काव्यानुवाद श्रीमद्भगवद्गीता, ग्यारहवाँ अध्याय ( विश्वरूपदर्शनयोग )

कॉरपोरेट लर्निंग्स
1. भक्तिभाव से कर्मों का निष्पादनः गीता के बारहवें अध्याय को भक्तियोग केनाम से जाना जाता है। भक्तियोग के द्वारा हम ईश्वर को सहज और सुलभ मार्ग द्वारा प्राप्त कर सकते हैं ।
मय्यावेश्यमनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्र या परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥12.2 ॥
मुझमें मन को एकाग्र करके नित्य युक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
मेरी अपनी समझ के अनुसार इस जीवन में किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक, उसके प्रति अत्यन्त श्रद्धा भाव और भक्ति पूर्वक प्रयत्न होना चाहिए। गीता जी में तीन सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं, यह तीन मार्गों की त्रिवेणी है। कर्म, भक्ति और ज्ञान । यदि कोई भी साधक अपने लक्ष्य के लिए भक्ति पूर्वक कर्म करता है तो उसे ज्ञान अर्थात् लक्ष्य अर्थात प्रकाश प्राप्त होता है। भक्ति पूर्वक कर्म से तात्पर्य यह है कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए डूब कर कर्म करना । जब तक डूबेंगे नहीं तब तक मोती मिलना दूर की कौड़ी सिद्ध होती है । डूबना अर्थात् वहाँ निर्वात हो जहाँ लक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ न हो, हो तो सिर्फ और सिर्फ चिड़िया की आँख । यह अध्याय हमें अपने कर्म के प्रति, अपनी भूमिका के प्रति, अपने संस्था के प्रति इस प्रकार की भक्ति को आत्मसात करने की सीख और लर्निंग
प्रदान करता है। जब यह भक्ति सतत होती है तो परम् लक्ष्य स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। आज के उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के युग में, व्यवहारात्मकता के जगत में इस तत्व की आवश्यकता अधिक है । विश्व पटल के जो नेतृत्व पल प्रतिपल अपनी आस्था को बदलते हैं उन्हें इस अध्याय को पढ़ना चाहिए।
2. शंका समाधान में स्पष्टताः एक कुशल नेतृत्व का यह परम, पुनीत और अपेक्षित कर्तव्य यह है कि वह अपने संस्था को शंकाओं और संशयों से मुक्त रखे और दिशा निर्देशों, प्रक्रिया एवं प्रणालियों तथा अनुदेशों में स्पष्टता हो । इस अध्याय में भगवान्श्री कृष्ण से अर्जुन भगवान् की प्राप्ति के लिए उचित मार्ग के बारे में बताने के लिए आग्रह करते हैं । अर्जुन यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि सगुण – साकार की उपासना करें या निर्गुण – निराकार की । भगवान् श्री कृष्ण ने भक्तियोग के रूप में सहज
और सरल मार्ग का विवेचन किया है जिसके द्वारा परम् तत्व की प्राप्ति सहजता पूर्वक की जा सकती है । नेतृत्व का यह लक्ष्य होना चाहिए कि संस्था के प्रत्येक व्यक्ति की प्रगति, उसमें उपलब्ध क्षमता और संभावना, सुनिश्चित हो । प्रक्रिया सरल हो, प्रभावी हो, रुचिकर हो जिससे आत्मोन्नति में सहायक हो ।
3.निराकार एवं साकार की भूमिकाः सम्पूर्ण विश्व इन दो प्रकार के तत्त्वों से मिलकर ही बना है। सभी जगह हम इनकी उपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं। संस्था भी इसका अपवाद नहीं है।
प्रत्येक संस्था के मिशन, विजन और वैल्यूज इसके निराकार तत्व हैं, जोकि संस्था के लक्ष्य का निर्धारण करते हैं। ये तत्व किसी भी संस्था की आत्मा होती हैं। संस्था में मूर्त रूप में उपलब्ध समस्त संसाधन साकार की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं । यदि हम साकार रूप में उपलब्ध संपत्तियों के पूजन और वंदन उपयुक्त पूर्वक करें तो निराकार लक्ष्य की प्राप्ति सहजता पूर्वक प्राप्त हो सकती है। किसी भी संस्था की प्रगति के लिए उस संस्था के समस्त साकारों की गुणवत्ता को परिष्कृत करते रहना, यह एक कुशल नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिससे निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति हो सके
