती से कहा, “मालती, आज अगर तेरी सास होती तो कितनी खुश होती ! वह स्वर्ग से भी तुझे आशीर्वाद दे रही होगी, ऐसी बहू का सुख उसे नहीं लिखा था !”
मालती की आंखों से गंगा-जमुना बहनें लगीं थीं। मालती का गला भर आया था। मालती ने भर्राई आवाज में कहा, “नहीं पापा ! अभागी तो हम हैं, मम्मी तो बहुत ही भाग्यशालियों में से थीं जो, आपके रहते चली गईं, मुझे बहुत कुछ सिखाया है उन्होंने;आपके मन पसंद का खाना बनाना, आपकी सेवा करना ! मैं अभागन थी जो मम्मी के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह पाई थी !”
श्याम रोक नहीं पाया था, श्याम की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली थी। श्याम ने कहा, “मालती तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं बहुत अभागा हूं कि, चाहकर भी अपनी बड़ी बेटी को कुछ दे नहीं पा रहा हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है, जो भी था वह तेरी सास की दवा में खर्च हो गया !”
मालती श्यामके पैरों में शीश रखकर कहा, “पापा, मुझे कुछ नहीं चाहिए ! पापा मुझे जो मिला वह किसी बहू को नहीं मिला ! पापा आप मुझे बेटी नहीं मालती बेटे कहो, मुझे अच्छा लगता है। मैं बेटी थी, जैसी आपकी बेटी थी; पापा अब मैं बहू हूं, आपका बेटा हूं! मम्मी आपसे कहा करती थीं, जब आप उनकी बीमारी से दुखी हो जाते थे कि, ‘आपकी सेवा मालती करेगी, मालती आपको खाना खिलाएगी!’ कितना विश्वास था उनको मुझ पर, वह बहू कितनी भाग्यशाली होती है जिसका भरोसा सासू मां करती हैं; दुनिया की सबसे भाग्यशाली बहू हूं मैं !”
श्याम ने कहा, “मालती, मेरा आशीर्वाद, तेरी सास का आशीर्वाद तुझे सदैव मिला है, मिलता रहेगा ! मेरे पास आशीर्वाद के अलावा कुछ है भी तो नहीं !”
मालती ने कहा, “पापा, मुझे आशीर्वाद के अलावा कुछ चाहिए भी तो नहीं ! मेरे लिए सबसे बड़ी दौलत आपका आशीर्वाद ही तो है!”
जीवन है कब क्या हो जाए कोई नहीं जानता है। मनुष्य की सांसें कब रुक जाएं कोई आज तक नहीं जान पाया है। श्याम अपनी पत्नी की याद में अबतक मर ही गया होता, मालती की सेवा ने उसे जीवित रखा था।
मालती दिन – रात मेहनत के लिए ही बनी थी। एक दिन मालती के सीने में दर्द उठा, श्याम गांव, गांव से जिला चिकित्सालय में, जिला चिकित्सालय से मेडिकल कॉलेज ले जाते समय मालती की सांसें टूट गई थीं।
श्याम का रो – रोकर बुरा हाल हो रहा था। श्याम के दिल पर इस घटना को लेकर बहुत बड़ा धक्का लगा था। श्याम अपने-आपको बहुत ही अभागा मान रहा था।
श्याम कह रहा था कि, “जिसने भी मेरी सेवा किया, मुझे खाना खाने को दिया वही मर जाता है, मैं बहुत ही अभागा हूं!”
कुछ लोग ऐसा मान भी रहे थे। श्याम के दिल में ग्लानि, एक हूक सी हो रही है। श्याम अपने जीवन की किताब के हर पन्ने को पलटना शुरू किया था, उसे किसी पन्ने पर ऐसा नहीं मिला था कि, वह किसी के साथ, किसी का, किसी भी प्रकार से अनभल किया था, अनभल सोचा था। अपने से लोग क्या सोच रहे हैं, वह नहीं जानता है।
श्याम मालती की अच्छाइयोंको याद कर करके अपने शरीर को जला रहा था। मालती कहीं से भी आती उसके लिए उसके मनपसंद का खाने के लिए कुछ न कुछ लेकर ही आती थी। चिड़िया की तरह उसे चुगाती थी।
श्याम सोच रहा था कि, ‘मरना मुझे चाहिए फिर मेरी बहू क्यों मर गई?’
श्याम को लग रहा था कि, मेरे बहुत बुरे दिन शुरू हो गए हैं, अगर मैं यहां, इस घर में रहा तो जाने क्या – क्या दिन देखने पड़ेंगे !
