हिन्दी कवियों की
तुलसी-वन्दना

रामचरितमानस के बालकाण्ड का समापन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है - 'निज गिरा पावनि करन कारन रामजस तुलसी कह्यो / रघुबीर चरित अपार बारिधि पार कबि कौने लह्यो।' यानी मैं, तुलसीदास अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए राम का यशोगान कर रहा हूँ, यह जानते हुए भी कि रघुवीर का चरित्र अगाध समुद्र है, उसे किसी कवि द्वारा पार करना असंभव है।

डॉ प्रेम शंकर त्रिपाठी कोलकाता

यह उक्ति गोस्वामी तुलसीदास पर भी सटीक बैठती है। गोस्वामीजी का साहित्य उस विराट समुद्र की भाँति है जिसमें अवगाहन कर चिन्तकों, मनीषियों, शोधकर्ताओं एवं रामकथा मर्मज्ञों ने अपनी लेखनी एवं वाणी को सार्थकता प्रदान की है। तत्त्वदर्शी समीक्षकों के विवेचन तथा विद्वज्जनों के वैविध्यपूर्ण विश्लेषणों के अतिरिक्त असंख्य कृतियाँ गोस्वामी जी के प्रभावी अवदान को रेखांकित करती हैं। हिन्दी के अनेक कवियों ने भी अपनी भावांजलियों के द्वारा तुलसी की महिमा का बखान करते हुए अपनी 'गिरा को पावन' किया है। यों तो कवियों-साहित्यकारों के वैशिष्ट्य के प्रति श्रद्धा निवेदित करनेवाली ढेरों कविताएँ हिन्दी में लिखी गई हैं परन्तु संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक काव्यांजलियाँ गोस्वामी तुलसीदास के प्रति ही समर्पित हैं।

तुलसीदास के समकालीन ही नहीं, आधुनिक काल तक के अनेक कवियों ने अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्तियों द्वारा गोस्वामीजी की वन्दना की है। यह अनुज पीढ़ी या परवर्ती पीढ़ियों का अपनी परम्परा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन तो है ही - कालजयी साहित्यकार, असाधारण कवि, सिद्ध संत तथा लोकनायक के प्रति श्रद्धानिवेदन भी है। इन काव्याभिव्यक्तियों में गोस्वामीजी का समय और समाज, उनका काव्य कौशल तथा उनकी रचनाओं की प्रभविष्णुता व्यक्त हुई है। कवि की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना 'रामचरितमानस' पर भी अनेक कविताएँ केन्द्रित हैं।

चर्चित छंद है 'बेनी' कवि का, जिसमें रचनाकार ने 'बेदमत सोधि-सोधि, सोधि कै पुरान सबै / संत औ असंतन के भेद को बतावतो' कहकर गोस्वामीजी के अद्भुत अवदान का स्मरण करते हुए रामचरित मानस की कथा, उसके वर्ण्य विषय तथा जनमानस पर उसके प्रभाव का भावपूर्ण वर्णन किया है -- 'भारी भवसागर उतारतो कवन पार / जौ पै यह रामायन तुलसी न गावतो'।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने अपनी काव्यांजलि में ठीक ही कहा है कि रामचरित मानस में अवगाहन करके जनमानस के विकार दूर हुए, रसिकों की, भक्तों की रसना राम-रसायन प्राप्त कर पुलकित हुई। काव्य-प्रतिभा ने तुलसी को प्रतिष्ठा नहीं दी, तुलसी की काव्य-कला से कविता को नवीन ऊँचाई प्राप्त हुई - 'कविता करके तुलसी न लसे / कविता लसी पा तुलसी की कला'। की रसना राम-रसायन प्राप्त कर पुलकित हुई। काव्य-प्रतिभा ने तुलसी को प्रतिष्ठा नहीं दी, तुलसी की काव्य-कला से कविता को नवीन ऊँचाई प्राप्त हुई - 'कविता करके तुलसी न लसे / कविता लसी पा तुलसी की कला'।

तुलसी के आराध्य राम की सर्वव्यापकता के साथ कवि के मानववादी दृष्टिकोण को सम्पृक्त कर अपने भावोद्‌गार में प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने मार्मिक पंक्तियाँ रची हैं --

