काव्यानुवाद श्रीमद भगवद्गीता आठवाँ अध्याय (अक्षरब्रह्मयोग )

राकेश शंकर त्रिपाठी
कानपुर

 गीता के आठवें अध्याय से कॉर्पोरेट लर्निंग की दिशा में जो हम

सीख सकते हैं और जिन मूल्यों, गुणों को अपने जीवन में आत्म
 सात कर सकते हैं; वह प्रस्तुत हैं : 

ओपेन एंडेड कम्युनिकेशन ; कम्युनिकेशन स्किल:

जीवन में संवाद स्थापित करने का, उसके संचरण का एवं उसको उचित प्रकार से व्यवस्थित कर समझाने का एक अपना महत्वपूर्ण स्थान है। हम इसके द्वारा अपने भावों को, अपने संदेश को, अपने विचारों को संचारित करते हैं। अगर हमें इस गुण में महारत प्राप्त हो तो जीवन में सफलता के कई आयाम स्थापित हो सकते हैं। हम अपने व्यक्तिगत जीवन और प्रोफेसनल जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। प्रभावी संवाद शैली से हम कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट में सरलता से कामयाब हो सकते हैं। एक कुशल नेतृत्व को सफलता प्राप्त करने का एक उपयुक्त और उचित हथियार है। संवाद का प्रेषण हम विविध प्रकार से करते हैं – मौखिक, लिखित और शारीरिक भाव भंगिमाओं के द्वारा। किसी भी नेतृत्व को विषय पर जानकारी के साथ ही साथ एक कुशल वक्ता होना अति आवश्यक है, जिसे हम समय के साथ अभ्यास योग के द्वारा विकसित कर सकते हैं।  महात्मा गांधी जी का ही उदाहरण पर्याप्त है।

“अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।। 8.8।।” 

कम्युनिकेशन स्किल का सबसे महत्वपूर्ण अंग है – ओपन एंडेड कम्युनिकेशन। यह गुण नेतृत्व को अपने सहयोगियों के साथ तारतम्य स्थापित करने में उचित भूमिका का निर्वहन करता है। टीम को प्रोत्साहित करता है, टीम को कनेक्ट करता है, झिझक समाप्त करता है और विषय के प्रति अभिरुचि को बढ़ाता है जोकि अंततः ऑर्गेनाइजेशन की क्षमता में वृद्धि के साथ ही प्रभावी भी बनाता है। 

यह सीख में हम श्री गीता के विभिन्न अध्यायों से सीख सकते हैं। सातवें अध्याय का समापन भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे बिंदु पर किया जहाँ अर्जुन को स्वत: ही इच्छा जाग्रत हुई उस विषय के बारे ज्ञान प्राप्त करने की और अपने उत्थान की। अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से आठवें अध्याय के शुरुआत में सात प्रश्न पूछ कर अपने ज्ञान को विस्तृत करने का सफल प्रयत्न किया है। सातवें अध्याय का समापन भगवान श्री कृष्ण ने ओपन एंडेड रखा है : 

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।। 7.29।। 

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।। 7.30।।

अर्जुन के अंदर उत्सुकता जाग्रत हुई कि ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म क्या है ? अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ कौन हैं ? प्रयाणकाल में क्या करना चाहिए ? 

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

……ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।। 8.1- 2।।

इन प्रश्नों का उत्तर भगवान अर्जुन को इस अध्याय में उचित प्रकार से समझा कर उनकी जिज्ञासा को शांत किया है। 

उचित व्यक्ति उचित स्थान : 

प्रत्येक नेतृत्व के अंदर इस बात की क्षमता होनी चाहिए कि वह अपने टीम मेंबर्स की योग्यताओं और रुचियों से भली भाँति परिचित हो, उनके ज्ञान के बारे में जानकारी हो, उनके समग्र बारे में समस्त सूचनाएं उपलब्ध हों। और इन सब कारकों को ध्यान रखते हुए उन्हें उचित प्रकार की ट्रेनिंग्स और उनके डेवलपमेंटल आवश्यकताओं की पूर्ति करे, उन्हें उन कार्यों में स्थापित करे जिससे Synergy उत्पन्न हो जोकि ऑर्गेनाइजेशन के हित को संरक्षित कर सके। 

