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छुअन की चुभन
ये छूना भी अलग-अलग होता है क्या,
स्कूल में थी तब मुझे क्या पता !
काश़ बचपन में माँ ने समझाया होता,
छूने छूने का फ़र्क बताया होता।
वो चपरासी का गोद में नित बिठाना,
वो पीऊन का साइकिल पर घुमाना;
कैंटीन वाला पीठ पर फेर देता था हाथ,
मुझे क्या पता ये कुछ और ही थी बात।
पड़ोसी दद्दू इतना गले क्यों लगाते हैं,
बात बात पर मेरे गालों को सहलाते हैं।
न समझ पायी तब उम्र थी कच्ची,
सहला गया हर कोई समझ कर बच्ची।
कभी वक्ष पर हाथ तो कभी जांघों पर,
ये तो अपने हैं कैसे करूँ शक इनपर !
समझ भी कहाँ थी कौन कैसे छूता है,
अब याद करूँ तो नासूर सा चुभता है।
सिमटी सी सहमी रहती दहशत सहती,
घुटन टीस छुपा दर्द की पट्टियाँ बदलती।
सांप सी डसतीं वो सरसराती उँगलियाँ,
कील सी चुभती वो जाँघों पर हथेलियाँ।
वो चिपकाना दुलार था या शिकार,
देह छूने का मानो सबको था अधिकार।
समझ आया तो हिम्मत जुटा न पाई,
हर पल डरती रही कि होगी रुसवाई।
सुन लो सारी लड़कियों अब न डरना,
हाथ लगाए कोई तो खुल के कहना।
माँओं तुम भी सुन लो अपनी ज़िम्मेदारी,
छूने का फ़र्क समझाना बेटियों को सारी।
बहुत हो चुका अब और नहीं कभी नहीं,
अपनी देह की मैं स्वामिनी तू क़तई नहीं।
तय करते रहे तुम हमेशा अब मेरी बारी,
कब कहाँ कैसे छूना है ये तय करेगी नारी।
रेखा ड्रोलिया, कोलकाता
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