दीन रहा पर चिन्तामणि वितरण करता था
भक्ति सुधा से जो संताप हरण करता था
प्रबल प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का
अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का

समापन पंक्तियों में प्रसादजी ने तुलसी की एकनिष्ठ रामभक्ति का उल्लेख करते हुए अपनी प्रणति निवेदित की है - 'राम छोड़कर और की जिसने कभी न आस की / रामचरित मानस कमल, जय हो तुलसीदास की'। आधुनिक हिन्दी कविता के लोकप्रिय कवि 'निराला' ने 'तुलसीदास' शीर्षक कृति द्वारा रत्नावली से जुड़े प्रसंग को नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है। कवि-पत्नी रत्नावली की फटकार - 'धिक् आए तुम यों अनाहूत / धो दिया श्रेष्ठ कुल-कर्म धूत । / राम के नहीं, काम के सूत कहलाए' किस प्रकार तुलसी को काम से राम की ओर उन्मुख करती है, इसका 100 छंदों में ओजस्वी वर्णन निराला जी के तुलसी-प्रेम का प्रमाण है।

कवि आरती प्रसाद सिंह ने रामचरितमानस के वैशिष्ट्य के कई पक्षों को अपनी भावाभिव्यक्ति में एक साथ उपस्थित कर दिया है। सीधी-सरल भाषा में रचित उनकी काव्य पंक्तियाँ मानस की लोकप्रियता को रेखांकित करती हैं -- 'राजाओं के राजमहल से लेकर पर्णकुटी तक जो / पाता है आदर गँवार से लेकर एक सुधी तक जो। / संतों से लेकर गृहस्थ तक और द्विजों से शूद्रों तक / क्या वैष्णव क्या शैव, सभी का जिसपर रहा बराबर हक़।' अंतिम पंक्तियों में कविकुलगुरु तुलसी को प्रणाम निवेदित करते हुए आरती प्रसाद जी ने रामचरित मानस के बारे में कहा है कि जबतक मनुष्य और मनुष्य जाति का इतिहास रहेगा तब तक मानस की एवं तुलसी की कीर्ति अक्षुण्ण रहेगी।

सचमुच रामचरित मानस ऐसा गौरव ग्रंथ है जो पाठकों को एक साथ काव्य-कालिन्दी एवं भक्ति-भागीरथी का अवगाहन कराता है। लोकमंगल की भावना से सम्पृक्त होने के कारण यह परम शांतिदायक एवं दिव्य आनंद प्रदान करनेवाला अनूठा ग्रंथ है। 'सीयराममय सब जग जानी' के रचनाकार तुलसी के प्रति कविवर बच्चन की वन्दना --

तुमने अपने रामसिया में / रसिया सब जग देख लिया था
कितने नयन विशाल तुम्हारे / कितना गहन-गंभीर हिया था
नहीं अभी तक पहुँचा कोई / जहाँ हुई थी पहुँच तुम्हारी
बारम्बार प्रणाम तुम्हें है / रामचरित के अमित पुजारी

इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए गीतकार वीरेन्द्र मिश्र ने तुलसी की जीवन दृष्टि को समेटते हुए सांप्रतिक परिवेश में ऐसे लोकनायक समाज सुधारक रचनाकार के पुनरागमन की आवश्यकता पर बल दिया है। हृदयस्पर्शी गीत-पंक्तियाँ हैं :

गीत तुलसी ने लिखे तो आरती सबकी उतारी
राम का तो नाम है, गाथा कहानी है हमारी
आज इस सुनसान में उसकी कमी खलती बहुत, जो-
गीत बन-बनकर धरा से व्योम तक में गूँज जाए।
एक पंछी गा चुका है, एक पंछी और गाए
एक तुलसी आ चुका है, एक तुलसी और आए।

आधुनिक काल के वरिष्ठ कवि त्रिलोचन शास्त्री गोस्वामीजी की भाषा के कायल रहे हैं। उन्होंने लिखा ही है 'तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी / मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।' तुलसी साहित्य के अधिकारी विद्वान आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री ने अपनी एक चतुष्पदी में गोस्वामीजी के वैशिष्ट्य को समेटा है --

'ज्योति के अवतार, पुंजीभूत गरिमा
चेतना साकार, संयममय मधुरिमा
विनय के आगार, मर्यादा पुजारी
भक्ति के आधार, तुलसी जय तुम्हारी।'