“यं यं वापि स्मरन्भावं ……..।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।। 8.6।।” 

गोल ओरिएंटेड माइंड :

“तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
 मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।। 8.7।।” 

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ।। 8.14।। 

उपर्युक्त श्लोकों से एक नेतृत्व को इस बात की प्रेरणा मिलती है कि हमारा लक्ष्य चिड़िया की आँख की तरह ही दिखता रहे। प्रत्येक वक्त लक्ष्य के प्रति सजगता हमारे विजन को,  हमारे दृष्टि को सदैव ही स्पष्ट रखती है। हमें अपनी प्राथमिकताओं को निश्चित करने में, निर्धारण करने में सदैव ही सहायक होती है। कार्य निष्पादन में आने वाली समस्त बाधाओं को आसानी से पार कर किया जा सकता है। गोल ओरिएंटेड माइंड सदैव ही दृढ़ निश्चितता, मौलिकता, सृजनात्मकता, रचनात्मकता, लक्ष्य के प्रति सजगता का द्योतक होता है।

प्रोसेस : 
 

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक प्रक्रिया का निर्धारण करना होता है और वही प्रक्रिया हमारे विजन को लक्ष्य में परिवर्तित करता है। एक अच्छी तरह से परिभाषित प्रक्रिया उद्देश्य को ध्यान रख कर, कई चरणों में विभक्त होती है। संसाधनों की उपलब्धता और कार्य के निष्पादन भी प्रक्रिया के अंग हैं। सहज प्रक्रिया के माध्यम से ऑर्गेनाइजेशन में उत्पादकता, क्षमता, अनुरूपता एवं अनुकूलता को प्रभावी बनाता है। 

प्रयाण काल में परम तत्व की प्राप्ति के लिए अच्छी तरह से परिभाषित निर्धारित प्रक्रिया के पालन के बारे में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान प्रदान किया है।
“यदक्षरं वेदविदो…. सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11” के माध्यम से बताया है। 

“प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
 भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।।” 

“सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
 मूर्ध्न्याधायात्मनः  प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। 8.12।। 

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। 8.13।।” 

प्रैक्टिस : 

किसी भी कार्य में कुशलता एवं दक्षता प्राप्त करने के लिए अभ्यास ही एक मात्र शस्त्र है।

“जड़मति होत सुजान” केवल अभ्यास से ही सम्भव है। दक्षता प्राप्त होने के बाद ही उत्पादकता और क्षमता दोनों में ही वृद्धि होती है। प्रैक्टिस, प्रैक्टिस और प्रैक्टिस किसी भी व्यक्ति को उत्तमता की ऊर्ध्व गति को प्रदान करता है। अभ्यास योग से ही ” योग: कर्मशु कौशलम् अर्थात् कर्म की कुशलता ही योग है” की अवधारणा को प्राप्त कर सकते हैं। अभ्यास योग के द्वारा मन को, चित्त को अन्य विषयों से हटाकर लक्ष्य के प्रति ही केन्द्रित किया जा सकता है। 

“अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।। 8.8।।” 

अत: हमें अपने जीवन में अभ्यास योग को आत्मसात कर अपने अंदर वैल्यू एडिशन और स्वयं को सशक्त बनाकर जीवन के कुरुक्षेत्र में विजय श्री का ध्वज गगन में लहराने का संकल्प लेकर आगे बढ़ने की प्रक्रिया को जारी रखना होगा।

   अर्जुन उवाच

ब्रह्म-कर्म-अधिदैव क्या, क्या है यह अध्यात्म ।
क्या है यह अधिभूत जो, पुरुषोत्तम-परमात्म ।।
कौन यहाँ अधियज्ञ है, कैसे जाने लोग । |
कैसे इसका वास है, देहे क्या संयोग ।।
वशीभूत हो पूजते, अंत: भाव अनन्य ।
अंतकाल प्रभु प्राप्त कर, कैसे होयें धन्य ।। 1-2

श्रीभगवानुवाच

अक्षर परम वह ब्रह्म है, जीवात्मा अध्यात्म । 
भूत-भाव के त्याग को, जान कर्म का नाम ।। 
अविनाशी अरु दिव्य है, नित स्वभाव है आत्म । 
होनेपन के त्याग को, जानो यह परमात्म ।। 3 

