राकेश शंकर त्रिपाठी
कानपुर
गीता एक वैश्विक ग्रंथ तो है ही किन्तु इसे हम एक टेक्स्ट बुक के रूप में या रेफर बुक के रूप में भी उपयोग में ला सकते हैं। गीता के उपदेश की उत्पत्ति निराशा एवं अवसाद के क्षणों से हुई है। हताश और निराश व्यक्ति को दिशा और धर्म पथ पर चलने व स्थापित करने, अपनी भूमिका के निर्वहन करने और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरक का कार्य करती है। जीवन के किसी भी प्रश्न का उत्तर हमें गीता से प्राप्त होता है। सातवें अध्याय से जो हम सीख सकते हैं, वह प्रस्तुत है:
1.लक्ष्य के लिए जुनून :
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जुनून की सीमा को जो पार कर लेता है, वह सफल हो जाता है। हमें अपने लक्ष्य के प्रति आसक्त होना पड़ता है, उठते-बैठते, सोते-जागते कभी न विस्मृत होने वाला, केवल लक्ष्य के प्रति खिंचाव ही मनुष्य को ऊर्जा और लौ प्रदान करती है। यह हमें इस श्लोक से शिक्षा प्राप्त होती है –
“मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।7.1”
मनु भाकर का जीवन्त उदाहरण हम सभी के समक्ष प्रस्तुत है। पेरिस ओलंपिक में प्रथम भारतीय महिला शूटर के रूप में 10 मी एयर पिस्टल इवेंट में bronze मेडल जीतने का श्रेय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। टोक्यो ओलंपिक में 0.1 से चूकने के बाद उत्पन्न हुई निराशा ने मनु को इस गेम से हटने के निर्णय की ओर उन्मुख किया। किंतु गीता के एक श्लोक ने मनु भाकर के जीवन को बदल दिया। मनु भाकर की मां एक श्लोक को हमेशा पढ़तीं थी और पढ़ाती रहीं होंगी और वह है –
“यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।”
जो व्यक्ति सभी जगह से आसक्ति रहित है, वह शुभाशुभ फलों की प्राप्ति पर न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है और उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। स्थितप्रज्ञ : One who is steady in wisdom. और इस श्लोक ने “उत्तिष्ठ भारत” का संदेश देकर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया होगा। क्योंकि जो भी व्यक्ति दृढ़ निश्चयी होगा वह स्थितप्रज्ञ ही होगा। पेरिस ओलंपिक में भी सिर्फ एक श्लोक :
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि 2.47।।”
ने Emotional Intelligence के द्वारा स्वयं को नियंत्रित करने, स्वयं को प्रेरित रखने, तनाव को दूर रखने और कर्म पर ही फोकस रख कर समस्त ऊर्जा को एक ही जगह channelise करने का कार्य किया, जिसके द्वारा सुखद परिणाम प्राप्त हुआ। मनु भाकर ने प्रथम महिला बनने का कीर्तिमान स्थापित किया है जिसने एक ही ओलंपिक में दो मेडल जीत कर एक इतिहास का निर्माण किया।
2.सतत प्रयास : किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि हमें प्रथम प्रयास में ही सफलता प्राप्त हो जाय। हो सकता है कि कई प्रयासों के बाद ही सफलता प्राप्त हो —
“बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।”
