उदारता की पराकाष्टा

कोलकाता
भारत के प्रथम आर्मी चीफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का ड्राइवर हरियाणा का था और उसका नाम था हवलदार श्याम सिंह।
एक दिन, जनरल मानेकशॉ नॉर्थ ब्लॉक दिल्ली में, एक मीटिंग से हँसते हुए बाहर निकले। ड्राइवर सख्त सावधान मुद्रा में खड़ा था और उसने कार का दरवाज़ा खोला। अप्रैल का महीना था और मौसम बहुत ही सुहाना और मुलायम धूप वाला था।
“तुम्हें पता है श्याम सिंह,” जनरल बोले, “आज रक्षामंत्री ने मेरा नाम बदल दिया। उन्होंने मुझे श्याम कह दिया। बोले— ‘श्याम, मान भी जाओ।’”
जनरल सैम मानेकशॉ दरअसल बाबू जगजीवन राम के उस आग्रह का ज़िक्र कर रहे थे जिसमें प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर अप्रैल में ही पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) पर हमला करने की बात की जा रही थी। सैम ने साफ़ कहा था कि अप्रैल में अगर हमला हुआ, तो भारत की 100% हार होगी।
“वैसे, श्याम और सैम में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं है,” वे मुस्कराए, “बस H और Y का फर्क है।”
जब युद्ध समाप्त हो गया और जनरल मानेकशॉ की सेवानिवृत्ति का समय नज़दीक आया, तो उन्होंने देखा कि श्याम सिंह कुछ अजीब सा व्यवहार करने लगे हैं। उनके चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी।
“क्या बात है श्याम सिंह, तुम्हारा चेहरा तो कुछ परेशान लग रहा है !
“नहीं साहब, कोई खास बात नहीं है,” श्याम सिंह संकोच के साथ बोले और चुप हो गए।
समय बीतता गया, और एक दिन श्याम सिंह ने साहब से कहा—
“साहब, एक विनती है… आप ही मेरी मदद कर सकते हैं।”
“हाँ, कहो श्याम सिंह।”
“साहब, मैं समय से पहले रिटायर होना चाहता हूँ। कृपया मेरी छुट्टी स्वीकृत करवा दीजिए।”
“क्यों ? कोई ज़मीन-जायदाद का मुकदमा है या परिवार में कोई परेशानी ?” जनरल ने पूछा। “तुम अपनी सेवा की अवधि पूरी करो, मैं तुम्हें नायब सूबेदार बनवा दूँगा।”
“नहीं साहब, बात कुछ और है जो मैं रिलीव होने के बाद ही बता सकता हूँ।”
जनरल मानेकशॉ ने उसकी ईमानदारी और इज़्ज़त को समझा और कार्यवाही पूरी करवा दी। जब समय के पूर्व सेवा निवृत्ती के कागज़ मंजूर होकर आ गए, उन्होंने फिर पूछा—
“अब तो खुश हो ? बताओ, क्यों छोड़ी सर्विस ?”
ड्राइवर सावधान खड़ा हुआ और बोला—
“साहब, आपकी गाड़ी चलाने के बाद अब किसी और की गाड़ी चला नहीं सकता। यही मेरी ज़िंदगी का सबसे ऊँचा पल रहा और इसी इज्ज़त के साथ घर जाना चाहता हूँ।”
जनरल मानेकशॉ हँसते हुए बोले—
“तुम बहुत बड़े बेवकूफ़ हो। ये हरयाणवी लोग भी ना… एक बार जो ठान लिया, तो पीछे नहीं हटते।”
फिर उन्होंने पूछा— “रिटायर होकर करोगे क्या ?”
“कोई काम कर लूँगा, साहब।”
“कितनी ज़मीन है?”
