जेब और प्रेस्टीज

मेरी ज़ेब कट गई। शुभचिंतक कहते हैं – गनीमत है, ज़ेब ही कटी गर्दन नही। ज़ेब के कटते ही शुभचिंतक गर्दन कटने की सोचने लगते हैं, भला हो उनका। मैं जानता हूँ उनका सोचना सोचना ही रह जायेगा। काटने वाले महंगाई के ज़माने मे ज़ेब ही काटते हैं गर्दन नहीं। 

ज़ेब के कटने पर शुभचिंतक सबसे पहले यही पूछते हैं – ज़ेब में क्या था ? ज़ेब के माल के अनुसार वे सहानुभूति जताते हैं। मेरी ज़ेब में रूपये थे, यह बात नहीं, ज़ेब में कुछ चिल्लर थी और यही दुख की बात है। चिल्लर गयी तो जाए, परन्तु ज़ेब का जाना मेरी प्रेस्टिज का सवाल बन गया है।

लोगों की प्रेस्टिज मूँछ में होती है, कुछ की नाक में। मूँछ या नाक कटने पर उनकी प्रेस्टिज चली जाती है। मूँछ मेरे है नहीं, नाक मै कटाना नही चाहता, सो मैंने प्रेस्टिज को ज़ेब मे घुसा रखा था। लेकिन आज ज़ेब के साथ मेरी प्रेस्टिज भी चली गयी।

   डॉ पुरुषोत्तम शाह हावड़ा

मेरी ज़ेब मे चिल्लर थी, और यहीं मेरी प्रेस्टिज भी खतम। जिसने ज़ेब काटी वो मुझे फटीचर कह रहा होगा – टेरिलीन की पैंट की ज़ेब में एक रुपये की चिल्लर रखता है, लोग तो खद्दर की धोती की अंटी मे सैंकड़ों रूपये रखते हैं।

मेरी ज़ेब पहली बार कटी है ऐसी बात नहीं, पहले भी कई बार कट चुकी है – पैंट सिलवाते समय दर्जी और खरीदारी के वक्त दुकानदार ज़ेब काटते ही हैं। इन ज़ेब कतरों को कोई रिस्क नहीं। पुलिस भी पीछे नहीं पड़ती। पुलिस भी हद ही है, पीछे पड़ जाने पर ज़ेब खाली करवा कर ही छोड़ती है। वो क्या जेबकतरे से कम हैं ! ज़ेब कतरने का धंधा आज कल जोरों पर है, लघु उद्योग है। जब मेरी ज़ेब में पैसे होते हैं तो ऐरा गैरा भी मुझे ज़ेबकतरा नजर आता है। सोचता हूँ मैं भी अपना लघु उद्योग शुरू कर दूँ। मगर सरकार से डर लगता है – राष्ट्रीयकरण कर दिया तो ! अभी-अभी मैंने दूसरी ज़ेब में हाथ डाला तो वहां मुझे मेरी प्रेस्टिज मिली – डरी हुई। जब वो मेरी ज़ेब काट रहा था तब प्रेस्टिज चुपके से निकल कर दूसरी ज़ेब मे आ गयी थी। मैं खुश हूँ, लेकिन फिर डर गया हूँ – छुपने जा रहा हूँ। कहीं शुभचिंतक फिर न आ जाएँ और प्रेस्टिज के मिलने की ख़ुशी मे ज़ेब खाली ना कर जाएँ !