बहुत जन्मों अर्थात बहुत प्रयासों के पश्चात् ही वासुदेव अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति हो पाती है।
3.संस्था की प्रकृति : इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु प्रकृति के आधीन कार्य करती है। चाहे वह व्यक्ति हो, संस्था हो, पशु-पक्षी, देव-पितर-गंधर्व आदि। यह प्रकृति दो प्रकार की होती है — अपरा और परा। अपरा प्रकृति आठ प्रकार की होती है और परा एक जिसे जीव रूप कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों के संबंध से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार संस्था भी दो प्रकार के प्रकृतियों का प्रोडक्ट होती है, अपरा और परा। आर्गेनाइजेशन के दृष्टिकोण से माइक्रो और मैक्रो, आंतरिक और बाह्य एनवायरमेंट को हम अपरा प्रकृति के रूप में समझ सकते हैं और आर्गेनाइजेशन की परा शक्ति – जीव रूप में उस ऑर्गेनाइजेशन का “मिशन स्टेटमेंट” होता है। यही इसकी आत्मा है जोकि सम्पूर्ण आर्गेनाइजेशन को एक निश्चित दिशा की ओर अभिमुख करता है। यही चेतन है, यही सूक्ष्म है जो कि अपरा शक्ति की ऊर्जा को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। अत: आर्गेनाइजेशन की महत्ता, गुणवत्ता और कद उसके इस स्टेटमेंट का द्योतक है। यही इसकी आत्मा है। यही ज्ञान विज्ञान का आधार है।
4.ह्यूमन कैपिटल : किसी भी आर्गेनाइजेशन की प्रगति के लिए “मय्यासक्तमनाः” के गुणों वाले ह्यूमन कैपिटल की आवश्यकता होती है। प्रत्येक आर्गेनाइजेशन में दो तरह के व्यक्ति होते हैं – नकारात्मक विचार वाले और सकारात्मक विचार वाले। इन्हें गीता में क्रमश: दुष्कृती और सुकृती की संज्ञा दी गई है।
दुष्कृती : दुष्कृती लोगों को भी चार भागों में विभक्त किया जा
सकता है। मूढ़, नराधम, माया द्वारा ज्ञान से रहित अर्थात चकाचौंध में खोए हुए लोग और आसुरी प्रवृत्ति के लोग। ये न आर्गेनाइजेशन का भला कर सकते हैं और न ही ऑर्गेनाइजेशन उनकी वैल्यू करता है क्योंकि ABC analysis आर्गेनाइजेशन की प्रोडक्टिविटी और कल्चर को धार देता है —
“न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।”
सुकृती : सुकृती लोग भी चार प्रकार के होते हैं। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी। अर्थार्थी की लॉयलिटी केवल अर्थ पर आधारित होती है, जितना दाम उतना काम। आर्त वह व्यक्ति होता है जो समस्याओं को उठाता रहता है और निराकरण के लिए, प्रतिकूल परिस्थितियों को दूर करने के लिए सदैव सजग रहता है। जिज्ञासु वह व्यक्ति होता है जिसके अंदर सीखने की, जानने की, आपने आप को अपग्रेड करने की, empowerment की इच्छा सदैव जाग्रत रहती है। ज्ञानी व्यक्ति वह व्यक्ति है जो ट्रबल शूटर है। समस्त समस्याओं का समाधान, संस्था को गति एवं दिशा प्रदान करने का कार्य करता है —
“चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16″
“तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।7.17″
“चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥”