“कोई नहीं साहब, गरीब परिवार से हूँ।”
जनरल मानेकशॉ चौंक गए। एक गरीब आदमी, जिसने सिर्फ इसीलिए सेना की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अब किसी और के लिए ड्राइविंग नहीं कर सकता था।
जिस दिन ड्राइवर विदा हो रहा था, जनरल ने उसे एक लिफ़ाफ़ा दिया।*
“श्याम सिंह, इसे अपने घर जाकर ही खोलना।”
“जी साहब।” श्याम सिंह ने सलाम किया और चला गया।
घर पहुँचने के बाद, वह जीवन की आपाधापी में व्यस्त हो गया और लिफ़ाफ़ा के बारे में भूल गया। उसने जीवन यापन हेतु एक मामुली नौकरी पकड़ ली।
एक दिन उसकी पत्नी ने कहा—
“मैं तुम्हारी पुरानी आर्मी यूनिफॉर्म सन्दूक में रख रही थी, यह लिफ़ाफ़ा तुम्हारी जेब में मिला।”
“ओह ये ? मैं भूल गया था। मैंने इसे नहीं खोला, क्योंकि मुझे ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं आता। सोचा साहब ने कोई तारीफ़ वाला पत्र लिखा होगा।”
पत्नी बोली— “फिर भी खोलो और स्कूल के मास्टर जी से पढ़वा लो।”
वे दोनों गाँव के स्कूल में गए और प्रधानाध्यापक से आग्रह किया।
मास्टरजी ने चश्मा लगाया, लिफाफा खोला और पढ़ने लगे। पढ़ते ही उनकी आँखें पन्ने पर अटक गईं।
“क्या हुआ मास्टर जी ?” श्याम ने पूछा।
“तुम्हें पता है ये क्या है ?”
“नहीं साहब।”
“ये ज़मीन का हस्तांतरण पत्र है। 1971 की विजय के बाद भारत सरकार ने जनरल मानेकशॉ को 25 एकड़ ज़मीन दी थी। उन्होंने वह ज़मीन तुम्हारे नाम कर दी है। अब तुम 25 एकड़ ज़मीन के मालिक हो।”
पत्नी ने आश्चर्य और गुस्से में कहा—
“तू तो बेवकूफ है ! पहले देखा क्यों नहीं ?? मैं तो इसे चूल्हा जलाने के लिए जलाने वाली थी ! शुक्र है मैंने पहले पूछ लिया……
अब श्याम सिंह की दुनिया बदल चुकी थी।
क्या गजब की है जनरल सैम मानेकशॉ की महानता की कहानी — नहीं नहीं जीवन की सच्ची प्रेरणा दायक घटना।
उन्होंने युद्ध में मिली विजय के सम्मानित पुरस्कार स्वरूप मिली ज़मीन अपने ड्राइवर को दे दी, और अपनी फील्ड मार्शल की पेंशन की राशि भी सेना विधवा कल्याण कोष में दान कर दी।
मेरे विचार से, सैम ने कबीर की इस दोहावली को चरितार्थ कर दिया।
तरूवर फल नहीं खाते हैं / नदी ने संचय निज नीर
परमार्थ काज हेतु ही / साधु सदा धरे शरीर।
आदरणीय पाठकों,
सनातन धर्म में हमेशा से ही स्व से अधिक पर के सुख के कार्य को प्रार्थमिकता ओर महत्वपूर्ण माना है। दधीचि, राजा शिव, भर्तृहरि, दानवीर कर्ण, सेठ भामाशाह, ने दान की विधा को गौरवान्वित किया है।
वर्तमान समय में भी बिड़ला परिवार, बिल गेट्स, वेदांत समूह के अनिल अग्रवाल, विप्रो समुह के प्रेम आज़मी जैसे अनेक धनाढ्य लोगों ने समाज कल्याण हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य, कला, धर्म, संस्कृति, जन कल्याण हेतु अनुदान ओर सामाजिक प्रकल्पों को संचालित किया।
मैं भी मेरे पाठकों से इस ग़ज़ल को आत्मसात करने कहूंगा –
माना कि इस चमन को / गुलज़ार न कर सके हम
पर कांटे तो कुछ कम किये / गुज़रे जिधर से भी हम।
