बहती जाये अँसुवन धारा
– नरेंद्र सिंह, गया
पावस सावन खत्म हुआ अब, अँखियाँ खोजे नन्द दुलारा।
कान्हा-कान्हा रटे गोपियाँ, बहती जाए अँसुवन धारा।।
जो भी काला रहता जग में, होता धोखा देने वाला।
कोयल के सुत काग पालता, लोचन होते बदले पाला।।
वैसे ही ये कृष्ण कन्हैया, अपना गोकुल को दुत्कारा।
कान्हा-कान्हा रटे गोपियाँ, बहती जाए अँसुवन धारा।।
कान्हा को था अगर छोड़ना, आखिर क्यों कर नेह लगाया।
अपना बनकर धोखा देना, कैसे रास उसे यह आया।।
कह कर गया मास भर दूरी, बीते कितने ही पखवारा।
कान्हा-कान्हा रटे गोपियाँ, बहती जाए अँसुवन धारा।।