– श्रीरामचरितमानस
और इन सबमें ज्ञानी की महत्ता अधिक होती है, आर्गेनाइजेशन के लिए सब प्रिय व्यक्ति, सबसे सम्मानित और सबसे पसंदीदा और लोकप्रिय व्यक्ति होता है। अत: हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम इस स्थिति को प्राप्त करें। हम आर्त की स्थिति से ज्ञानी की स्थिति को प्राप्त करें।
हिंदू माइथोलॉजी के दृष्टि से भी किसी भी आर्गेनाइजेशन में चार प्रकार के लोग होते हैं – राजा भोज, गंगू तेली, शेख चिल्ली और मिट्टी का माधो । राजा भोज बॉस, लीडर एवं स्ट्रेटजिस्ट की भूमिका में होता है। गंगू तेली कार्यों, दिशा निर्देशों के निष्पादन या इंप्लीमेंटेशन की भूमिका में, शेख चिल्ली प्लानर या ड्रीमर की भूमिका में और मिट्टी का माधो – जो कह दिया वह कर दिया वरना मौज की भूमिका में। -Source : Leader by Devdutt Pattanaik
इन चारों का उपयोग बुद्धिमत्ता पूर्ण करना प्रबंधन का कुशलता पर निर्भर है।
5. आर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट में लीडर की भूमिका : एक लीडर की एक महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि वह अपने टीम के सभी सदस्यों को एक धागे में पिरो कर रखे। टीम में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति विभन्न प्रकार की योग्यताओं से सम्पन्न होते हैं तथा विभिन्न प्रकार की कमियाँ, कमजोरियाँ से ग्रस्तभी होते हैं जिन्हें दूर करने के लिए आवश्यक टूल्स और इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराना एक लीडर की महत्वपूर्ण भूमिका है। गीता का यह श्लोक इस बात के लिए हमें प्रेरित करता है –
“मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7″
और इसके लिए लीडर को अपनी शक्ति का, अपने पावर का और अपनी अथॉरिटी का प्रदर्शन करना और व्यक्त करना होता है, जिससे टीम का विश्वास अर्जित कर सके, अनुशासन उत्पन्न कर सके और यदि आवश्यकता हो तो भय उत्पन्न कर सके। अर्जुन के अंदर अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने श्लोक 8 से श्लोक 14 तक अपनी विभूतियों का वर्णन किया है –
“रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।…..
…..दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।”
प्रत्येक सदस्य की आवश्यकताओं का ध्यान एवं उनकी पूर्ति नियमों के आधीन करना एक कुशल नेतृत्व का दायित्व है जोकि श्लोक संख्या 20 से 23 तक वर्णित हैं –
“कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20″…….
…..अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23″
अत: यदि हम टीम के मेंबर्स का ध्यान रखते हैं, उनके अंदर के पोटेंशियल को उचित तरीके से दोहन करते हैं तो इसमें संशय नहीं है कि संस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त न करे।
जो मुझमें आसक्त है, आश्रित रहता पूर्ण ।
बिन संशय जो है भजे, समग्र रूप सम्पूर्ण ।।
समग्र रूप ही सत्य है, सब कुछ हैं भगवान ।
रहे भरोसा आश नित,शरणागति कल्यान ।।
