काव्यानुवाद श्रीमद्भगवद्गीता, नवाँ अध्याय (राजविद्या राजगुह्य योग)

राकेश शंकर त्रिपाठी कानपुर

कॉरपोरेट लर्निंग्स
1. उचित व्यक्ति को उचित ज्ञान: गीता का यह अध्याय राज विद्या – राज गुह्य योग नाम से जाना जाता है जिसे हम रॉयल नॉलेज और रॉयल सीक्रेट के रूप में अपनी संस्थाओं में प्रयोग करते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने इस ज्ञान को और रहस्य के बारे में अर्जुन को बताया है और ज्ञान दिया है। किसी भी टीम लीडर का मौलिक, नैतिक और भूमिका से सम्बन्धित यह दायित्व है कि अपने सदस्यों की क्षमता को ध्यान में रखते हुए उन्हें सशक्त बनाना, समुचित अधिकार प्रदान करना और आत्मविश्वास में वृद्धि करना। किन्तु ज्ञान की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग स्तर की होती है। पिरामिड के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की आवश्यकता पिरामिड के अलग-अलग पायदान पर खड़े व्यक्ति से भिन्न होती है। उनके विजन, उनके एक्सपोज़र अलग-अलग होते हैं। अर्जुन एक महान योद्धा और महान व्यक्तित्व का स्वामी था तथा दोष रहित पुरुष था। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अत्यन्त ही गोपनीय ज्ञान को सिर्फ अर्जुन से ही साझा किया है।

“इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।।9.1।।
(यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये तो मैं फिर अच्छी तरह से कहूँगा)

2. विज्ञान आधारित ज्ञान : “विज्ञान के साथ ज्ञान” वैज्ञानिक सिद्धांतों, विधियों और प्रमाणों पर आधारित ज्ञान की प्राप्ति और अनुप्रयोग को संदर्भित करता है। विज्ञान हमारे आसपास की दुनिया के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का एक व्यवस्थित और संरचित तरीका है। विज्ञान के साथ ज्ञान को जोड़कर, हम दुनिया की गहरी समझ विकसित कर सकते हैं, सूचित निर्णय ले सकते हैं और नवाचार और प्रगति को बढ़ावा दे सकते हैं। प्रत्येक कार्य पद्धति, दिशा निर्देशों को निश्चित करने की पृष्ठ भूमि में उपर्युक्त बिन्दु, एक सशक्त कार्य प्रणाली, भूमिका में स्पष्टता, स्पष्ट दिशा निर्देश, जोखिम प्रबंधन, कार्य कुशलता, उत्पादकता, ह्यूमन कैपिटल में संतुष्टि के भाव की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ प्रगति को सुनिश्चित करते हैं।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्”।।9.1।।
(जिसको जानकर तू अशुभ से अर्थात् जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा, अर्थात् शुभता को प्राप्त कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।)

3.लक्ष्य की प्राप्ति : लक्ष्य प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि लक्ष्य न ओझल होने पाए और इसके लिए नित्य निरन्तर सतत प्रयास, दृढ़व्रती होना, दृढ़ता पूर्वक लगन एवं सतत उपासना अर्थात् लक्ष्य किसी भी वक्त मन मस्तिष्क से न हटे के सिद्धांतों को आत्मसात करने की प्रेरणा मिलती है।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।

4.नेतृत्व का कर्त्तव्य: i. किसी भी संस्था, समाज, देश आदि के नेतृत्व को भगवान श्री कृष्ण के इस उपदेश से शिक्षा ग्रहण करना चाहिए कि वह अपने अधीनस्थ लोगों के सम्पूर्ण आवश्यकताओं को ध्यान रखे। जो प्राप्त है उसकी रक्षा और जो अप्राप्त है उसे उपलब्ध कराए। किन्तु इस सिद्धान्त का प्रतिपादन उन लोगों के लिए होना चाहिए जो अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा से अपने कार्य का निष्पादन कर रहे हैं जो समर्पित हैं, निष्ठावान हैं किन्तु जो अपने धर्म का पालन उचित प्रकार नहीं कर रहे हैं उनके लिए “विनाशाय च दुष्कृताम्।।4.8।।” ही उचित है।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
(जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम,अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा मैं वहन करता हूँ।)

ii. समानता, समता, न्याय, एकरूपता, समान व्यवहार और निष्पक्षता के गुण नेतृत्व को अत्यन्त प्रभावी बनाने में महती भूमिका के निर्माण में योगदान करते हैं।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।।
(मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। उन प्राणियों में न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।)