देहधारियों श्रेष्ठ तू, अर्जुन बनो अभिज्ञ । 
अन्तर्यामी रूप से, मैं ही हूँ अधियज्ञ ।। 
सब भूतों के देह में, मैं ही हूँ सर्वज्ञ । 
वासुदेव प्रति देह में, बन जाओ तुम विज्ञ ।। 
दीप्तगर्भ जो पुरुष हैं, वे सब हैं अधिदैव । 
ब्रह्मा सूर्य विराट औ, चंदा जैसे दैव ।। 
नाशवान जो वस्तु है, परिवर्तन से युक्त । 
कहलाती भौतिक प्रकृति, अधीभूत है उक्त ।। 4 

अन्तकाल जो सुमिर कर, त्यागे देह समाप्त । 
इसमें कुछ संशय नहीं, मुझ स्वरूप को प्राप्त ।। 
जिस-जिस भाव सुमिर के, त्यागे देह शरीर । 
पाते उस-उस भाव को, भावित होत जरूर ।। 5- 6 

इसीलिए सब काल में, नित कर मुझको याद । 
हे अर्जुन तू युद्ध कर, छोड़ो सभी विषाद ।। 
अर्पित मन औ बुद्धि से, मुझमें हो तल्लीन । 
प्राप्त मुझे तू होयगा, निश्चित होय यकीन ।। 7

योग युक्त अभ्यास से, लगे निरन्तर चित्त ।  
विचलित ना मन भाव से, चिंतन बने निमित्त ।। 
चिंतन करता दिव्य का, जो समस्त है व्याप्त । 
परम पुरुष जो दिव्य है, होत उसे है प्राप्त ।। 8

जो पुरुष सुमिरै सदा, कविम् अनादि अनन्त । 
सूक्ष्म सूक्ष्मतम अति रहे, ऐसे रूप प्रशांत ।। 
सब पर शासन जो करे, धारण पोषण सर्व । 
तम से जो नित दूर है, नित प्रकाश ही पर्व ।। 
अचिन्त्य रूप औ सूर्य सा, नित चेतन प्रति वास । 
सत चित आनंद परम जो, परमेश्वर नित पास ।। 9 

अन्त काल में जो करे, अविचल मन से याद । 
भक्तियुक्त मानुष करे, करे आर्त का नाद ।। 
भक्तियुक्त औ योगबल, से वह कर अहनाद ।। 
भृकुटि मध्य में प्राण रख, सम्यक करे प्रयास । 
दिव्य रूप परमात्मा, प्राप्त अटल विश्वास ।। 10 

वेद जानते लोग जो, कहें जिसे अविनाश । 
राग रहित सन्यास जन, जिसमें करें प्रवेश ।। 
ब्रह्मचर्य जो मानते, करें परम की आस । 
कहता हूँ उस परम को, रख तू यह विश्वास ।। 11 

इन्द्रिय द्वार निरोध के, मन को हृदये धार । 
प्राण मस्तके धार कर, योगे स्थित सार ।। 
अक्षर ब्रह्म को ध्यान कर, करे उच्चरित ओम् । 
छोड़े देह-शरीर को, लेकर नाम जो नेम ।। 
परम गती को प्राप्त हो, निश्चित शाश्वत सत्य । 
सुमिरन करता ब्रह्म का, प्रभु पर है अधिपत्य ।। 12-13 

नित्य निरंतर जो रहे, एक लीन तल्लीन । 
एक चित्त से याद कर, नित्य भक्ति में लीन ।। 
अर्पित मुझमें जो सदा, जो योगी इस भाव । 
सहज सुलभ उसके लिये, मेरा परम स्वभाव ।। 14 

दुख का आलय है सदा, क्षणभंगुर है जन्म । 
पुनर्जन्म घन घोर है, मिले सदा ही जख्म ।। 
परमसिद्धि को प्राप्त जो, मुझे महात्मा प्राप्त । 
पुनर्जन्म फिर ना मिले, परम प्रेम ही व्याप्त ।। 15 

ब्रह्मलोक तक लोक सब, पुनरावर्ती लोक । 
इन लोकों से लौटना, आना फिर भूलोक ।। 
पर मुझको जो प्राप्त है, मिलता मेरा धाम । 
पुनर्जन्म फिर ना मिले, पाते हैं विश्राम ।। 16 