जिस प्रकार जो जानता, करत हुये जो योग ।
उस प्रकार तू सुन अभी, पार्थ ! सुखद संयोग ।। 1
तुझको मैं सब कुछ कहूँ, बचे न जानन योग्य ।
व्यवहारिक औ दिव्य जो, ज्ञान सकल आरोग्य ।।
तत्व ज्ञान-विज्ञान को, कहता हूँ सम्पूर्ण ।
जिसको पाकर हो सदा, संसारे सब पूर्ण ।। 2
एक करे है जतन वह, मनुष्य बीच हजार ।
सिद्धि प्राप्त को रत रहे, योगी बारम्बार ।।
यथार्थ रूप जाने मुझे, उनमें से ही एक ।
विरला है वह मनुज जो, असफल रहे अनेक ।। 3
पृथ्वी-जल-आकाश-मन, बुद्धि-वायु सब व्यष्टि ।
अहंकार औ अनल हैं, भिन्न-प्रकृति जड़ अष्ट ।।
प्रकृति-अपर हैं ये सभी, परा-प्रकृति है भिन्न ।
हे अर्जुन ! तू जान यह, चेतन श्रेष्ठ अभिन्न ।।
परा-प्रकृति वह शक्ति है, जो जीवों से युक्त ।
धारण जिससे जगत है, चेतन प्रकृति प्रयुक्त ।। 4-5
पैदा हों प्राणी सभी, परा-अपर संयोग ।
ऐसा तुम समझो सदा, मैं ही जग का योग ।।
जड़-चेतन के योग से, प्रभव-प्रलय द्वि होय ।
इन दोनों के मूल में, मैं ही जगत संजोय ।। 6
मैं ही हूँ इस जगत का, कारण- कार्य प्रधान ।
बिन मेरे कुछ भी नहीं, अर्जुन ले संज्ञान ।।
मुझसे श्रेष्ठ न और है, व्याप्त जगत सर्वत्र ।।
मोती सम सब हैं गुँथे, पूर्ण जगत एकछत्र ।। 7
मैं ही जल में रस सदा, मैं ही चंद्र – प्रभास ।
वेदों में ओंकार हूँ, जग में सूर्य – प्रकाश ।।
मनुष्य सार पुरुषार्थ हूँ, वह मेरा ही रूप ।
सभी मूल में मैं सदा, सर्व रूप मम रूप ।। 8
तेज तत्व मैं अग्नि का, पृथ्वी पुण्यो-गंध ।
प्राण शक्ति सब जीव का, जीवन- जीव प्रबंध ।।
तप हूँ मैं तापस सभी, सभी तपस्वी व्याप्त ।
कष्ट सहे परमात्म हित,परम तत्व को प्राप्त ।। 9
कारण हूँ सब जीव का, मैं अविनाशी बीज ।
आदि अंत से रहित हूँ, मैं अव्यय दहलीज ।।
तेजस्वी का तेज मैं, बुद्धिमान की बुद्धि ।
सृष्टि अनन्ते मात्र हूँ, पार्थ ! समझ यह विध्दि ।। 10
काम-राग से रहित मैं, बलवानों की शक्ति ।
सात्विक है यह ग्राह्य भी, नहीं काम आसक्ति ।।
धर्मयुक्त मैं काम हूँ, भरतश्रेष्ठ ! शुभ भाव ।
सब प्राणी में व्याप्त मैं, धर्माकूल प्रभाव ।। 11
सत-रज-तम जो भाव हैं, सब मुझसे उत्पन्न ।
सब मूलों का मूल मैं, मुझसे नहीं अभिन्न ।।
तीनों गुण मुझसे प्रकट, मुझको करो प्रसन्न ।
ना उनमें मैं हूँ नहीं, ना ही मुझ आसन्न ।। 12
तीन गुणों के भाव संग, मोहग्रस्त संसार ।
मोहित होकर भटकते, जग का मैं पतवार ।।
गुणातीत अविनाश हूँ, जग का तारणहार ।
नहीं जानता जगत है, मैं करता उद्धार।। 13
त्रिगुण मोरि माया बड़ी, दुस्तर दैवी शक्ति ।
तर जाते हैं वे सदा, करें जो मेरी भक्ति ।।
शरणागत को प्राप्त हों,रख कर भाव अनन्य।
पाते हैं उस परम को, तज कर इंद्रियजन्य ।। 14
ज्ञान हरा माया प्रबल, आसुर भाव स्वभाव ।
निपट मूर्ख जो अधम हैं, मुझसे नहीं लगाव ।।
महा नीच वे मनुज में, करें कर्म सब पाप ।
मेरी शरण से दूर हो, भोगें तीनों ताप ।। 15
सुकृती मानव मानते, अपने हैं भगवान ।
भूलें वे संसार को, उपजे उनमें ज्ञान ।।
भजते मुझको चार जन, ज्ञानी औ जिज्ञास ।