iii. नेतृत्व को अपने सदस्यों द्वारा कृत कार्यों की जिम्मेदारी, जवाबदेही और सदस्यों को भय मुक्त करने (वहाँ पर जहाँ पूर्ण निष्ठा, लगन और ईमानदारी से कर्त्तव्यों का निर्वहन किया गया है) के दायित्व का निर्वहन अत्यावश्यक है। यह टीम की क्षमता और आत्मविश्वास में वृद्धि का कारक होती है। इसकी प्रेरणा हमें निम्न श्लोक से प्राप्त होती है:

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।
(इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।)

iv. जैसे भगवान श्री कृष्ण सबको उत्पन्न करते हुए और सबका भरण पोषण करते हुए भी अहंता-ममता से सर्वथा रहित हैं और सबके रहते हुए भी उनके आश्रित नहीं हैं, वैसे ही नेतृत्व का दायित्व है कि संस्था, कुटुम्ब -परिवार, समाज सबका भरण-पोषण करता हुआ और सबका प्रबंध संरक्षण करता हुआ, उनमें अहंता-ममता न करे और निर्लिप्त रहे। – स्वामी रामसुखदास जी

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5
(सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और उनका धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है।)

v. टीम सदस्यों में आत्म विश्वास की वृद्धि के लिए बहुत सारे कदमों को उठाना नेतृत्व का एक एग्जीक्यूटिव जिम्मेदारी होती है। इमोशनल इंटेलिजेंस के द्वारा हम टीम सदस्यों की भावनाओं को समझ कर उनके व्यवहार को रेग्यूलेट कर सकते हैं, मोटिवेट कर सकते हैं और आत्म विश्वास में वृद्धि कर सकते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने इस अध्याय में अर्जुन को अपनी शक्तियों और विभूतियों के बारे में चर्चा की है, उपदेश दिया है जिससे कि अर्जुन अपने विषाद की स्थिति से बाहर आए, दुविधा के बादल छंटे और उसे इस बात का विश्वास हो कि वह एक दिव्य विभूति के साथ इस युद्ध भूमि में अपने धर्म का निर्वहन करने आया है और “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।”की अवधारणा को प्राप्त हो ।

“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।”
(“तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मेरे को नमस्कार कर। इस प्रकार मेरे साथ अपने-आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मुझको ही प्राप्त होगा।”)

श्री भगवानुवाच

दोष-दृष्टि तू रहित है, कहता हूँ मैं राज।
गोपनीय विज्ञान औ, ज्ञान सुने तू आज।।
जिसे जानकर मुक्त हो, जनम-मरण संसार।
मुक्त होय तू अशुभ से, है यह जीवन सार।। 1

राजा है यह समझ तू, सब विद्या का राज।
अति उत्तम अति श्रेष्ठ है, अति पवित्र यह काज।।
अविनाशी अरु सुगम है, सहज रहे हर काल।
धर्म युक्त है यह सदा, मिलत फलत तत्काल।। 2

श्रद्धा ना इस धर्म पर, मुझे पुरुष न प्राप्त।
भ्रमण करे संसार में, जन्म मृत्यु है व्याप्त।।
यह सब जो संसार है, है मुझसे ही व्याप्त।
निराकार मम रूप से, जगत पूर्णता प्राप्त।।
सभी भूत मुझमें बसें, और बसे संसार।
उनमें स्थित मैं नहीं, अव्यक्त रूप है सार।। 3-4

वे सब मुझमें ना बसें, मुझसे जो उत्पन्न।
योग शक्ति ऐश्वर्य को, देखो है सम्पन्न।।
पालक हूँ सब जीव का, व्याप्त सदा सर्वत्र।
अंश नही अभिव्यक्ति का, है विराट एकछत्र।।
सृष्टि का कारण मैं सदा, सदा रहूँ अव्यक्त।
मुझसे सब उत्पन्न हैं, मुझमें नहीं हैं व्यक्त।। 5

विचरित करती वायु जो, सभी जगह उपलब्ध।
और रहे आकाश में, नित्य सदा निस्तब्ध।।
वैसे ही सब जीव ये, मुझसे हैं उत्पन्न।
मुझमें ही विचरण करें, मुझमें ही आसन्न।। 6

