मीनू त्रिपाठी
नोएडा
“मानसी उठो भई, कुछ चाय-वाय पिलाओ…”
नवीन ने ऊँघते हुए बगल में सो रही पत्नी को आवाज लगाई तो वह “हूँ…” कहकर कुनमुनाई जरूर पर उठी नहीं। करीब पाँच-छ मिनट तक उसके उठने का इंतज़ार करने के बाद बाद नवीन रसोई में चले गए। अदरक कुटने की आवाज़ सुनकर भी वह नहीं उठी।
चाय बनकर आ गयी तो अंगड़ाई लेते हुए ग्लानि-विगलित स्वर में बोली, “रात देर से नींद आई… आँख ही नहीं खुल रही थी।”
“कोई बात नहीं, चाय पिओ आँख खुल जाएगी।” कहते हुए नवीन ने कप पकड़ाया तो वह मुस्कुरा कर बोली, “सब जानती हूँ, चाय देकर घर के कामों में जुटाने की साजिश है तुम्हारी…” मानसी के परिहास में छिपे आक्षेप पर चाय की चुस्की लेते नवीन मुस्कुरा पड़े।
“आज तो इतवार है फिर इतनी जल्दी क्यों उठ गए ? रोज तो छह बजे उठती ही हूँ,
सोने देते।” आखिरकार उसने उलाहना दे ही दिया तो नवीन हैरानी से माथे पर बल डाले बोले, “घड़ी देखी है ! साढ़े आठ बज रहें हैं। ज़रा अपने अड़ोस-पड़ोस में नज़र डालो, सब साफ-सफाई में जुटे हैं। झालरें लग रही हैं। उनकी रसोईं से मिठाइयाँ बनने की खुशबू भी आने लगी है।”
“अपना घर बहुत साफ है, उनके गंदे होंगे सो जुटे हैं… रही बात झालरों की तो वो तो तुम्हें ही लगानी हैं।”
“हाँ-हाँ, वो तो लगाऊँगा ही, पर तुम भी तो दीपावली की तैयारी करो… परसों ही तो है।”
नवीन की बात सुनकर चाय के घूँट भरती मानसी बोली, “हाँ जानती हूँ परसों दीपावली है और आज धनतेरस… सोने की अँगूठी लानी है।”
“और दीपावली की बाकी शॉपिंग ?” नवीन के प्रश्न पर मानसी अलसाई सी बोली, “पूजा-प्रसाद का सामान ही तो लेना है, कितना समय उसमें लगता है।”
“क्या यार ! तुम दीपावली के त्योहार में इतनी सुस्ती कैसे दिखा सकती हो ! घर की साज-सजावट के बारे में सोचो बनने वाले स्वादिष्ट पकवान और मिठाई के बारे में सोचो… वैसे मिठाई कौन सी बनाओगी ?”
मिठाई के नाम पर नवीन की आँखों में चमक देखकर मानसी मुस्कुराते हुए बोली, “मंदिर के पास फूलवाले से थोड़ी लड़ियाँ ले आना। घर का मंदिर सजा दूँगी और हाँ, वापसी में प्रसाद के लिए थोड़ी सी काजू कतली ले आना। मिठाई मैं नहीं बनाने वाली। ज्यादा मीठा सेहत के लिए ठीक नहीं…” नवीन खुशामदी भरे स्वर में उसकी चिरौरी करते बोले, “यार ! कुछ तो अपनी पाक कला का हुनर दिखाओ… लगे तो त्यौहार आ रहा है।”
जोश दिलाने पर भी वह निर्लिप्त प्रतिक्रिया के साथ चाय की चुस्कियाँ भरती रही। उसे यूँ चुप देखकर नवीन ने उकसाया, “अच्छा क्या खिलाओगी उस दिन ?”
खाने-पीने का शौकीन नवीन दीपावली का मेन्यू जानने के लिए बेकरार दिखा। मानसी ने बिना ज्यादा सोच-विचार के कहा, “उस दिन सुबह नाश्ते में सूजी का हलवा बना दूँगी। खाने में शगुन के लिए पूड़ी और साथ में मटर-पनीर।”
नवीन के उत्साह का गुब्बारा फुस्स होते देख उसने सफाई दी, “यार, हम तुम ही तो हैं। त्यौहार के नाम पर गरिष्ठ बनाओ, खाओ, और करो सेहत का कल्याण…”
नवीन का जोश मानसी की उदासीनता से ठंडा हो चुका था। देर की चुप्पी के बाद वह बोला- “अच्छा अँगूठी के लिए कब निकलना है।”
“पसंद करके पहले ही अलग निकलवा रखी है ले आना…”
“ले आना मतलब ! बाकी सामान लेने तुम नहीं चलोगी क्या ?”
“बिलकुल नहीं, बाज़ार जाने की हिम्मत नहीं है। बहुत भीड़ है। यहीं पास में पेट्रोल पंप के दाईं तरफ आटे की चक्की के बगल में लक्ष्मी-गणेश और दीये मिल जाएँगे, तुम ही ले आना और पटाके तो दिल्ली में फोड़ ही नहीं सकते।”
“और कपड़े ?”
