अतीत के झरोखे से

आपने कभी प्रकृति पर गौर फरमाया है कि वह किस तरह जीवनदायिनी शक्तियों के प्रति गहरे समर्पण में रहती है। किसी पेड़ को ध्यान से देखें, किसी पेड़ को क्यूँ ? स्वयं अपने गाँव की नदी के उस पार बरम बाबा के चौरा के ऊपर छतरी के समान खड़ा पीपल के पेड़ को ही देखें। आप पायेंगे कि वह अपने पूरे वजूद से साँस ले रहा है, हर साँस के साथ गहरी कृतज्ञता से झुका जा रहा है। पेड़ अपना पूरा जीवन कृतज्ञता और गहरी साँस लेने के इस उपक्रम में ही गुजार देते हैं, उन्हें कभी कोई दुःख छू ही नहीं पाता। यही हम मनुष्य भी तो कर सकते हैं।

प्रकृति में आज भी जीवनदायिनी शक्तियों की भरमार है। फिर भी हम दिन-प्रतिदिन दुखों से घिरे हुए हैं, कभी आपने सोचा क्यों हम अपने जड़ों को किस कदर भूलते जा रहे हैं ? मैं बड़ा हताश हो जाता हूँ, जब नदी के पार उस पीपल के पेड़ को देखता हूँ। गौर से देखा तो सहसा सिहर सा उठा, कैसे उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहते ही जा रहे थे, यह देख मैं अपने बचपन की यादों में खो गया।

चैत्र - वैशाख की दोपहरी में नदी के दोनों तरफ के गाँवो के लोग उसकी शीतल छाया का सहारा लेते, गाँव के पलटू धरकार, यहीं बैठकर बाँस की दौरी बुनते, दुल्हन ले जाते कहार डोली उतार कर कुएँ से पानी पीकर प्यास बुझाते, पगडंडी पकड़ जाते राहगीर इसकी छाँव में दुपहरी बिताते, इसके अतिरिक्त कभी बारात तो कभी आल्हा गाने वाले नट-नटिनी गाँव वालों का मनोरंजन कर चले जाते।

एक जमाना था जब प्रत्येक शाम को उसके नीचे 'दिवाली' सी बहार रहती थी। प्रत्येक घर से घी से भरा-पूरा एक-एक दीप जाता, सारी रात जगमग-जगमग। पर, आज क्या दिवाली के दिन भी अमावस की रात अंधेरे मे बीत जाती। एकादशी, पूर्णिमा आदि त्योहारों पर उसकी पूजा भी होती। 'बरम बाबा' स्थान पर सत्यनारायण की कथा होती तो पूरी-हलवा की खुशबू से ही मानो पूरा पेट भर जाता। सिन्दूर-चंदन, अक्षत, बेलपत्र, धूप-दीप, पान सुपारी, जनेऊ खड़ाऊ से 'बरम बाबा' प्रसन्न होते या नहीं भी होते, पर पीपल का यह पेड़ अपनी बाहों को फैलाकर 'गद-गद अवश्य हो जाता।

पर, आज वो जगह बिलकुल सूनी और वीरान सी लगती है। गाँव के लोग शहरी चमक-दमक के पीछे भागने में गाँव को ही वीरान करते चले जा रहे हैं। सच कहें तो वो जमाना ही बेहतर था।

शिव कुमार गुप्ता, मुंबई