डॉ० अरुण प्रकाश अवस्थी ने भी तुलसी की भाषा-भंगिमा की प्रशंसा करते हुए उनके काव्यात्मक अवदान का विस्तृत अंकन अपने एक गीत में किया है --

तुम चित्रकार थे मानव के, अनुचरी तुम्हारी थी भाषा
हे काव्य-कला के पूर्ण इंदु, तुम थे कविता की परिभाषा
पी गए हलाहल तुम युग का, पर जग को पिला गए अमृत
हे कविर्मनीषी, यशःकाय, नवयुग का नमन करो स्वीकृत।

अपनी श्रद्धा को वृहत् आयाम प्रदान करते हुए कवि वाहिद अली वाहिद ने तुलसी द्वारा बार-बार संकेतित तीन शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ पर विजय प्राप्त कर अंतःकरण में राम-भाव जागृत करने का संदेश दिया है। बड़ा ही अर्थपूर्ण है उनका यह छंद --

'राम का रूप जो देखना हो, मन मंदिर में अभिराम को देखो
अभिराम को देखने के पहले, निज लोभ को,
क्रोध को, काम को देखो
काम को देखने के पहले, तुलसी कृत छंद ललाम को देखो
छंद ललाम जो चाहते हो, तुलसी की निगाह से राम को देखो।

गोस्वामी तुलसीदास ने राम के जिस स्वरूप की निर्मिति की, वह अप्रतिम है। तभी तो देश-विदेश में रचित असंख्य रामकथाओं में तुलसीकृत रामचरितमानस का स्थान सर्वोपरि है। बड़ी संख्या में लोग रामायण के रूप में इस ग्रंथ को ही पहचानते हैं। रहीम ने लिखा भी है --

रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्रान।
हिन्दुआन को बेद सम, जवनहिं प्रगट कुरान ।।

अब्दुर्रहीम खानखाना गोस्वामीजी के अन्तरंग मित्र रहे हैं। दोनों के संदर्भ में एक प्रसंग प्रचलित है। कहा जाता है कि 'सुरतिय नरतिय, नागतिय, अस चाहत सब कोय' पंक्ति लिखने के बाद गोस्वामीजी अगली पंक्ति पूरी नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने यह बात जब रहीम को बताई, रहीम ने उसकी त्वरित पूर्ति करते हुए पंक्ति जोड़ी- 'गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।' संभव है गोस्वामीजी के नाम से प्रचलित अनेक कथाओं, किंवदंतियों की भाँति यह प्रसंग भी पूर्णतः सत्य न हो, परन्तु पंक्ति के मूल में निहित भाव तुलसीदास के व्यापक अवदान को तो संकेतित करता ही है। बड़ा ही मोहक छंद है आत्मप्रकाश शुक्ल का --

प्रात होत मन्दिर में रामधुन गूँजती है
लगता है राम को जगा रहे हैं तुलसी
दोपहर होते, आते शबरी के बेर याद
जैसे राजाराम को खिला रहे हैं तुलसी
सांध्य आरती में बजते हैं ढप ढोल झांझ
लोरियों से राम को सुला रहे हैं तुलसी
हरे राम, हरे राम, राम-राम हरे राम
आठों याम राम से मिला रहे हैं तुलसी।

आज हम वैज्ञानिक विकास की डुगडुगी पीटकर आत्ममुग्ध हैं। यह सही है कि भौतिक समृद्धि एवं वैज्ञानिक उन्नति के बलपर मानव समाज ने विकास के नए- नए सोपानों का स्पर्श किया है परन्तु यह भी सच है कि इसी के साथ हमारी व्याकुलता एवं व्यग्रता भी बढ़ी है। इस विकास ने इंद्रिय सुख देनेवाली, आत्मकेन्द्रित अहंवृत्ति को विकसित किया है। परिणामतः हम अवसादग्रस्त एवं अशान्त होते जा रहे हैं। ऐसे परिवेश में गोस्वामी तुलसीदास रचित साहित्य हमारा सच्चा मार्गदर्शक बन सकता है। तभी तो किसी कवि ने कहा है --

आज हैं संसार की आशा लताएँ शुष्क झुलसी।
हे प्रभो फिर भेज दो तुम, एक हुलसी, एक तुलसी।।