श्याम के पास लाखों का कर्ज भी हो गया था। अब वह कर्ज कैसे भर सकेगा ! मरना, आत्महत्या करना बुजदिली होगा, ऐसा सोच सोचकर वह आधा शरीर होता जा रहा था।
रात आधी बीत चुकी थी। गांव में हो रही रामलीला समाप्त हो गई थी। श्याम को नींद नहीं आ रही थी, आज मौसम में ठंड आ गई थी। यदा – कदा बादल भी छंट गए थे। श्याम ने अपनी डायरी उठाई, अपना कर्ज जिस – जिस से लिया था उस डायरी में नोट किया, एक दृढ़ संकल्प के साथ वह उठा, उठकर अपने कमरे से बाहर निकल आया।
श्याम एक बार उस घर को देखा जिसे उसने अपनी पत्नी के साथ बनाया था। बहू मालती के आने से घर को चार-चांद लग गए थे। आज बहू बिना घर सूना हो गया था। श्याम को अपार करुणा ने घेर लिया था।
रामलीला देखने वाले लगभग सभी चले गए थे। रामलीला मैदान में कुछ लोगों के होने का आभास हो रहा था। श्याम ने नदी किनारे से जंगल वाले रास्ते को चलने के लिए चुना था।
अगहन की ठंड बढ़ती जा रही थी। झींगुरों की आवाज से वातावरण डरावना होता जा रहा था। श्याम के कदम बढ़ते ही जा रहे थे। जंगल – पहाड़ में कितनी भी, कुछ भी झाड़ – झखाड़ कम हो गए हों,तो भी जंगल, जंगल होता है। नहीं शेर चीता, भालू थे, तो भी दूर के जंगलों से इनका वहां आने का खतरा बना रहता है। सियारों, लोमड़ियों की बोली भी बड़ी डरावनी लग रही थीं।
श्याम था कि, बिना किसी परवाह के चला ही जा रहा था। श्याम का लक्ष्य जंगल के बीच एक छोटा सा स्टेशन था, जहां से सुबह-शाम एक-एक पैसेंजर गाड़ी के अलावा रात में भी एक पैसेंजर ट्रेन रुकती थी, बांकी उस स्टेशन में खाली मालगाड़ी या किसी विशेष परिस्थिति में कोई गाड़ी रुकती थी बांकी जंगली आदिवासियों के लिए लोकल पैसेंजर गाड़ियां ही काफी थीं जो वहां रुकती थीं।
घंटों चलने के बाद अब कुछ घनी झाड़ियों, पेड़ों वाला जंगल मिलता है, जिसमें एक घंटे चलने के बाद वह जंगली स्टेशन मिलता था।
घनी झाड़ियों, ढाक के बड़े – बड़े पेड़ों के कारण अंधेरा गहराता जा रहा था। डरावनी आवाजें आने लगी थीं, श्याम के पैर हैं कि, रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। एक दृढ़ निश्चय के साथ उसके कदम तेजी से आगे बढ़ते ही जा रहे थे ताकि, पैसेंजर गाड़ी छूटने नहीं पाए !
श्याम को ऐसा लग रहा था जैसे उसके छाती से कुछ निकल रहा है। घर, गांव, परिवार, मिन सभी छूट जाएंगे पर यह मनहूस शरीर को उनके पास रखकर मुझे क्या मिलेगा, अब अपने मोह – माया को दबाने के अलावा कोई चारा नहीं था।
श्याम को कई जगह बंदरों ने डराया, हिंसक जानवरों की आवाजों ने डराया पर वह रुका नहीं ! श्याम उसी जंगल में रुककर समय बिता सकता था पर यहां कभी भी, कोई भी पहचान का मिल सकता था।
श्याम सारी मुश्किलों को झेलते हुए स्टेशन ठीक पौने चार बजे आ गया था। पैसेंजर गाड़ी के आने का संकेत हो गया था। श्याम ने पैसेंजर के अंतिम स्टेशन तक की टिकट कटवाने के बाद गाड़ी का इंतजार करने लगा था।
थोड़ी देर बाद ही गाड़ी आ गई थी। एक बार ममता, मोह ने उसे रोका था, अगली बार ही अपनी अभाग्यता का ख्याल करके वह गाड़ी में चढ़ गया था। कोई भीड़ नहीं थी, एक सीट पर वह चुपचाप बैठ गया था।
बहुत से यात्री जाग रहे थे, बहुत से यात्री सो रहे थे। श्याम को पता था कि, उसका भविष्य, उसका भाग्य उसके साथ ही जा रहा होगा।
श्याम ने संकल्प लिया था कि, वह किसी एकान्त स्थान, घनघोर जंगल में रहेगा, पत्ते, बैर – बरारी खाकर जीवन जिएगा,कितनी भी तकलीफ होगी वह उफ तक नहीं करेगा।
गाड़ी सीटी बजाती हुई आगे के लिए बढ़ रही थी। वह सभी स्टेशनों पर रुकते हुए जल्दी – जल्दी बढ़ती जा रही थी। श्याम अपने लक्ष्य के लिए बैठा कृतसंकल्प था। नींद अभी भी उससे कोसों दूर थी।
