भावना ही मनुष्य का जीवन है। भावना ही सत्य, भावना ही नित्य है। हमारे भीतर जैसी भावना होती है, वैसा ही हम बाहर देखते हैं। मेरी बुआजी (श्रीमती शशि त्रिपाठी) सहज रूप में सेवा भावनाओं से भरी हुई थीं। उन्होंने आजीवन लोगों को सहयोग किया। हमेशा लोगों की सहायता में हाथ बढ़ाया। आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी भावना हम सभी के बीच फलीभूत हो रही है। शशि स्मृति फाउण्डेशन’ की स्थापना और उसके बैनर तले प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘जनमैत्री’ इसका उदाहरण है।
ये बुआजी के सेवाभावी कर्म ही थे कि उन्हें सुशील (अमित) और रोली बाई (पल्लवी) जैसी संतानें मिलीं, जिन्होंने “न मातु: परदैवतम् (माँ से बढ़कर कोई देव नहीं है)” के कथन को साकार किया है। आज जब पूरी दुनिया में माता-पिता की उपेक्षा हो रही है, बेटे-बेटियां सिर्फ अपने पति या पत्नी और बच्चों के बारे में ही चिंता करते हैं, वहां शशि स्मृति फाउण्डेशन के रूप में यह पहल निश्चित रूप से सराहनीय है। पुत्र सुशील और पुत्री रोली बाई के साथ-साथ उनके दामाद नितिन बाबू ने शशि स्मृति फाउण्डेशन के रूप में जो कार्य किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। मेरे ख्याल से यह कहीं न कहीं बुआजी की शिक्षाओं का ही असर है। सच भी है, नास्ति मातृ समो गुरुः
(माता के समान कोई भी गुरु नहीं)। उन्होंने बुआजी की भावनाओं का सम्मान किया और एक नई पहल की। मैं कहीं न कहीं बुआजी की भावनाओं के काफी करीब रहा हूँ। मैंने देखा है कि वह कैसे सीमित आर्थिक संसाधनों के बावजूद लोगों की मदद के लिए तत्पर रहा करती थीं। यह उनका स्वाभाविक स्वभाव था। वह मुझे अक्सर कहा करती थीं, राजू! फलां व्यक्ति को डॉक्टर को दिखा दो..। किसी को अस्पताल में भर्ती करा दो...। उसके इलाज का खर्च माफ करा दो...। किसी के बच्चों का एडमिशन करवा दो...। उसकी फीस माफ करवा दो...। किसी को नौकरी लगवा दो...। किसी को राशन दिलवा दो...। किसी को कपड़े दिलवा दो...। वह खुद लोगों की सेवा के लिए आगे रहती थीं, साथ ही वह दूसरों को भी प्रेरित करती थीं। यह उनका सरल-सहज स्वभाव था। आज जब फाउण्डेशन का गठन और पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है, तो लगता है कि बुआ जी की भावनाएं साकार हो रही हैं।
मुझे याद आता है कि जब फूफा जी (श्री कमल त्रिपाठी जी) कोलकाता से मुम्बई के लिए जाने लगे, तो सुशील ने कहा - राजू भैया, फ्लैट की चाबी अपने पास रखिये। मैंने कहा था सुशील...! बुआजी की स्मृति को हमेशा तरोताजा रखने के लिए उनके
नाम से एक समिति बनाकर क्यों न इसी फ्लैट से सेवा कार्य किए जाएँ। सुशील ने बिना समय लिए तुरंत सहर्ष रजामंदी दे दी और बहुत जल्द ही इस पर काम भी शुरू कर दिया। सुशील को रोली बाई और नितिन बाबू का साथ मिला और ‘शशि स्मृति फाउण्डेशन’ की स्थापना हुई। इसका लोगो भी बन गया। इसके बाद विचार बना कि फाउण्डेशन के बैनर तले एक पत्रिका प्रकाशित की जाए, जिसमें राजनीति से परे पारिवारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, पौराणिक कथाओं, कविताओं जैसी पाठ्य सामग्रियों को परोसा जाए। इसके नामकरण को लेकर सुशील और रोलीबाई ने काफी माथापच्ची की और अंतत: जनमैत्री” नाम तय किया गया। इस पत्रिका के माध्यम से विस्तृत परिवार-समाज को एक मंच पर लाया जा सकेगा। आपस में संवाद होगा और जान-पहचान बढ़ेगी, लोग करीब से एक-दूसरे को जानेंगे। बुआ जी कि भावना भी ऐसी ही थी। वह नाते रिश्तेदारी निभाने और परिजनों को एकजुट करने में माहिर थीं। यह पत्रिका अपने लोगों, चाहे वह किसी भी आयु वर्ग के हों, के लिए एक शानदार मंच प्रदान करेगी। विस्तृत परिजनों को एकजुट करेगी।
मेरे जीवन पर भी बुआजी का बहुत प्रभाव रहा है। इस पत्रिका के प्रकाशन से मुझे इसलिए भी अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि सुशील, रोली बाई और नितिन बाबू ने मेरे इस प्रस्ताव को सहजता से स्वीकार कर लिया। इससे हम सभी के विस्तृत परिवार को जहां सहजता से एक सूत्र में पिरोया जा सकेगा, वहीं पढ़ने-लिखने के शौकीन परिजनों को एक अपना मंच मिल सकेगा। यही तो बुआजी की भावना थी।