किसी संस्था में या किसी भी स्थिति में समस्त परिस्थितियों का अवलोकन करने के पश्चात एक contingency प्लान के साथ एक बार यदि निर्णय हो गया तो उसका अनुपालन चाहिये। अर्जुन ने निर्णय ले लिया तो आगे बढ़ना चाहिए। महाभारत के युद्ध में पांडवों की तरफ से अर्जुन के कंधों पर ही अत्यधिक भार था और उनसे ही एक अच्छे परफॉर्मेंस की अपेक्षा थी। एक तो परफॉर्मेंस का दबाव, स्वयं की पहचान का तनाव एवं दबाव अर्जुन के मानसिक एवं मन:स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाल रहा होगा। उसको अपने आत्म विश्वास से जूझना पड़ रहा होगा। कई प्रश्न उसके दिल और दिमाग में उथल-पुथल हो रहें होंगे और अर्जुन की अवस्था उस वक्त नये प्रशिक्षु के समान हुई होगी जो अपनी भूमिका के बारे में दिग्भ्रमित रहा होगा। वह अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहता होगा, स्पष्टता चाहता होगा और कार्य का क्रियान्वयन किस प्रकार से सम्पन्न हो, उसके लिये वह प्रयत्नशील रहा होगा ।
भगवान श्री कृष्ण इस समय एक शिक्षक एवं कोच की भूमिका का निर्वहन कर रहें हैं। उन्हें अर्जुन के मष्तिष्क में शंकाओं के उमड़ते-घुमड़ते बादलों को शांत करना है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को नियतकर्म करने लिए प्रेरित करते हैं,
क्योंकि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म के नहीं रह सकता। और कर्म का निष्पादन कर असफल हो जाना कर्म न करने से श्रेयस्कर है। युद्ध में यदि असफलता का स्वाद भी चखना पड़ा तो पलायन से बेहतर है। हार - जीत का अर्थ तो है किंतु हमने अपना प्रयत्न किस लीनता से, किस तल्लीनता से किया है, यह महत्वपूर्ण है। संतुष्टि मिलती है यदि हमने पूर्ण निष्ठा और लगन से कर्म किया है। फल तो बदल भी सकता है। यह macro environment की situation पर निर्भर करता है, क्योंकि इसकी स्थिति सदैव dynamic रहती है। जनरल मानेक शा के अनुसार और वैसे भी :- जो निर्णय नहीं लेते या नहीं ले सकते उन्हें अपनी भूमिका में बने रहने का अधिकार नहीं होना चाहिये क्योंकि वे किसी का भला नहीं कर सकते। न तो स्वयं और न समाज का ही। क्योंकि महापुरुष जैसा आचरण करते हैं, लोग उन्हीं का अनुसरण करते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि "मेरे लिये कोई भी कर्म इस ब्रह्मांड में नियत नहीं है, फिर भी मैं नियत कर्म करने में तत्पर रहता हूँ। यदि मैं कर्म ना करूँ तो सारे मनुष्य मेरे पथ का अनुगमन करेंगे। सारे कर्म मुझमें समर्पित कर युद्ध करो।" तात्पर्य यह कि अपने नेतृत्व पर विश्वास रख आगे बढ़ जाना चाहिए।
अर्जुन ने है यह कहा, हे केशव ! हे नाथ।
बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, घोर युद्ध क्यों साथ।।
मोहित मेरी बुद्धि है, व्यामिश्रित उपदेश।
श्रेयस्कर है क्या मुझे, निश्चित हो संदेश।।
हे अर्जुन ! इस लोक में, द्वि निष्ठा द्वि योग।
ज्ञान योग है सांख्य ही, कर्म योग उद्योग।।
बिना कर्म आरम्भ के, प्राप्त नहीं निष्कर्म।
सिद्धि प्राप्त ना होत है, छोड़ त्याग कर कर्म।।
ऐसा कोई है नहीं, रहे बिना कुछ कर्म।
विवश होय करना पड़े, प्रकृतिजन्य यह धर्म।।
मिथ्याचारी है सदा, रहे मनुज वह मूढ़।
कर्मेन्द्री वश में करे, इन्द्रिय चिंतन गूढ़।।
किन्तु मनुज वह श्रेष्ठ है, अनासक्त निष्काम।
इन्द्रिय मन में वह कसे, कर्म योग परिणाम।।
नियत कर्म को तुम करो, रहे कर्म व्यवहार।
बिना कर्म के ना चले, जीवन या संसार।।
