मम्मी जी, काका ढंग से नहीं बैठ सकते क्या...” बहू मौली के झुँझलाने पर नर्मदा की नज़रें लॉन की ओर उठ गयीं, जहाँ हरी-हरी नरम घास पर बैठे पछत्तर वर्षीय भूषण काका इत्मिनान से घुटने तक धोती खिसकाए धीरे-धीरे अपने घुटने पर तेल मल रहे थे।
संकोच में घिरी नर्मदा क्या प्रतिक्रिया दे सोच ही रही थी कि तभी बेटे महेंद्र पर नज़र गई। वो काका का मनपसंद बाजरे का खीचड़ा का कटोरा पकड़े उनसे कह रहा था,
“लाओ काका, तेल तो म्हूँ चोपड़ दयूं, थे तो बाजरा रो खीचड़ो जीमो...”
"उफ़्फ़! बस अब इसी की कसर रह गई थी...” मौली भुनभुनाई।
ऐसी भाषा सुनकर भयभीत सी वह आसपास यूँ नज़र डालने लगी मानो पति की भाषा और लहजे रूपी आरी ने मान-प्रतिष्ठा को काट फेंका हो... अलबत्ता नर्मदा की आँखों में विगत की नरमाई थी और भूषण काका... वह गदगद हुए जा रहे थे कि उनका महेंद्र इतना बड़ा आदमी होने के बावजूद न बदला। भावविभोर हो खीचड़े का कटोरा पकड़कर उसे अपने पास बैठने और साथ खीचड़ा खाने का आमंत्रण यूँ दे बैठे... “म्हारो महेंदर अतनूँ बड़ो आदमी होग्यो, पण ज़रा सो भी न्है बदल्यो... आ म्हारै गोडे बैठ... आपण दोन्यूं लाराँ खावैंगा...”
“हाँ-हाँ मैं भी लायो छूँ...” कहते हुए महेंद्र उनके पास ही नीचे घास में बैठ गया।
पति को स्वाद से चटखारे लेकर उँगलियो से खीचड़ा चखते देख मौली हैरानी भरी खीज से भर गई। महेंद्र की ऐसी बोली-व्यवहार की तो कल्पना ही नहीं की थी।
“अपने साहब कितने सादे हैं, बिलकुल अपने जैसे। सारा रोब-दाब बाहर ही रखते हैं।"
जहाँ घर के सर्वेंट महेंद्र की सादगी पर मंत्रमुग्ध हो आपस में बतिया रहे थे वहीं मौली आवाज निकाल कर खीचड़ा सुड़कते काका के गँवईपन पर माथा पकड़े शर्मिंदगी से इधर-उधर देखकर अगल-बगल बने घरों पर नज़र डालकर सोच रही थी कि कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा कैसे गँवार रिश्तेदार हैं.....