“मेरठ वाली जीजी के बेटे की शादी में शेरवानी सिलवाई तो थी। मेरे पास भी बहुत साड़ियाँ हैं उन्हीं में से कोई पहन लूँगी…”
मानसी के कहते ही उसने अखबार उठाकर ठंडी साँस लेते हुए कहा, “चलो बढ़िया है, अब दीपावली में कम से कम आराम तो करूँगा।”
“और क्या, वरना तो यही महसूस होता है कि दीपावली की छुट्टियों के बाद एक छुट्टी और होनी चाहिए आराम करने के लिए।”
बालों का ढीला सा जूड़ा बाँधते हुए मानसी ने जवाब दिया और रसोई की ओर बढ़ गयी।
उसी समय नवीन का मोबाइल बजा तो वह ‘हेलो’ कैसे हो…’ कहते हुए बात करने लगे। देर तक बात करने के बाद मानसी को उत्साह से आवाज लगाई, “अरे कहाँ हो… विहान का फोन है पूछ रहा है आ जाऊँ ?”
सुनते ही मानसी रसोईं से निकलकर विस्मय से बोली, “कहाँ ? यहाँ ! परसों दीपावली है और आज आने को कह रहा है, लाओ ज़रा बात कराओ।”
मानसी के ‘हेलो’ पर विहान का धीमा सा स्वर उभरा, “हेलो मम्मी, मैं क्या कह रहा था कि यहाँ सारे लड़के अपने-अपने घर चले गए हैं। हॉस्टल लगभग खाली है। क्या करूँ ? मैं भी आ जाऊँ ?”
“दीपावली परसों ही तो है। आज चलोगे तो कल रात पहुँचोगे।” मानसी के चेहरे पर चिंता थी।
“मम्मी, ट्रेन से नहीं, बाय एयर आने की सोच रहा था।”
“बाय एयर इस वक्त ! पता भी है टिकट कितने की होगी… तुम लोग पहले से अपने प्रोग्राम क्यों नहीं बनाते ?” मानसी उत्तेजित हुई तो नवीन ने उसके कंधे पर हाथ रखकर संयत होने का इशारा किया। सुर में नरमी लाते हुए उसने पूछा, “पता किया है कितने का है एयरटिकट ?
वह कमज़ोर आवाज में बोला, “बीस हजार…”
“बीस हजार !”
मानसी की हैरानी पर वह हँसते हुए बोला, “अरे मम्मी, मज़ाक कर रहा हूँ। फालतू हैं क्या बीस हजार जो महज़ तीन दिनों के लिए एयर टिकट में लगाऊँगा। मैं नहीं आ रहा हूँ। वो तो बस ऐसे ही फोन किया…”
मानसी जानती थी कि स्वाँग वह पहले नहीं, अभी कर रहा है इसलिए भरे मन से बोली, “छुट्टियों की प्लानिंग पहले से किया करो। अगली बार पहले से पक्का प्रोग्राम बनाना। ये एयरलाइंस वाले दस गुना दाम वसूलते हैं त्योहारों में…”
“वो तो है, दरअसल पहले सभी के रुकने का प्रोग्राम था। मैं भी आप लोगों के पास दो महीने पहले आया था सो दोस्तों के साथ रुक गया… लेकिन अभी तो सब एक-एक करके निकल गए। मैं अकेला पड़ गया। पर…. कोई नहीं, अगली दीपावली पर आऊँगा।”
खुद को भरसक सामान्य दिखाते हुए विहान बोला बावजूद उसके मन की उदासी ‘पर’ शब्द से छलक पड़ी। इधर-उधर की कुछ और बातों के बाद उसने फोन रख दिया।
पत्नी को उदास देखकर नवीन बोले, “तुम दुःखी क्यों हो गई? पहले भी तो वह न आने की बात कह रहा था।”
“मैं जानती हूँ, लेकिन वो अब आना चाहता है। बीस हज़ार कोई मामूली रकम भी तो नहीं…”
मानसी धीरे से बोली और सोच में डूब गई कि तभी डोरबेल बजी। नवीन के ऑफिस सहकर्मी ललित अवस्थी दीपावली का गिफ्ट लेकर खड़े थे। सुबह के नौ बजे उन्हें आया देखकर नवीन थोड़ा चौंके तो वह बोले, “बस पाँच मिनट रुकूँगा। बेटे की शादी का कार्ड देना है। सोचा, दीपावली की बधाई भी साथ दे आऊँ।”
“बधाई हो भाई साहब, इस बार की दीपावली तो बड़ी जोरदार होगी…”
मानसी की बात सुनकर ललित हँसते हुए बोले, “हमारी जोरदार दीपावली तो अर्णव की शादी तक चलेगी।”
ललित जी के कहे का निहितार्थ समझ नवीन बोले, “अरे हाँ, दीपावली के पंद्रह दिन बाद ही तो है अर्णव की शादी…”
