इकॉनोमिक्स की पूरी इक थ्योरी इस विषय पर केंद्रित है, उसका विषय अलग है। सांसारिक दृश्टिकोण से यदि देखा जाये तो हम हर पल कुछ ना कुछ इच्छाएं अपने मन में पाले रखते हैं। और क्यों ना पालें बगैर इच्छा चेष्टा नहीं होती और बगैर चेष्टा कोई कार्य सम्पादित कहाँ होता है। संतों के व्याख्यान से यदि उदाहरण लें तो हम जिन इच्छाओं पर काम करते हैं वो सारी भौतिक इच्छाएं हैं, जिनका कोई अंत नहीं है।
खैर, विषय यह है कि सफलता और असफलता की दौड़ में यदि इच्छाओं का परित्याग कर दिया जाये तो क्या दौड़ में शामिल रह सकते हैं। उत्तर में हाँ – ना का मिश्रित जवाब मिलता है। असफलता के दौर में तो इच्छाओं का पनपना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पर सफलता के मानकों का मूल्यांकन करना आसान नहीं है। एक मिली नहीं कि दूसरे की चाहत अपने आप पनपने लगती है और इस क्रम में जीवन में कई ऐसे अमूल्य पल, रिश्ते सब पीछे छूट जाते हैं जिन्हें चाहकर भी दोबारा हासिल करना असंभव होता है। यह बात अलग है कि कई अन्य नई उपलब्धियां भी हासिल हो जाती हैं पर अंत में यदि शून्य ही हाथ लगना है तो क्यों सम्पूर्ण जीवन मात्र शून्य की प्राप्ति के लिए अनंत इच्छाओं के भंवर में फंसे रहना। हम सब सांसारिक जरूरतों से बंधे हुए हैं और अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुरूप ही कार्यरत हैं होना भी चाहिए। इस परिवर्तनशील जीवन में और अपने आपको प्रतिस्पर्धा में शामिल किये रहने हेतु अपनी इच्छाओं को बल देते रहना आवश्यक है।
पर, इन इच्छाओं को यदि अनंत से हटाकर सीमित दायरे में ला सकें तो शायद जीवन में कुछ संतुलन बन सके और शून्यता के पहले कुछ खोना ना पड़े। इसके लिए जरूरी है ठहराव की प्रक्रिया – एक पूरी होने के बाद उसका भरपूर आनंद लें और फिर कहीं दूसरी पर काम शुरू करें। इससे जीवन में संतुलन के साथ साथ स्थिरता भी बनी रहेगी। क्या फायदा यदि जीवन में सफलता के साथ उलझन और शारीरिक विकार भी घर के लें। “संतोषम् परम् सुखम्” का दृष्टिकोण जीवन को अधिक सरल बनाता है। स्थिर चित्त, शांत मन और सतत प्रयासों से जो भी हासिल हो सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, वही जीवन में सरलता प्रदान करता है।