आसपास के सभ्य, अभिजात्य वर्ग के लोगों में पता नहीं किस-किस ने उनकी सभ्यता और शिष्टता की धज्जियों को उड़ते देखा होगा। पॉश कॉलोनी में अपने घर के लॉन का ये दृश्य आसपास के घरों की बालकनी अथवा पेंटहाउस की छतों से सहज सुलभ था।
लॉन में कल तक नज़र आने वाले नफ़ासत से रखी टेबल पर कॉफ़ी के कप और केतली की जगह खीचड़े का कटोरा नज़र आ रहा था।
जिस ख़ूबसूरत लॉन में कल तक मौली अपने पति महेंद्र के साथ आराम कुर्सी पर बैठी चाय-कॉफ़ी की चुस्कियाँ भरती दिखाई पड़ती थी, वहाँ महेंद्र अपने धर्म काका के साथ घास पर आलती-पालथी मारे ठहाके लगाते दिख रहे थे।
खून का रिश्ता हो तो जैसे-तैसे वह झेल भी ले पर भूषण काका से सगा तो क्या, दूर-दूर की रिश्तेदारी वाला रिश्ता भी नहीं है। कहाँ से कहाँ महेंद्र और उसकी माँ के बीच हफ्ता पूर्व ही भूषण काका की चर्चा चल उठी तो भावनाओं में बहकर महेंद्र ने उन्हें फोन लगा दिया।
महेंद्र की आवाज सुनकर काका भावुक हो बोल उठे, “क्यों रे महेंदर! अतनू बड़ो आदमी होग्यो क अपणा काका न भी बसर ग्यो। जाणे कद भगवान मलावगा... मनै तो असी लागे छै क मलावगा भी कन्है।”
काका तो भावुक स्वर में बोलते-बोलते कि ‘इत्ता बड़ा आदमी हो गया कि अपने काका को ही भूल गया, जाने कब प्रभु तुझसे मिलाएंगे। मिलाएंगे भी या नहीं...’ रो ही पड़े। उनका रोना और मन को स्पर्श करता भीगा स्वर महेंद्र को भावुक कर गया।
“काका बता रहे थे अब उनसे चला नहीं जाता है। तुम कहो तो कुछ दिनों के लिए अपने यहाँ बुला लूं... डॉक्टर को दिखाकर घुटने का इलाज करवा लेंगे। यूनाईटड स्टेट शिफ्ट होने के बाद जाने कब मिलना हो, मिलना हो भी या नहीं...”
बेटे के साथ यूनाइटेड स्टेट जाने वाली सास नर्मदा भी आजकल अपने देश और भारत की मिट्टी को लेकर भावुक हो जाती हैं।
"काका आएँगे तो बीते समय की खुशबू मन को तृप्त कर देगी.. सही कहते हो, जाने फिर जाने कब मिलना हो" कह कर नर्मदा भी बड़े भाई समान काका से मिलने को बेकल हो गई...
जमाना हो गया वो तो बेटे की होकर ही रह गयीं। जब तक महेंद्र के पिता रहे तब तक तो कभी-कभार भरतपुर जा कर काका से मिलना-मिलाना होता था पर अब तो भरतपुर छूट ही गया।
शादी के शुरुआती दिनों में जयपुर भ्रमण के दौरान महेंद्र मौली को भरतपुर लेकर आया था, मात्र दो घंटे के लिए। तब ही उसने भूषण काका के प्रति महेंद्र के कोमल भाव पढ़ लिए थे...
मौली की शादी बेशक एक सफल और प्रतिष्ठित अभियंता महेंद्र से हुई है पर भूषण काका किसी अलग महेंद्र को जानते-पहचानते हैं। वो पहचान बनी रहे इसलिए महेंद्र घर की व्यवस्था, बोली-चाली, परिवेश सब निम्नस्तर पर उतारने को उतारू हैं। किसी के आने पर लोग अपना रहन-सहन, भाषा-बोली सब सुधारते हैं। एक पायदान चढ़कर दिखाते हैं, पर यहाँ तो महेंद्र जमीनी जुड़ाव के नाम पर जाने कितने पायदान उतर गया। काका इस महेंद्र को पहचानते होंगे पर वो कतई नहीं पहचानती।