अर्थार्थी औ आर्त भी, भरतश्रेष्ठ ! रख आस ।। 16
चारों भक्तों में सदा, ज्ञानी मेरे पास ।
एक भक्ति ही श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ एक विश्वास ।।
मैं ज्ञानी को प्रिय अधिक, वह भी प्रिय अत्यंत ।
उत्तम भक्ति है तत्व की, एकीभाव अनन्त ।। 17
सभी भक्त हैं श्रेष्ठ ये, सबके भाव उदार ।
सभी लालसा छोड़कर,अर्पण भगवत-द्वार ।।
पर ज्ञानी मम रूप है, आत्मा मुझमें युक्त ।
श्रेष्ठ नहीं है और गति, दृढ़ स्थित वह भक्त ।। 18
वासुदेव सब कुछ यहाँ, तत्व ज्ञान यह प्राप्त ।
दुर्लभ है वह पुरुष जो, भजे मुझे पर्याप्त ।।
जनम अनेकन बाद ही, प्राप्त करे यह ज्ञान ।
शरण सदा मेरी रहे, सब कारण को जान ।। 19
जिन-जिन इच्छा ने हरा, जिन जिनके जो ज्ञान ।
अपनी-अपनी प्रकृति से, प्रेरित हो अज्ञान ।।
उन-उन देवों के नियम, पूजे विधी विधान ।
धारण कर सारे नियम, अन्य देवता ध्यान ।।
अपनी अपनी कामना, पूरन हेतु प्रधान ।
अन्य देवता के शरण, शरणागत इंसान ।। 20
जिस जिस देव स्वरूप की, श्रद्धा से है चाह ।
उसी देव प्रति भक्त की, श्रद्धा करूँ प्रवाह ।।
श्रद्धा से वह युक्त हो, पूजा का हो भाव ।
भोगे इच्छित भोग सब, मेरा सभी प्रभाव ।। 21-22
अल्प-बुद्धि ये व्यक्ति औ, तुच्छ पूजते देव ।
सीमित फल उनको मिले, नष्टे होत तदेव ।।
पूजे जो हैं देवता, मनुज उन्हीं को प्राप्त ।
नाशवान है फल मिले, पूजन ना पर्याप्त ।।
मेरे भक्त मुझे भजें, चाहे वे जिस भाव ।
प्राप्त मुझे वे अन्त में, मेरा रहे प्रभाव ।। 23
बुद्धिहीन जो पुरुष है, नहिं जाने मम भाव ।
मैं अविनाशी-परम हूँ,परमो-प्रकृति प्रभाव ।।
वे समझे हैं यह मुझे, मनुज-भाव को प्राप्त ।
सत-चित-आनन्द-घन मैं, सभी जगह मैं व्याप्त ।। 24
मैं अविनाशी हूँ सदा, जन्म-मृत्यु से दूर ।
जो नहिं जाने वह रहे, अंधकार भरपूर ।।
प्रकट नहीं उनके लिये, मूढ़-बुद्धि अल्पज्ञ ।
माया योग से छिप गया, जो जाने सर्वज्ञ ।। 25
वर्तमान मैं जानता, भूत-भविष का सार ।
श्रद्धा-भक्ति रहित जो, ना पाता मम-द्वार ।। 26
इच्छा द्वेषे होत है, द्वंद्व-मोह उत्पन्न ।
हे अर्जुन इस जगत में, जनम-मरण आपन्न ।।
द्वंद्व-रूप सब मोह से, प्राप्त होत अज्ञान ।
इच्छा संग यह द्वेष जो, सुख-दुःख का संज्ञान ।। 27
श्रेष्ठ-कर्म जो है करे,निष्काम भाव का ज्ञान ।
पाप-नष्ट हो जात हैं, राग-द्वेष-अभिमान ।।
द्वंद्व-मोह से मुक्त हो, दृढ़-निश्चय जो भक्त ।
भजते रहते हैं सदा, मैं हूँ जो अव्यक्त ।। 28
जरा-मृत्यु से मोक्ष हो, आश्रय मेरा जान ।
भक्ति करे भज कर मुझे, ब्रह्म ही केवल प्रान ।।
वे मनुष्य जाने सदा, ब्रह्म-कर्म-अध्यात्म ।
सम्पूर्ण दिव्य जाने मुझे, शरण होत परमात्म ।। 29
जो मनुष्य जाने मुझे, दैव – यज्ञ – अधिभूत ।
चित्त लगा मुझमें सदा, मानुष वह अवधूत ।।
देव, जगत औ यज्ञ-विधि, सब पर है अधिकार ।
ईश्वर मैं इस जगत का, प्रबन्ध करूं संसार ।।
अन्त काल भी याद कर, युक्त-चित्त पर्याप्त ।
प्राप्त मुझे हो जात हैं, मैं अव्यय मैं व्याप्त ।। 30