चारों युग की अवधि को, जोड़ें बार हजार । 
ब्रह्मा का है एक दिन, ब्रह्म लोक आधार ।। 
रात्री की भी अवधि यह, जुड़ते जब दिन रात । 
ब्रह्मा की निश्चित सदा, आयू गणना ज्ञात ।। 17 

ब्रह्मा-दिन आरम्भ जब, उत्पन्न करे अव्यक्त । 
सूक्ष्म देह अव्यक्त से, प्रकट भूत सब व्यक्त ।। 
ब्रह्मा की जो रात्रि यह, होती जब आरम्भ । 
सभी भूत फिर लीन हों, सूक्ष्म देह प्रारम्भ ।। 18 

वही भूत समुदाय फिर, हो-होकर उत्पन्न । 
पर वश हो इस प्रकृति के, दिन-ब्रह्मा आसन्न ।। 
ब्रह्मा की जब रात्रि हो, सभी भूत फिर लीन । 
पार्थ प्रकृति आधीन ये, रहें सभी तल्लीन ।। 19 

पर इससे भी श्रेष्ठ है, एक और अव्यक्त । 
परम दिव्य वह पुरुष है, वही अनादि सशक्त ।।  
नष्ट नहीं होता कभी, और सभी हों नष्ट । 
बड़ा विलक्षण वह सदा, भाव परम सुस्पष्ट ।। 20 

अविनाशी वह परम है, अक्षर उसका नाम । 
अव्यक्त उसे हैं कहें, भाव परम गति धाम ।। 
प्राप्त जिसे है धाम यह, अव्यक्त सनातन भाव । 
वापस वह आता नहीं,  मेरा रहे प्रभाव ।। 21 

जिसके अंर्तगत रहें, सम्पूर्ण प्राणि सब सार । 
पूर्ण भक्ति के योग्य वह, व्याप्त पूर्ण संसार ।।  
मैं तुमसे अब यह कहूँ, काल विभिन्न प्रकार । 
योगी आता या नहीं, छोड़े जब संसार ।। 22- 23 


अग्नि देव का क्ष्रेत्र हो, ज्योतिर्मयी प्रकाश ।
दिन का अधिपति देव औ, शुक्ल पक्ष आकाश ।।  
रहे सूर्य छ: मास जब, उत्तर अयनम पार्थ । 
ले जाते विदु-ब्रह्म को, ब्रह्म प्राप्ति चरितार्थ ।। 24 

रहते हैं जिस मार्ग में, धूम-देव-अभिमान । 
रात्रि देव का देवता, रहता हो गतिमान ।। 
उसी मार्ग अधिपति रहे, कृष्ण पक्ष का देव । 
दक्षिण अयनम माह छः, रहे मार्ग तद् एव ।। 
उसी मार्ग मर कर गया, योगी-कर्म-सकाम । 
चंद्र ज्योति को प्राप्त कर, भोगे शुभ फल काम ।। 
शुभ कर्मों को भोग के, लौटे पृथ्वी धाम । 
जन्म मरण को प्राप्त फिर, फिर जीवन संग्राम ।। 25

दो प्रकार के मार्ग हैं, शुक्ल-कृष्ण संसार । 
देवयान इक मार्ग है, पितृयान भी द्वार ।। 
देवयान के मार्ग से, परम गती हो प्राप्त । 
नहीं लौटता जीव है, आवागमन समाप्त ।। 
पितृयान के मार्ग से, जन्म मृत्यु फिर प्राप्त । 
वही जगत संसार फिर, वही विषय हो व्याप्त ।। 26 

योगी जाने मार्ग को, जाने योगी तत्व । 
मोहित होता वह नहीं, देता नहीं महत्व ।। 
हे अर्जुन ! सब काल में, समता ही है मर्म । 
योग युक्त तू बन सदा, तेरा है यह धर्म ।। 27 

प्राप्त पुण्य औ फल मिले, सारे हैं बेकार । 
वेद-ज्ञान-तप-दान के, पुण्य सभी बेकार । 
इनको पीछे छोड़कर, योगी जाने सार ।। 
तत्व ज्ञान को जानकर, त्यागे सारे पुन्य । 
पाता है वह पद परम, तत्व ज्ञान है धन्य ।। 28