“उनके तौर तरीके बेशक गाँव के हैं पर दिल के देवता हैं...” काका के गुणगान कर नर्मदा ने मौली को उनके स्वागत के लिए तैयार तो कर लिया, पर अब उन्हें झेलना खासकर घर के बदले परिवेश को झेलना दुष्कर हो रहा था… पर कितना भी दुष्कर हो महेंद्र की खातिर सहना होगा। प्यार जो करती है उससे; इस प्यार की खातिर उसने विगत में “मुझे तुम्हारे अतीत से कोई मतलब नहीं...” कहकर सात फेरे लिए थे। ऐसा नहीं था कि वह उसके अभावों से भरे अतीत से अपरिचित थी। उसे आभास था कि काका उनके कठिन दिनों में सहारा बने थे। जिस भूषण काका से मिलकर पुराने दिनों को फिर से जी लेने के खयाल से ही महेंद्र नॉस्टेल्जिक हो गए, उनसे मिलकर वह कितने खुश हो जाएंगे यह सोचकर ही उसने हामी भरी थी।
काका आयें इसमें आपत्ति नहीं, आपत्ति तो पति की बदली चाल-ढाल से थी। काका के आने के बाद महेंद्र का रवैय्या देख देखकर बड़बड़ाती, “इससे तो अच्छा था तुम माँ के साथ जाकर वहीं भरतपुर में ही उनसे मिल आते।”
बात-बात पर काका का खुलेआम बिना संकोच टेढ़े होकर गैस छोड़ने की आदत और उनकी डकार ने उसका जीना मुहाल कर दिया था। सुबह-सुबह नीम की दातुन तोड़कर दाँतों में मलते फिर आ... आ... आ... खां... खां की आवाज से आसपास के घरों में रहने वाले लोगों को भी अस्थिर कर देते।
सरल स्वभाव वाले भूषण काका को इस बात का भान भी नहीं था कि उनके आने से घर की व्यवस्था कैसी बिगड़ गई है। वो क्या आये, घर, घर कहाँ रह गया।
महेंद्र ने अपने ऊंचे ओहदे और रहन-सहन के सारे डेकोरम ताक पर रख दिए थे। घर के नौकर-चाकर और वह स्वयं महेंद्र के अंदर उग आए एक नए महेंद्र को देख रही है...
भूषण काका को नरम बिस्तर पर नींद नहीं आती है तो वह नीचे सख्त जमीन पर गद्दा बिछाकर सो जाते हैं। वो सोएं तो सोएं, पर महेंद्र भी वहीं तकिया रखकर उनके पास पंचायत जमा लेता है। खाने के लिए क्रॉकरी के बजाय स्टील की थालियाँ निकलवा ली गई हैं। पीढ़े पर बैठकर काका के साथ जब वह हाथ से खाना खाता है तो सर्वेंट के सामने अच्छा-खासा तमाशा बन जाता है।
और तो और उनकी पाँच साल की बेटी मिष्ठी भी उनकी कस्बाई बोली की नक़ल उतारने लगी है। का̆र्नफ्लेक्स की जगह खीचड़ा और चूरमे
की माँग करने लगी है।
नर्मदा अपने वर्तमान के सुनहरे दिनों के दाता भूषण काका को आह्लादित देख नतमस्तक हो अपने घुटन भरे अतीत में डूब-डूब जाती। पर उसे क्या मतलब सास के उस अतीत से, जिसमें वह छोटे से कस्बे की पतली सी गली में दड़बेनुमा एक कमरे के मकान में अभाव और घुटन के बीच पति और बेटे के साथ बंद थी।