कर्म लोक हित जो करे, बँधे न बन्धन कर्म।
मुक्तसंग हो कर्म कर, कुन्तीनन्दन ! धर्म।।
प्रजापिता ने आदि में, सृष्टि रची सहयज्ञ।
वृद्धि करो कर्तव्य से, कर्मरूप जो यज्ञ।।
खुश होंगे जब देवता, मानुष होय प्रसन्न।
देव मनुज सहयोग से, सभी जीव सम्पन्न।।
पूर्ण यज्ञ जब होत है, मिले इष्ट भोगान्।
निश्चित ही वह चोर है, अर्पण ना भगवान।।
यज्ञ शेष अनुभव करे, मुक्त होय अभिशाप।
श्रेष्ठ मनुज वह और से, कर्म स्वयं हित पाप।।
नियत कर्म से यज्ञ है, यज्ञ से वर्षा होत।
वर्षा से फिर अन्न है, अन्न से जीवन-श्रोत।।
कर्म वेद से प्राप्त है, वेद ब्रह्म से जान।
सर्व व्याप्त स्थित सदा, कर्म यज्ञ में मान।।
सृष्टि चक्र के सम नहीं, जो चलता है पार्थ।
जीवन उसका पापमय, जीवन नहीं यथार्थ।।
किन्तु मनुज जो तृप्त है, तुष्ट स्वयं है आप।
रमण करे खुद में स्वयं, कर्म-यज्ञ का जाप।।
सिद्ध रूप वह व्यक्ति है, चिन्मय रूप अशेष।
निर्भर रहे न अन्य पर, नियत कर्म नहिं शेष।।
अनासक्त हो कर्म कर, भलीभाँति कर्तव्य।
आसक्ति रहित से प्राप्त है, परम ब्रम्ह चैतन्य।।
जनकादय राजा बहुत, परम सिद्धि को प्राप्त।
लोक काज हित तू करे, कर्म योग पर्याप्त।।
श्रेष्ठ मनुज जो जो करे, प्रस्तुत करे प्रमाण।
इतर मनुज सामान्य जन, होय लोक निर्माण।।
तीन लोक मेरे लिये, नियत नहीं कुछ कर्म।
है अभाव कुछ भी नहीं, किन्तु कर्म है धर्म।।
नियत कर्म यदि ना करूं, हानि बड़ी हो जाय।
सकल मनुज अनुगमन कर, कर्म नहीं अभिप्राय।।
नियत कर्म यदि ना करूं, नष्ट होय सब लोग।
शांति विनाशक क्यों बनू, शंकर वर्ण है रोग।।
अज्ञानी जैसे करे, फल-इच्छा कर्तव्य।
विद्व-जनों को चाहिये, अनासक्ति मंतव्य।।
बुद्धि भेद को ना करें, करें कर्म विद्वान।
शास्त्रविहित सब कर्म हों, भली-भांति सब जान।।
प्रकृति करे है गुणन से, सभी कर्म क्रियमान।
कर्ता अपने को कहे, अहंकार अज्ञान।।
गुण विभाग के तत्व औ, कर्म भाग जो जान।
लिप्त नहीं होते गुणी, लिप्त होय अज्ञान।।
प्रकृति-जन्य मोहित हुये, आसक्त हुये गुण कर्म।
विचलित उनको ना करें, ज्ञानी जाने मर्म।।
अर्पण करके कर्म सब, चित्त लगा परमात्म।
ममता आशा हो रहित, युद्ध करो अब आत्म।।
श्रद्धा से अनुसरण कर, दोषदृष्टि से दूर।
मुक्त होय सब कर्म से, मत मेरा मशहूर।।
देखे मुझमें दोष जो, ना माने यह बात।
नष्ट हुये उनको समझ, मोहित हो कुख्यात।।
कर्म करें सब प्राणि हैं, परवश होय स्वभाव।
ज्ञानी भी चेष्टा करे, हठ का नहीं प्रभाव।।
राग-द्वेष उपलब्ध हैं, प्रति इन्द्रिय यह जान।
वश में दोनों को करें, दोनों शत्रु महान।।
अपना धर्मा श्रेष्ठ है, है चाहे गुण हीन।
दूसर धर्म भयावह:, मृत्यु स्वधर्म सुखीन।।
पुरुष न चाहे पर करे, होये कैसे आप।
अर्जुन बोले कृष्ण हे, कौन कराये पाप।।
काम प्रकट रज गुणन से, परणित होये क्रोध।
शान्त न होये यह कभी, बैरी बन अवरोध।।
दर्पण जैसे मैल से, धुँआ ढके है अग्नि।
गर्भ ढका है जेरसे, काम ढके ज्ञानाग्नि।।
तृप्त न होये अग्नि सम, कभी न होये पूर्ण।
बैरी यह है ज्ञानीन का, ढके हुये सम्पूर्ण।।
इन्द्रिय, मन औ बुद्धि हैं, इसके वास निवास।
मोहित करता जीव को, आच्छादित कर दास।।
इन्द्रिय को वश में करो, हे अर्जुन यह जान।
मारो पापी काम को, बचे ज्ञान विज्ञान।।
इन्द्रिय श्रेष्ठ शरीर से, मन से श्रेष्ठ न होय।
मन से ऊपर बुद्धि है, आत्मा सब पर होय।।
आत्मा श्रेष्ठ सबल अहे, दुर्जय शत्रु है काम।
बुद्धि से मन को वश करो, होये काम तमाम।।