कोई गीत सुना दो

डॉ. प्रमोद कुश 'तन्हा' (मुम्बई)

अब रात घनी है, नींदों से ठनी है
मुझको मेरे बिछड़े हुए सपनों से मिला दो
कोई गीत सुना दो, कोई गीत सुना दो

अब याद मेरे गाँव की सोने नहीं देती
ये सोच कहीं का मुझे होने नहीं देती
मेरी विवशता ही मुझे रोने नहीं देती

अब रात घनी है, यादों से ठनी
ये पीर कम हो जाये थोडा धीर बंधा दो
कोई गीत सुना दो,कोई गीत सुना दो

कुछ पा लिया कुछ खो दिया, कुछ खोना शेष है
निभता नहीं रिश्ता कोई अब ढोना शेष है
अब आँसुओं से ज़िंदगी को धोना शेष है

अब रात घनी है, रिश्तों से ठनी है
रिश्तों के शीशे पे जमी कुछ धूल हटा दो
कोई गीत सुना दो …

पहचान ढूँढते रहे नादान हम रहे
आसान राहों से बहुत अनजान हम रहे
पहुँचे शिखर पे लोग और सोपान हम रहे

अब रात घनी है, अपनों से ठनी है
संघर्ष और संतोष के अन्तर को मिटा दो
कोई गीत सुना दो, कोई गीत सुना दो

Author