बचपन से ही मेधावी महेंद्र को उसके पिता ने एक ही घुट्टी बार-बार पिलाई थी, “बेटा, अगर इस अभाव और गरीबी से निकलना है तो शिक्षा की मशाल जलानी होगी। अन्यथा यहीं छटपटाते हुए जीवन व्यर्थ होगा।”
पिता की सीख को जीवन का सार बनाते हुए महेंद्र ने कड़े परिश्रम के साथ जीवन को सही दिशा दी। स्कॉलरशिप के माध्यम से वह शिक्षा के सोपान चढ़ता गया। कॉलेज के लिए पैसे की जरूरत आन पड़ी तो पिता ने अपना एक कमरे का मकान बेच दिया।
उन दिनों महेंद्र के पिता भूषण काका के पास मुंशी का काम करते थे। जब उन्हें पता चला कि उनके कर्मठ और ईमानदार कर्मचारी ने बेटे की पढ़ाई के लिए एकमात्र पूंजी और सहारा, अपना मकान बेच दिया तो अपने घर में उन्हें शरण देते हुए कहा था- “बेटे की पढ़ाई के लिए घर बेच दिया तो लड़का जरूर होनहार होगा। जब तक कोई इंतज़ाम नहीं होता या फिर वह कुछ कमाई करके मदद नहीं करता तब तक तुम दोनों हमारे घर रह सकते हो। पैसे से तो मदद कर नहीं सकता, पर हाँ, सर छिपाने के लिए मेरे घर के द्वार खुले हैं। बेटियां ब्याह गई हैं। हम बूढ़े-बुढ़िया घर में अकेले रहते हैं। तुम लोगों के आने से हमें कोई दिक्कत नहीं होगी। जब कभी समाई हो तब चले जाना।”
काका के शब्द डूबते को तिनके का सहारा बने। कॉलेज के शुरुआती दिनों में महेंद्र अपने माता-पिता से मिलने उनके घर आता तो संकोच होता था पर भूषण काका के अपनत्व ने संकोच को रहने नहीं दिया। फिर तो ऐसा समय आया जब माता-पिता से ज्यादा काका उसके आने का इंतज़ार करते।
हालाँकि दो-ढाई साल में नर्मदा और उनके पति ने पास में ही एक कमरे का घर किराए पर ले लिया फिर भी अधिकतर खाना-पीना- उठना-बैठना सब काका के घर पर ही होता। तीज-त्यौहार में पकवान वहीं बनते और साथ खाए जाते। कब वो सब एक प्रगाढ़-बेनामी रिश्ते में बँधे, पता ही नहीं चला... महेंद्र कॉलेज वापस जाता तो काकी गोंद के लड्डू और चीवड़ा बाँध देतीं।
वो भी क्या वक्त था। काका के मकान के नीचे वाले हिस्से में दालान, एक कोठरी, एक बड़ा और एक छोटा कमरा... और ऊपर, एक कोठरी और बिना पलस्तर का एक छोटा सा कमरा और छोटी सी छत वाला वह मकान किसी हवेली से कम नहीं लगता था।
पहले प्लेसमेंट के बाद उन चार-पांच सालों में महेंद्र ने उत्तरोत्तर प्रगति की। सात-आठ साल बीतते-बीतते नामी कंपनी में जॉब के साथ घर और कार के साथ अन्य सुख-सुविधाएं मिलीं। शहर बदले, नौकरी बदली, ओहदे बदले, नहीं बदला तो भूषण काका के प्रति श्रद्धा के भाव... काका ने उसके लिये जो किया उसे महेंद्र और उसके माता-पिता के अलावा और कोई नहीं समझ सकता था।
मौली को तो अंदाजा भी नहीं था कि भूषण काका के साथ सहज जीवन जीने के लिए खुद को उनके स्तर पर लाना महेंद्र के लिए क्यों जरूरी था। भला ईश्वर को भी कोई अपनी प्रतिष्ठा-रोबदाब दिखाता है। चार-पाँच दिन रुककर भूषण काका बोले, “थारी काकी कदी भी एकली न्है री... साथ ई आती तो साता रैती... पण वा घर खाँ छोड़े छै… थां सब देख सुण ल्या, मन में साता आई क सब राजीखुशी छै... और म्हनै चाईजे बी काँई।”
