अशोक "अंजुम" के
चुनिंदा शेर........

अशोक कुमार शर्मा ‘अंजुम’

मंदिर मस्जिद इधर उधर हैं
बीच में जल्लादों के घर हैं

आइना क्या दिखा दिया मुझको
मेरा दुश्मन बना दिया मुझको

रिश्ते रिश्ते आँसू आँसू मन को अंगारों का डर
मेरे घर में जितने बच्चे उतनी दीवारों का डर

मानता हूँ काम भारी है
ज़िंदगी से जंग ज़ारी है

ज़िन्दगी और मौत का रिश्ता तो बस इतना सा है
भेड़ कोई शेर की ज्यों मेहरबानी में रहे

वक़्त जीवन में ऐसा न आए कभी
खत किसी के भी कोई जलाए कभी

जिसकी खातिर मैं लिखता रहा उम्र भर
वो भी मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए कभी

जबसे डाली कटी नीम की आना जाना भूल गयी
सदमा खाकर इक दीवानी बुलबुल गाना भूल गयी

दुनिया को नयी राह दिखाने के वास्ते
सूली पे चढ़े कौन ज़माने के वास्ते

वक़्त माना तू अभी अच्छा नहीं
टूट जाऊँ शाख से , पत्ता नहीं

कितना कहता हूँ पर नहीं जाता
घर से डर के वो घर नहीं जाता

प्यार के नाम पे दिखावा था
ये नशा यूँ उतर नहीं जाता

तुम्हारी याद की कौंधी यूँ बिजली
हम अरसे तक नहाये रौशनी में

अँधेरों का चलन उनको यूँ भाया
बुलाया पर न आये रौशनी में

कमाई उम्र भर की और क्या है बस यही तो है
मैं जिस दिल को भी देखूँ वो ही मेरा घर निकलता है

मैं मंदिर में नहीं जाता मैं मस्जिद भी नहीं जाता
मगर जिस दर पे झुक जाऊँ वो तेरा दर निकलता है

होतीं न महफ़िलें ये खिलते न फूल दिल के
हम जैसे गर जहाँ में फनकार जो न होते

भले ही धूप हो काँटे हों पर चलना ही पड़ता है
किसी प्यासे को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता

करे कोशिश अगर इंसान तो क्या क्या नहीं मिलता
वो उठकर चल के तो देखे जिसे रस्ता नहीं मिलता

कितनी मंज़िल पुकारती हैं तुम्हें
जब भी रहते हो घर में रहते हो

कुछ योजनाएं शायद करवट बदल रही हैं
देखेंगे कागज़ों पर फिर से बहार बच्चे

अमन की बात ये किसने उठायी
ये कितना शोर पैदा हो गया है

वो जंगल से तो घर को लौट आया
यहाँ पर और तनहा हो गया है