सब प्राणी मुझ प्रकृति में, करें प्रवेश समस्त।
कल्प अंत के साथ ही, मुझमें होते अस्त।।
रचना करता फिर पुनः, कल्प होत आरम्भ।
मेरी अपनी शक्ति से, पुनः कल्प प्रारम्भ।। 7

सभी भूत परतंत्र हैं, सभी प्रकृति आधीन।
बार-बार रचना करूँ, वश कर करूँ नवीन।।
जो विराट यह जगत है, मुझ पर है परतंत्र।
नष्ट होत फिर प्रकट है, मुझसे है यह तंत्र।। 8

उदासीन औ विरत हूँ, रचना रूप जो कर्म।
रचना मुझसे व्यक्त है, अनासक्त निज धर्म।।
कर्म मुझे ना बाँधते, फल में ना आसक्ति।
सब कुछ मैं ब्रह्माण्ड का, सब कुछ मेरी शक्ति।। 9

रचना करती है प्रकृति, संपूर्ण जगत संसार।
मेरे ही अध्यक्ष में, प्रकृति रचे संसार।।
मेरे ही इस हेतु से, सृजन नाश प्रति बार।
परिवर्तन इस चक्र का, होता बारम्बार।। 10

मूर्ख लोग हैं वे सभी, ना जाने मम रूप।
दिव्य रूप को भूल के, भूले सकल स्वरूप।।
मुझको मानव समझ के, करें अवज्ञा घोर।
श्रेष्ठ भाव जाने नहीं, जाने मनुज शरीर।। 11

नष्ट होय सब कर्म हैं, आशायें अरु ज्ञान ।
अविवेकी वे मनुष हैं, मोहग्रस्त अज्ञान ।।
प्रकृति आसुरी है रहे, रहे मोहिनी ज्ञान ।
राक्षस की है वृत्ति जो, ग्रसित रहे अभिमान ।। 12

अविनाशी औ आदि हूँ, मैं हूँ एकम एव।
भजते मुझे महात्म जन, हूँ देवों का देव।।
मोह मुक्त हो वे भजें, भजते प्रकृति अधीन।
पार्थ ! भजें सब छोड़ कर, मुझमें हो तल्लीन।। 13

भक्ति-भाव से पूजते, मुझे निरन्तर नित्य।
नमस्कार करते मुझे, दृढ़-संकल्पित कृत्य।।
साधन में नित हैं लगे, लगे लगन प्रभु भाव।
कीर्तन करते प्रेम से, मम स्वरूप मम भाव।। 14

अन्य मुझे हैं पूजते, ज्ञान यज्ञ संज्ञान।
एकीभाव से हैं करें, निराकार का ध्यान।।
करें अर्चना वे सदा, भाव अभिन्न अभेद।
परमात्मा औ आत्म की, सत्ता एक न भेद।।
और दूसरे पूजते, भाव पृथक आचार।
पूजें विश्व स्वरूप को, पूजें विविध प्रकार।।
सेवक सेव्ये भाव से, करते बारम्बार।
अर्चन रूप विराट जो, फैला है संसार।। 15

क्रतु हूँ मैं हूँ यज्ञ मैं, और स्वधा मैं मंत्र।
घृत हूँ मैं हूँ अग्नि मैं, औषधि हवन हूँ तंत्र।।
मैं हूँ ऋग हूँ साम मैं, और दिव्य ओंकार।
माता-पिता-पितामह: , यजुर्वेद मैं सार।। 16-17

गति-भर्ता-प्रभु-साक्षी, आश्रय-सुहृद निवास।
अविनाशी हूँ बीज मैं, भूतों का मैं आस।।
हेतु प्रलय उत्पत्ति का, स्थिति का आधार।
मैं निधान हूँ सृष्टि का, अव्यय मैं हूँ सार।। 18

प्राणि मात्र हित के लिए, वर्षा का वृत्तांत।।
जलीय भाग को ग्रहण कर, आकर्षण सिद्धान्त।।
सूर्य रूप में तप रहा, करने को कल्यान।
सृष्टी से जल ग्रहण कर, बरसे जगती प्रान।।
मैं अमृत हूँ मृत्यु भी, मैं हूँ सत औ ज्ञान।
दोनों ही मुझमें बसें, मुझको तू ही जान।। 19