4. संस्था का कर्त्तव्यः संस्था एवं नेतृत्व का परम् कर्त्तव्य यह है कि जो अपने सभी कर्मों को संस्था के लक्ष्य के प्रति समर्पण और अर्पण करता है, संस्था का भी यह परम् कर्त्तव्य यह है कि उन समस्त लोगों के कल्याण, सफलता, उन्नति और प्रगति के समस्त कारकों का ध्यान रखे और सुनिश्चित करे कि उनके और संस्था दोनों के लक्ष्य मैच करे
5. लक्ष्य प्राप्ति के अनेक रास्तेः सगुण उपासना के अंतर्गत भगवान् ने लक्ष्य आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक लक्ष्य प्राप्ति के चार साधनों से अवगत कराया है। और ये साधन हैं- लक्ष्य में मन को स्थापन और उसमें बुद्धि का निवेश, अभ्यास योग से प्राप्ति, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर्म एवं विविध चेष्टा तथा कर्मफलों का त्याग । कर्म फल के त्याग से जो शांति और संतुष्टि प्राप्त होती हैं वह अतुलनीय है ।
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
…..सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ 12.8- 12.11 ॥
5. आदर्श नेतृत्व के गुण:श्लोक संख्या तेरह से श्लोक संख्या उन्नीस तक भक्त के उन्तालीस गुणों के बारे में उपदेश दिया है। ये सारे गुण आदर्श एवं कुशल नेतृत्व को आत्मसात करने को प्रेरित करते हैं। सभी से द्वेषरहित, मित्रभाव से युक्त, सुख दुःख की प्राप्ति में सम भाव, करुणा के भाव, दृढ़ निश्चयात्मकता, हर्ष-अमर्ष से मुक्त, अभय, उद्विग्नता से दूर,समत्व के सिद्धांत से युक्त, निंदा और स्तुति दोनों में सम भाव आदि गुण हमें एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास में, आत्मोन्नति की चरम प्राप्ति में अत्यन्त ही सहायक हैं। इनमें से कुछ गुणों को ही आत्मसात कर माइंड की कंडीशनिंग करने का प्रयास करें तो समग्र विकास में किसी भी प्रकार का संशय नहीं है । एक कुशल नेतृत्व कर्ता को यह पता होना चाहिए कि विभिन्न प्रकार के गुणों के प्रयोग का समय, स्थान, व्यक्ति, स्थिति एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए किस प्रकार किया जाय, कार्य की सिद्धि के लिए क्या आवश्यक है ।
महिला विश्वकप क्रिकेट प्रतियोगिता में प्रथम तीन मैच हारने के बाद, विश्व चैंपियन बनना एक उच्च कोटि के नेतृत्व को प्रदर्शित करता है । टीम कोच अमोल मजूमदार द्वारा इन गुणों का प्रयोग विभिन्नस्तरों पर किया गया । जीतने के दृढ़ निश्चयने टीम को पुनः ऊर्जित किया और बहु प्रतीक्षित सपनों को साकार किया और इतिहास रचने का कार्य किया । फाइनल मैच के पूर्व सात घंटों के संदेश – focus solely on the game for next seven hours, create your own bubble and write your
own story – ने इतिहास रच दिया । यदि हम अपने लक्ष्य में
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रियः ॥12.14
की अवधारणा को लेकर प्रयासरत रहते हैं, लक्ष्य निश्चित प्राप्त होता है इसमें संदेह नहीं। अमोल मजूमदार एक अप्रतिम उदाहरण हमारे समक्ष । उत्तम कैरियर, किन्तु सफलता देर से धैर्य और प्रयास सफलता के द्योतक हैं ।
अर्जुन उवाच
दोनों में से कौन है, अधिक सिद्ध औ पूर्ण ।
भजन ध्यान साकार में, सगुण रूप परिपूर्ण ॥
या अविनाशी ब्रह्म जो, निराकार अव्यक्त ।
निर्विकार साकार या, किसे भजे हम भक्त ॥1
