राम शरण रावण दलन

एक बार माता पार्वती ने शिवजी से विजयादशमी के फल के बारे में पूछा। आश्विन शुक्ल दशमी को शाम के समय में तारा उदय होने के समय विजय नाम का समय होता है, जो सारी मनोकामना को पूरा करने वाला होता है। उस दिन श्रवण नक्षत्र का संयोग हो तो और भी शुभ होता है। भगवान राम ने इसी विजया काल में लंकापति रावण को हराया था विजयादशमी के दिन रामचंद्र जी ने लंका पर चढ़ाई को प्रस्थान किया तब शमी के वृक्ष ने रामचंद्र जी की विजय की घोषणा की थी। इसीलिए दशहरे के दिन शाम के समय विजया काल में शमी की पूजा होती है। राम और रावण के इस युद्ध को तथा राम की श्री विजय को दोनों के पृथक चरित्र से समझें, राम अयोध्या के राजकुमार थे राजा नहीं बने थे और गुरु आश्रम में शिक्षा प्राप्त करते हुए उन्हें कैवल्य - वैराग्य का आत्म ज्ञान हो चुका था। उनका यह जीवन दर्शन विद्या अध्ययन और शस्त्र - शास्त्र अध्यन के दौरान ही हो चुका था। कुमारावस्था में उन्हें मुनियों सा आत्मिक मुक्ति ज्ञान सरल बोध से हो चुका था, जहां वे सांसारिक नश्वरता, मन की कुचा ले, तन का जयारु, परवशता इत्यादि का समझ स्वमेव हो गया था। वे एकांत वास मे प्रायः इन पहलुओं पर चिंतन करते अकेले पाये जाते थे। मौन रहते यदि कुछ कहते तो ऐसी ही समझ की बातें अपने अनुजों से कहते। वशिष्ठ मुनि ने भी उनकी इस प्रज्ञा बोध और निर्मलता की भूरी-भूरी प्रसंसा की थी। अतः राम के जीवन का दर्शन पूर्णतः वैभव बंधन से, स्वयं के अस्तित्व से मुक्त स्वतंत्र था। वे आप्तकामी थे। सीता संग राम के वन में छोटे भाई लक्ष्मण का भी गमन देवर - भाभी सत्पुरुष राम के प्रति उनकी निष्ठा
और प्यार के आचरण को व्यक्त करता है। राम इन दोनों को अपने साथ ले जाना नहीं चाहते थे, पर जब दोनों ने उन्हें अपने प्यार की रक्षा की खातिर चलने की दुहाई दी तो वे उन्हें अपने साथ ले चलने को राजी हुए। यह भी मिसाल एक भरे - पूरे परिवार में चंद लोगों का आपके साथ होने की है। जो राम विरोधी थे उन्हें इसका मलाल न था, वे भीतर ही भीतर बड़े खुश थे कि राम अपने साथ - साथ इन्हें भी कष्ट मे डाल देंगे। पर, श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम गुणों की खान वे अपने परिवार से स्वयं से भी ज्यादा प्यार करते थे। उनकी बातों को शिरोधार्य करके रामचंद्र जी ने अपनी प्रखरता, आज्ञा पालन के समर्पण का साहसिक परिचय प्रसन्न मन से दिया। चूँकि राम वैभव - भोग के लोभी नही हैं, वे प्यार के, भक्ति के सहयोगी हैं -- वन में जाकर राम - लक्ष्मण और सीता मुनियों की तरह रहते। लक्ष्मण क्षत्रिय धर्म का पूर्णतः पालन करते, रक्षा हेतु चौकस रहते।
वन के फल फूल खाकर सादा जीवन पूजन आदि से जीवन बीत ही रहा था तभी नासिक के आस-पास के जंगलों में घूमती शूर्पनखा रावण की बहन की नजर रूपवान राम पर पड़ती है। वो उन्हें अपना पति बन जाने का प्रस्ताव रखती है, पर राम एकपत्निक धर्म के पक्षधर सहधर्म प्यारे उन्हें साफ मना कर देते हैं और अपनी पत्नी की तरफ इशारे करते हैं। ऐसे में झुंझलायी शूर्पनखा सीता पर हमले के लिए आगे बढ़ती है और लक्ष्मण अपने धनुष के तीर से शूर्पनखा की नाक काट देते हैं। भारत के महाराष्ट्र स्थित शहर का नाम इस कथा प्रसंग के चलते नासिक पड़ा है।
उधर रावण को जब यह बात अपनी बहन से पता चलती है तो वो आगबबूला हो उठता है और साधू के वेष में यानी बाबा पाखंडी का रूप लेकर सीता को धर्म के नाम पर कमजोर बनाकर, डरा - धमका कर लक्ष्मण रेखा पार करवा अपहरण कर पुष्पक विमान से लंका ले जाता है। बीच में यात्रा के दौरान पक्षीराज जटायु इस बात का निरोध करते हुए रावण की तलवार से मार गिरारे जाते हैं। रावण एक अंहकारी व अनाचारी था। सीता पर उसकी नजर उसकी बहन शूर्पनखा ने सीता के रूप का बखान कर खराब कर दी थी। वे परस्त्री काम - वासना से पीड़ित हो गया। भक्त होते हुए भी कामासक्त हो गया।जबकि उसकी पत्नी और बच्चे थे, भरा - पूरा परिवार था। वो लंकापति रावण था, विश्व - ब्रह्माण्ड को जीत चुका अपनी शक्ति सिद्ध कर चुका सोने की लंकापुरी का सम्राट था। पर फिर भी उसमें मानवता नहीं दानवता भरी हुई थी। उसकी जननी कैकशी एक राक्षसी थी। अनुवंशिक गुण दोष में उसमें, उसकी मां के अंश मौजूद थे। पिता पुलस्त्य ऋषि के गुण मौजूद थे अतः वो एक अच्छे - बुरे दोनों तरह के व्यक्तित्व का मालिक था। सीता माता ने अपना सतित्व उससे बचाये रखा।
रावण अपना दंभ अपने बाहरी गुणों के शक्ति प्रभाव, वस्तु वैभव को ज्यादा महत्व देता रहा और राम अपने आंतरिक गुणों को, प्रज्ञा, समझ, सत्य ज्ञान को। राम के पास संसाधन वानर सेना, सुग्रीव व उनके अनुचर हनुमान के रूप में प्राप्त हुई। इस संसाधन की राह दिखाने वाला काबंध नाम का एक असुर था, जिसको मार कर राम ने उसके देव दिव्य शरीर के द्वारा क्रतज्ञता वचन से प्राप्त किया था किष्किंधा और उसके राजा सुग्रीव के विषय में वक्तिगत जीवन में उत्पातों को जान कर उनसे सहयोग - मैत्री को पाया। राम जीवन में काटों में भी राह बनाते गये, कांटो को किनारे कर अपने पथ पर आगे चलते रहे। रावण दूसरों के जीवन का काँटा बन कर चुभता रहा। राम वन फूल की तरह महक रहे थे और रावण वन शूल की तरह चुभ रहा था मुनियों को, ऋषियों को, देवताओं को, गृहों को। राम फूल की तरह सबका प्यार पा रहे थे औरों के कष्ट हर कर हरि कहला रहे थे - अहिल्या के, केवट के, सुग्रीव के।