“वही तो, जैसे दीपावली पाँच दिनों का त्यौहार है वैसे ही आजकल शादी में सगाई, कॉकटेल, मेंहदी-हल्दी सब रस्में उत्सव सरीखे मनेंगी और तो और, जो थीम कल्चर शुरू हुआ है उसमें हमारी थीम सबसे अलग हो इसका भी दबाव रहता है, तो बस सोच लीजिए…” ललित जी की बात पर दोनों हँस पड़े।
“बच्चे आ गए क्या ?” नवीन ने पूछा तो वह मायूसी से बोले, “अरे कहाँ, अर्णव शादी के लिए छुट्टी बचा रहा है और अबीर के बॉस उसे छुट्टी दे नहीं रहे हैं। उनकी छुट्टियों के चक्कर में हम मियाँ-बीवी की छुट्टी हो गयी।”
अपने स्वभाव के अनुरूप वह माहौल में हास्य के छींटे बिखेर कर चले गए।
ललित जी को विदा करके नवीन घर के भीतर आ गए जबकि मानसी गेट पर खड़ी होकर गली में खड़े बच्चों को देखने लगी। उन्हें लहसुनिया बम फोड़ते देख विहान की याद आ गयी। वह भी दीपावली से हफ्तों पहले फटाक-फटाक की आवाज कर नाक में दम किये रहता था।
सहसा मन बेचैन हुआ तो भीतर आकर वह नवीन से बोली, “सुनो, एक बार ज़रा देखो, शायद कोई सस्ती टिकट हो तो…”
वह अखबार से सिर उठाए बगैर बोले,”देख चुका हूँ, सब महँगी है। अब परेशान मत हो, जब एक बार निर्णय ले लिया है तो ठीक है, इस साल नहीं तो अगले साल आ जाएगा…”
“सच कहते हो, वो अगले साल आ जाएगा, इस बार न सही।” निराश मन से उसने उसी के कहे शब्द दोहराए और मौन हो गयी।
अख़बार तिपाई पर रखकर नवीन ने मानसी को ध्यान मुद्रा में बैठे देखा तो हँसकर बोले, “क्या सोचने लगी तुम?”
वह दार्शनिक अंदाज़ में बोली, “एयर टिकट मंहगी है इसलिए मजबूरीवश आना टाल दिया… क्या पता अगली बार उसे अपने काम से छुट्टी न मिले। महँगा टिकट अफोर्ड करने की हैसियत होने पर भी अन्य प्राथमिकताएँ या फिर कुछ व्यावसायिक कमिटमेंट्स उसे आने न दें। आने वाले दिनों में भावनाओं पर जिम्मेदारियाँ भारी पड़ जायें तो?”
“फिलहाल तो तुम्हारा मन भारी है ये मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ… पर दो-तीन दिन के लिए बीस हजार खर्च करना।”
“मैं सोच रही थी धनतेरस में चाँदी का सिक्का ही ले लूँ…” कहते हुए मानसी ने उसे गहरी नज़र से देखा तो वह हँस पड़ा…
“ठीक है, मैं टिकट कराकर उसे बताता हूँ।” कुछ ही देर में नवीन विहान को फोन पर टिकट की सारी डिटेल दे रहे थे… पिता-पुत्र की बात हो गयी तो मानसी भावातिरेक में नवीन को आलिंगनबद्ध करते बोली, “एक कप चाय पिला रहीं हूँ। उसके बाद थोड़ी मदद कराओ। घर साफ करना है, रोशनदान के पास बड़े जाले लगे हैं और हाँ, बेडबॉक्स से नए कुशन कवर और चादरें निकलवाओ। परदे मशीन में लगा देती हूँ बहुत गंदे हो गए हैं।” कुछ ही देर में चाय का कप नवीन को थमाकर फिर रसोईं में चली गयी। रसोई से घी-खोए और ड्राईफ्रूट की मिली-जुली खुशबू आने लगी थी, बेटा आ रहा है इस खुशी में शायद लड्डू बन रहे थे। विहान के मनपसंद लड्डू… त्यौहार का मेन्यू बनने लगा; हलवा-पूड़ी, मटर-पनीर के साथ कोफ्ते, कचौड़ी, दही-भल्ले, पूरनपोली और मालपुए और जुड़ गए थे।
दोपहर को मानसी बोली, “यहाँ तो आसपास बस काम चलाऊ चीजें मिलेंगी हम लोग मेन मार्केट चलेंगे। विहान के लिए नए कपड़े लेने हैं और हाँ, तुम भी क्या वही पुराना पहनोगे कुछ नया ले लेना… वहीं पर लक्ष्मी-गणेश, दीये और पूजा का बाकी सामान आ जाएगा।”
“पर बहुत भीड़ होगी…”
“हाँ, तो क्या हुआ। त्यौहारों की रौनक भी तो वहीं मिलेगी।” वह उत्साह से फिर बोली, “अरे सुनो तो, पटाखों की दुकाने कहाँ हैं पता कर लेना…”