काका की बात मौली को समझ में नहीं आई पर हाव-भाव देखकर लग रहा था काका जाने को बोल रहे है। नर्मदा ने बताया काका कह रहे है कि ‘तेरी काकी कभी अकेली नहीं रहीं। साथ आती तो निश्चिन्त था पर वो कहाँ अपना घर छोड़ती हैं। तुम लोगों को देख सुन लिया अब संतोष है कि अपने बच्चे सुख से हैं।” काका के वापस लौटने के दिन गिनने वाली मौली की आँखों में चमक आ गयी थी।
जल्दी ही काका ढेरों आशीष के साथ भरतपुर लौट गए तो यह घर भी पुराने परिवेश में लौट आया। लॉन में कॉफ़ी टेबल लग गयी... उस पर केतली और कप आ गए।
खाना डाईनिंग टेबल पर लगने लगा। क्रॉकरी भी वापस निकल आई... पर मौली उखड़ी-उखड़ी सी रही। महेंद्र के बीते दिनों के रवैय्ये से नाखुश... “काका हमसे मिलना चाहते थे। मिथ्या आडंबर और वैभव से नहीं... संभव था कि हमारी शानोशौकत देख वो अपने सहज आचरण की आत्मीय स्वाभाविकता खो देते। वो, वो नहीं रहते जो वो थे। जिन्हें मैं जानता था।” महेंद्र मौली से कहना चाहता था पर वह कुछ सुनना ही नहीं चाहती थी।
किसी के लिए कोई अपना रहन-सहन और आदतें बदले ये उसको बेहद नागवार लगा था। अलबत्ता उसने तो ईश्वर से प्रार्थना की कि भूषण काका अब दोबारा नहीं आयें। भूषण काका को गए दस दिन बीत गए। यूनाईटेड स्टेट जाने की औपचारिकताएं तेजी पकड़ने लगी। तभी एक दिन नर्मदा ने मौली को मिष्ठी को फटकारते सुना, “एक हम थे जो पेन्सिल घिस जाने तक इस्तेमाल में लाते थे। एक ये, आजकल की औलादें हैं जिन्हें चीजों की कद्र ही नहीं है।”
बहू की आवाज बैठक तक आती सुनकर नर्मदा कमरे में झाँकने चली आई। बहू को पोती पर बुरी तरह बरसते देख बीच-बचाव की कमजोर सी कोशिश की तो मौली बोली, “मम्मी जी, आप इसकी भोली सूरत पर मत जाइए। बहुत शर्मिंदा हुई हूँ इसके कारण... आज पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग में ढेर सारे पेरेंट्स के बीच इसकी क्लास टीचर ने मुझे सुनाते हुए कहा- मिसेज सहरावत, कम से कम मिष्ठी को पेंसिल तो ढँग की दिया कीजिए। सच! मैं तो शर्म से पानी-पानी हो गई जब इसकी टीचर ने ढाई इंच की पेंसिल मुझे दिखाई...”
मौली की बात सुनकर नर्मदा ने हैरानी से लगभग रुआँसी सी हो आई मिष्ठी से पूछा, “क्या बोल रही है मम्मी, कल ही तो मेरे सामने तुम्हें नई पेंसिल दी थी। इतनी जल्दी छोटी कैसे हो गई।” मिष्ठी कुछ कहती उससे पहले मौली गुस्से से लगभग चिल्लाते हुए बोली, “चार दिन से इसे रोज नई पेंसिल दे रही हूँ। हिंदी टीचर ने बताया ये डस्टबिन के पास खड़े होकर पूरी पेंसिल छीलकर छोटी कर डालती है...”
