कश्म कश

पल्लवी अवस्थी , मसकट ,ओमान 

शून्य को निहारती..
जाने क्या ! मैं चाहती ?
किस डगर की हूँ पथिक
ये भी नहीं मैं जानती ?

है कश्म क़श ये !
खुद से खुद को पहचानने की..
है कश्म क़श ये
सही राह जानने की..
तो झाँक ! अपने अंतर्मन में
छोड़ जीना बीते कल में..
कल बीत गया, हो गयी बात पुरानी
नये दिन में फिर, लिख एक नई कहानी..

चुन अपनी ख़ुशियाँ ख़ुद ही
बाँट मुश्कान हर तरफ़
उठा कदम सचाई से, कर्तव्य पथ पर
बढ़ कामयाबी की ओर
भर दे हर रंग हर तरफ़
ना निहार यूहीं शून्य को
बस बढ़े चल बढ़े चल और बढ़े चल…