श्री भगवानुवाच
मुझमें मन को ले लगा, करे-निरन्तर भक्ति ।
भजन-ध्यान मेरा करे, अतिशय श्रद्धा युक्ति ॥
उपासना साकार की, सगुण रूप देवेश ।
उत्तम योगी है वही, यह मेरा संदेश ॥2
लेकिन वश में जो करें, इंद्रिन के समुदाय ।
भली भाँति भजते पुरुष, निर्गुण सदासहाय ॥
बुद्धी-मन से परे जो,अव्यक्त अचित्य अपार ।
सभी जगह परिपूर्ण है, निर्विकार आकार ॥
अक्षर ध्रुव औ अचल है, सर्व व्याप्त अव्यक्त ।
सदा एकरस है रहे, अविनाशी अविभक्त ॥
ध्यान करे तल्लीन हो, पूजे एकीभाव ।
सोचे है सब भूत हित, सब के प्रति समभाव ।
लीन सदा कल्याण में, मेरा रहे प्रभाव ।
होता मुझको प्राप्त वह, सम बुद्धी सद्भाव ॥3-4
निराकार अव्यक्त में, चित्त यदी आसक्त ।
कष्ट दुरूह मार्ग अति, साधक भटकें भक्त ।
देहधारियों के लिये, कठिन बहुत है राह ।
दुष्कर पाना प्रगति है, चाहे जितनी चाह॥5
मुझमें सारे कर्म को, अर्पण कर जो लीन ।
सगुण रूप से पूजते, भक्ति युक्त तल्लीन ॥
करते ध्यान उपासना, करें निरंतर ध्यान ।
मेरे तत्पर जो सदा, चिंतन औ अवदान ॥
अपने चित्तों को मुझे, करें लगा जो ध्यान ।
जन्म-मृत्यु बन्धन परे, उद्धार करूँ यह जान ॥6-7
मन में मुझको तू लगा, बुद्धि लगा मम नाम ।
संशय इसमें है नहीं, हो निवास मम धाम ॥
सक्षम है यदि तू नहीं, अचल भाव मम भाव ।
अर्पण यदि ना कर सके, अंतस बुद्धि स्वभाव ॥
अभ्यास योग के योग से, इच्छा कर उत्पन्न ।
जिससे मुझको पा सके, हो अभीष्ट संपन्न॥ 8-9
अक्षम यदि अभ्यास में, लगे कठिन यह योग।
अर्पण मुझमें कर सभी, कर्म जनित उद्योग ॥
करो कर्म मेरे लिए, रखो समर्पण भाव ।
सिद्धि प्राप्ति हो जायेगी, मेरा प्राप्त प्रभाव ॥10
अक्षम पाता स्वयं को, अर्पण करे न कर्म ।
प्राप्ति रूप का योग यदि,नहीं बने है धर्म ॥
राह कठिन यह भी दिखे, मन-इन्द्रिय कर शुद्ध ।
वश में करके आत्म को, आगे बढ़ो प्रबुद्ध ।
सब कर्मों के फलन की, इच्छा त्यागो पार्थ ।
फल की इच्छा त्याग ही, कर्म योग पुरुषार्थ ॥11
ज्ञान श्रेष्ठ अभ्यास से, इससे उत्तम ध्यान ।
कर्म फलों का त्याग ही, सबसे श्रेष्ठ महान ॥
शान्ति प्राप्त है त्याग से, परम शांति तत्काल ।
श्रेष्ठ यही सम्पूर्ण है, त्याग करें प्रति हाल ॥12
द्वेष नहीं सब भूत से, सभी जीव का मीत ।
दया भाव रखता सदा, सभी भूत से प्रीत ॥
स्वामी ना है मानता, अहंकार से मुक्त ।
दुःख सुख में सम भाव है, क्षमाशील से युक्त ॥
नित्य निरंतर वह सदा, रहे आत्म संतुष्ट ।
आत्म संयमी है सदा, दृढ़ निश्चय औ तुष्ट ॥
बुद्धी मन अर्पित किये, स्थिर जिसकी भक्ति ।
भक्त सदा प्रिय है मुझे, मुझमें है आसक्ति ॥13-14
क्षुब्ध नहीं होता कभी, नहीं किसी से द्वेष ।
उससे कोई क्षुब्ध ना,नहीं रखे विद्वेष ॥
हर्ष रोष से दूर है, भय हलचल से मुक्त ।
जो रहता समभाव है, वह मेरा प्रिय भक्त ॥15
रहे अपेक्षा रहित जो, रहे व्यथा से मुक्त ।
बाहर भीतर शुद्ध है, रहे सदा उन्मुक्त ॥
त्यागी सब आरम्भ का, दक्ष चतुर अभिव्यक्त ।
उदासीन फल हेतु जो, वही परम प्रिय भक्त ॥16
हर्षित ना होता कभी, होता कभी न द्वेष ।
शोक कभी होता नहीं, इच्छा कुछ ना शेष ॥
त्यागे है सब कर्म को, शुभ औ अशुभ समान
भक्तियुक्त वह पुरुष है, प्रिय मुझको तू जान ॥17
जो रहता समभाव में, शत्रु मित्र के साथ ।
सर्दी-गर्मी-दुख-सुखे, वहीं भक्त है पार्थ ॥
सम स्थिति जिसकी रहे, मध्य मान अपमान ।
आसक्ति रहित है सदा, योगी वही महान ॥18
रहता जो समभाव में, निन्दा स्तुति तुल्य ।
प्रति स्थिति संतुष्ट है, मननशील कैवल्य ॥
निश्चित दृढ़ संकल्प है, वह है जो अनिकेत ।
भक्तिमान वह पुरुष जो, है मुझको अभिप्रेत ॥19