“वो मम्मी...” बोलने की कोशिश में मिष्ठी फिर डपट दी गई। नर्मदा अफ़सोस भरे स्वर में बोली, “अरे जब हिंदी टीचर जानती थी कि ये नई पेंसिल छीलकर छोटी कर देती है तो क्लास टीचर को बताती। कम से कम चार लोगों के सामने बखेड़ा खड़ा करके वह तुम्हें शर्मिन्दा तो न करती।”
“अरे मम्मी जी, हिंदी वाली टीचर से तो मैं बाद में मिली। दरअसल इसकी क्लास टीचर सुबह अटेंडेंस लेकर चली जाती हैं फिर इंटरवल के बाद छठे पीरियड में आती हैं। उस बीच ये नई पेंसिल लाती है, उसे छीलती है या खाती है वो क्या जाने... पचास लोगों के आगे मुझे शर्मिंदा करना था सो कर लिया। आप नहीं जानतीं ये टीचर्स सक्सेसफुल पेरेंट्स को शर्मिंदा करने का कोई मौक़ा छोड़ना नहीं चाहती हैं।”
टीचर्स पर लगा ये आरोप बेबुनियाद है समझते हुए भी नर्मदा बहू की मनोदशा के चलते चुप रही। पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग में तमाम पेरेंट्स के बीच एक छोटी पेंसिल के कारण उपहास का पात्र बनना भला किसे अच्छा लगेगा।
थोड़ी देर में एक बार फिर मौली ने उसे नई, लंबी सुन्दर सी पेंसिल शार्प करके दी। नर्मदा देवी ने उसको होमवर्क करने में मदद की पर डाँट पड़ने से मिष्ठी उदास थी इसीलिए आज उसकी लिखावट सुंदर नहीं आई।"
शाम को महेंद्र घर आए तो मिष्ठी की चुलबुली बातें सुनने की एवज में जो पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग में हुआ वह सुनने को मिला। लाड़ली को उदास देख महेंद्र ने उसे दुलराते हुए गोद में उठाया तो उसने एक ही साँस में अपनी मम्मी की ज्यादतियों का बखान कर डाला।
महेंद्र ने मिष्ठी से प्यार से पूछा, “एक बात बताओ, इतनी शानदार पेंसिल को तुम छोटी करके क्यों लिखती हो ?”
“पापा, नई और बड़ी पेंसिल सुन्दर तो लगती है पर उससे लिखा नहीं जाता। छोटी कर देने से वह आसानी से पकड़ में आती है। लिखने में आसानी होती है और लिखावट भी सुंदर आती है।”
सहजता और भोलेपन से मिष्ठी ने जो कहा उसे सुनकर वहाँ सन्नाटा छा गया। वस्तुस्थिति को देखने का नज़रिया टीचर्स का, स्वयं का और मिष्ठी का, कितना अलग था। मिष्ठी का नन्हा मन अपनी सुविधा और बेहतर प्रदर्शन की चाह में पेंसिल की सुन्दरता को दरकिनार कर उसकी लंबाई घटाकर पकड़ने योग्य बना लेती थी... पर टीचर को उसकी पेंसिल बेढंगी लगी... और मौली ने तो टीचर की टोक अपनी प्रतिष्ठा पर ले लिया। लब्बोलुआब यह कि किसी ने मिष्ठी को नहीं समझा। जिसने लिखावट के लिए सहजता से समस्या का हल निकाल लिया था।
“हाय, हाय... मेरी बच्ची! काश ये बात क्लास टीचर सुनती, आस-पास खड़े पेरेंट्स सुनते तो कितना अच्छा होता।”
आप ने भी तो नहीं सुना” पछतावे का जवाब उलाहने से मिला तो अपराधबोध से भरी मौली ने उसे गले से लगा लिया। अफ़सोस में डूबी मौली को देख महेंद्र मुस्करा दिए और देर तक मुस्कराते रहे... पति के यूँ मुस्कराने से मौली कुछ चेती और कुछ विचलित हुई। उसे लगा महेंद्र कुछ कहना चाहते है पर कह नहीं पा रहे है।
कुछ पल के मौन के बाद उससे रहा नहीं गया तो वह पूछ बैठी, “बड़ा मुस्कुरा रहे हो। कोई बात है तो कहो।” ”
महेंद्र गला खँखारकर बोले, “पिछले हफ्ते तुम नाराज रही कि काका के सामने मैं अपने कद को घटाकर पुराने स्वरूप में खुद को प्रस्तुत क्यों कर रहा हूँ। खुद को सस्ता, सुलभ और सामान्य क्यों दर्शा रहा हूँ? उसका भी यही जवाब है।
कौन सा…?” वह चकराई। “वही, मिष्ठी वाला... मैं भावहीन नहीं, भावभरे काका से मिलना चाहता था, और ये तभी संभव था जब वह पुराने महेंद्र से मिलते।”
“साफ़-साफ़ कहो न कहना क्या चाहते हो?”