तीन वेद में जो विदित, सबके लिए विधान।
करते उनको पुरुष हैं, कर्म सकाम आधान।।
पीते हैं रस सोम को, पाप रहित इंसान।
यज्ञों द्वारा पूजकर, पाते स्वर्ग प्रधान।।
पुण्यों के फल रूप वे, पाते स्वर्गिक लोक।
भोग भोगते देव सा, दिव्य लोक आलोक।। 20

पुण्य क्षीण हो जाय जब, भोग के स्वर्गिक भोग।
पुरुष लौटता फिर यहाँ, मृत्यु लोक ही योग।।
जन्म-मृत्यु के चक्र में, पड़ते बारम्बार।
पुण्य उदय यदि स्वर्ग है, क्षीण मिले जगद्वार।। 21

चिन्तन करते भक्त जो, हो मुझमें तल्लीन।
योगक्षेम मैं देखता, रहे सदा मुझ लीन।।
रक्षा करता प्राप्त की, वहन करूँ सब ध्येय।
मिलता उन्हें अप्राप्त है, मैं ही उनका गेय।। 22

हे अर्जुन ! जो पूजते, अन्य देव-भगवान।
श्रद्धा-युक्त सकाम जो, पूजे विधी विधान।।
वे भी पूजें हैं मुझे, वास्तव में यह जान।
पूजन है त्रुटिपूर्ण यह, करते हैं अज्ञान।। 23

मैं ही भोक्ता यज्ञ का, मैं स्वामी सब रूप।
पतित होत हैं वे पुरुष, ना जाने मम रूप।।
दिव्य रूप मेरा सदा, मैं परमेश्वर तथ्य।
जो मुझको भजते नहीं, पुनर्जन्म फिर सत्य।। 24

जो पूजे हैं देवता, देव उन्हें हैं प्राप्त।
पितरों के पूजन मिलें, पितृ देव ही व्याप्त।।
भूत-प्रेत जो पूजते, प्राप्त होत हैं भूत।
मेरा पूजन जो करे, हो मुझसे अभिभूत।। 25

अर्पण करता भक्ति से, पत्र-पुष्प-फल-तोय।
भक्ति सहित तल्लीन हो, लीन भक्त जो होय।।
प्रेम सहित अर्पण करे, स्वीकारूँ उपहार।
भक्ति भाव प्राधान्य है, सभी भेंट स्वीकार।। 26

तू जो करता कर्म है, करे हवन औ दान।
भोजन-तप अर्पण करो, कर मेरा आह्वान।। 27

इस प्रकार तू ना बँधे, बन्धन-कर्म से मुक्त।
कर्म शुभाशुभ जो किये, फल से होत विमुक्त।।
उन सबसे तू मुक्त हो, होगा मुझको प्राप्त।
योग युक्त-सन्यास में, चित्त सदा रख व्याप्त।। 28

सब भूतों सम भाव हूँ, नहीं किसी से द्वेष।
ना कोई है प्रिय मुझे, नहीं अप्रिय विद्वेष।।
भक्त भजे जो प्रेम से, मुझमें हैं वे व्याप्त।
प्रत्यक्ष प्रकट उनके लिये, मैं उनको हूँ प्राप्त।। 29

दुराचार यदि व्यक्ति भी, करता कर्म जघन्य।
भजता मुझको चित्त से, भक्ति भाव अनन्य।।
साधु मानने योग्य वो, है मुझमें अनुरक्ति।
निश्चय उसने कर लिया, प्रभू भजन आसक्ति।।
परम शान्ति को प्राप्त वह, शीघ्र बने धर्मात्म।
नष्ट न होता भक्त वह, मिले आत्म परमात्म।। 30-31

पाप योनि विचरण करें, पाप योनि बदनाम।
ग्रहण करें मेरी शरण, प्राप्त होंय मम धाम।।
वैश्य-शूद्र-स्त्रिय सभी, करते मुझे प्रणाम।
शरणागति को मेरी मिले, प्राप्त परम को धाम।। 32

पुण्यशील ब्राह्मण तथा, ऋषि स्वरूप राजर्षि।
परम गती को प्राप्त हैं, भजते मुझे महर्षि।।
क्षणभंगुर ये देह जो, रहे सदा सुख दूर।
भज ले मुझको याद कर, कर तू भजन जरूर।। 33

मुझमें अब तू मन लगा, भक्ती मेरी माँग।
पूजन कर मेरा मुझे, कर प्रणाम साष्टांग।।
अपनी आत्मा मुझ मिला, मुझमें हो तल्लीन।
प्राप्त मुझे तू सत्य यदि, पारायण मम लीन।। 34