“यही, कि मिष्ठी की पेंसिल की तरह अपने कद को घटाकर पुराने संस्मरणों की सुन्दर लेखनी मन पर अंकित कर वह पाना चाहता था जो मुझे मिला... मुझे असीम सुकून मिला।
सच कहता हूँ, आज की भागमभाग और दिखावेबाजी की दुनिया में काका के साथ स्मृतियों को जीने में जो आनंद आया वह दुर्लभ था।
काका को यह जताकर और विश्वास दिलाकर कि उनके महेंद्र का समय जरूर बदला है पर रहन-सहन और मन के भाव, पसंद-नापसंद सब वही हैं उन्हें बदलने से बचा लिया। यदि मैं खुद को उनके अनुरूप न बदलता तो वह बदल जाते और बदले हुए काका अतीत का सोंधापन मुझसे कैसे बांटते? मुझमें बचा कुछ पुराना काका के होंठो की मुस्कान बन गया और काका का पुरानापन मेरे अतीत को सहला गया।”
मौली हथियार डालती हुई सी बोली, “तुम भावुक हो रहे हो, इस भावुकता में कितने दिन खड़े रहते। तरक्की करना गुनाह कब से माना जाने लगा। उसे किसी के लिए छिपाना सही नहीं है।”
“तुम्हें क्या लगा, मैंने सब कुछ काका के लिए किया... नहीं मौली, बहुत कुछ मैंने अपने लिए भी किया। वो बाजरे की खीचड़ा खाना, घास पर नीचे बैठकर धूप सेंकते मूंगफली का मजा लेना, वो घासीलाल के बेसन के पकौड़ों और देसी घी की जलेबी की बातें, होली में बनने वाली माँ और काकी के हाथों की बनी हींगवाली कचौडियाँ और मावे की गुझिया सब बातों में ही थी; पर थीं रसीली-चटपटी- स्वादिष्ट...कचौड़ियों - जलेबियों को हजम कर पाएं न ऐसा काका का पुराना हाजमा रह गया था न ही मेरी डाईट में उन चीजों का स्थान है। पर हाँ, स्मृतियों में रचा-बसा वो पुराना स्वाद, आज के सुकून और भाव रहित जीवन में मुँह में पानी लाने के लिए पर्याप्त था।”
नर्मदा मंत्रमुग्ध सी बेटे की बातों को सुनती हुई एक बार फिर पुराने दिनों में खो गई। बेशक यथार्थ में वह उन पुराने दिनों में जाना नहीं चाहती थी फिर भी मन में उस कालखंड की कसक रह-रहकर हूक उठाती ही है, इसको भी वो झुठला नहीं सकती। कभी-कभार उन बीते लम्हों को छू आने को मन कलपता है।
रात को डाईनिंग टेबल पर खाना लगा तो सहसा मौली उठी और किचन स्टोर में चली गई, लौटकर आई तो हाथों में पुराने कपडे़ में बंधा स्टील का पुराना सा डिब्बा था। ढक्कन खुलते ही देसी घी की खुशबू नाक में घुस गई।
महेंद्र की दाल में घी डालते हुए वह बोली, “काका दे गए थे, कुछ इस भाव से; मानो कोई बड़ी जागीर दे रहे हों।” अनुमानित तंज के प्रत्युत्तर में कोई कुछ कहता उससे पहले ही घी का डिब्बा पकड़े भीगे और धीमे स्वर में वह बोली, “स्टोर में बड़ी उपेक्षा से ड़ाल आई थी पर आज महसूस हुआ कि इसकी कीमत लगाई नहीं जा सकती। वाकई, अनमोल है...”
मिष्ठी अपनी मम्मी की बात नहीं समझी, पर जिन्हें समझना था वो समझ गए। नर्मदा के होठों पर मुस्कान और आँखों में नमी आ गई। महेंद्र ने भी कुछ गर्व और प्यार से आँखों ही आँखों में आभार व्यक्त करने में देर नहीं लगाई...