बचपण जन्माष्टमी और झांकी

बचपन की स्मृतियों में जन्माष्टमी और जन्माष्टमी की झाँकी बड़ी अहम हैं। उस वक्त न केवल हमारे घर में बल्कि घर-घर में झाँकियाँ सजाई जाती थीं।

झाँकी के लिए सर्वप्रथम मंडप बनाया जाता था। मंडप के लिए मम्मी की सुंदर सिल्क की साड़ियां निकाली जाती थीं। डैडी नेवी में थे इसलिए जब भी उनका शिप बाहर (विदेश) जाता और किसी पोर्ट पर रुकता तो सबको उस शहर में जाने का अवसर मिलता था। उस दौरान की गई शॉपिंग में साड़ियां और टॉफियाँ प्रमुख होती थीं। इसी वजह से मम्मी के पास साड़ियों का अच्छा संग्रह था। झाँकी में लगाने के लिए पिस्ता हरी और नारंगी साड़ी सबकी पहली पसंद थी।

 

मीनू त्रिपाठी नोएडा

मंडप को दीदी (बड़ी बहन) बनाती थीं। लंबी-चौड़ी साड़ियों में चुन्नट डालकर मण्डप का आकार देना और संभालना उनके ही बस का था। मैं तो बस सेफ्टीपिन पकड़ाने का काम करती थी।

वैसे तो झाँकी सजाने का काम अमूमन हम सब भाई-बहन मिलकर करते, पर सामग्री जुटाने में मुख्य भूमिका भाईयों की होती। जिसमें लकड़ी का बुरादा मंगवाना और रेलवे यार्ड से झाँवा पत्थर लाना मुख्य था। ये पत्थर स्टीम इंजन से जले कोयले की राख के बीच पाया जाता था। जिस कोयले में खनिज अधिक होता था वह पूरी तरह से जलकर राख न होकर फफोलेनुमा पोले, खुरदुरे और हल्के पत्थर का रूप ले लेता है, जिसका उपयोग झाँकी में नकली पहाड़ बनाने में होता था। इनको एक के ऊपर एक रख कर पहाड़ का रूप ले लेता था। उसको रुई के फाहों से सजा कर बर्फ का आभास देता था।

झाँकी की सजावट कमरे के कोने में पहाड़ बनाने से शुरू की जाती थी। उस पहाड़ में मिट्टी का शेर यूँ रखा जाता था मानो अपनी मांद में बैठा हो। फिर बनती थीं रंगे हुए बुरादे से सड़कें... उन पर रखी जाती थी छोटी- छोटी खिलौनों वाली गाडियां या फिर माचिस की डिब्बी में पन्नी लपेटकर गाड़ियां या जीप बनाई जाती। उनके पहिये गत्ते के गोल टुकड़े काटकर लगाए जाते। लाल, नीली, पीली, हरी कई गाड़ियां बनाई जातीं। चौराहे बनते जिसमें प्लास्टिक के बने ट्रैफिक सिग्नल भी लगाये जाते।

झाँकी में राधा-कृष्णा, मीराबाई की खूबसूरत गुड़िया सजाई जाती थी। मेरी बड़ी बहन ने डॉलमेकिंग कोर्स किया था। लकड़ी के स्टैंड पर खड़ी डॉल्स असाधारण कला का प्रतीक थी जो काफी मेहनत और हुनर का आभास कराती थी। दीदी के हाथों के बने कपड़े के राधा-कृष्ण इतने सुंदर बनते थे मानो बोल पड़ेंगे। मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती हूँ ऐसा कुछ क्रिएट करने के लिए। राधा-कृष्ण, मीरा के अलावा उन्होंने क्रिश्चियन ब्राइड और जापानी डॉल भी बनाई थी। किमोनो पहने जापानी डॉल मुझे बहुत पसंद थी। जन्माष्टमी के अवसर पर राधा-कृष्ण और मीरा काँच के शोकेस से निकालकर झाँकी में रखे जाते थे।

इसी तरह काँच का सलीके से कटा आयताकार टुकड़ा जिसे रेत पर रखकर नदी का रूप दिया जाता था ये काम भी भाई के जिम्मे होता था। उस नदी के किनारे लकड़ी के बने बाँसुरी बजाते कृष्ण और राधा रखे जाते। नदी किनारे बाँसुरी बजाने का दृश्य उकेरा जाता। वन-उपवन क्रिएट किये जाते। कुछ नकली पेड़ और कुछ असली नन्ही टहनियां रखी जातीं। रँग - बिरंगी पन्नियों से सजा झूला अहम झाँकी का मुख्य आकर्षण होता था, जिसमें जन्म के बाद छोटे से लड्डूगोपाल झूलते थे। इसी प्रकार ढेर सारे खिलौने, लड़ियाँ, चमकी, रिबन से चार चांद लगाए जाते थे झाँकी में।

सजावट में दखल बड़े-भाई बहनों का ही होता था। मैं आइडिया तो दे सकती थी पर कुछ करने की इजाजत अमूमन नहीं मिलती थी। हाँ झाँकी तैयार हो जाने के बाद मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी का काम सौंपा जाता था और वो था बुरादे की सड़कों के बिखरने पर स्केल से सड़कों का एलाइनमेंट ठीक करना। वो भी कई दिनों तक मसलन जब तक झाँकी सजी रहती थी तब तक… अपने हाथों की सजी झाँकी बार-बार आत्ममुग्धता के साथ निहारी जाती थी। शाम को दूसरे घरों में भी झाँकियाँ देखने जाया करते थे पर अपने घर की झाँकी सबसे बढ़िया लगती थी।

New Project (51)

मम्मी की किचन में व्यस्तता और दिनों से कहीं ज्यादा होती थी। मम्मी को छोड़कर सब व्रत रहते थे। साबूदाने की खिचड़ी और व्रत के स्वादिष्ट फलाहार खाने की लालसा सबसे व्रत रखवा ले जाती थी। कृष्णजन्म और पूजा आरती का काम डैडी करते थे। हमारे घर मे व्रत का फौजी फार्मूला अपनाया जाता था। दिन भर व्रत रखा जाता पर कृष्ण जन्म के बाद सभी व्रतधारी पकवान जीम लेते थे। वो तो ससुराल आने पर पता चला कि व्रत तो दूसरे दिन सुबह तक का होता है। रात बारह बजे तक जागना एक बड़ा टास्क होता था। रात दस बजे के बाद घड़ी की सुई की गति धीमी हो जाती थी।


आज सोचो तो आश्चर्य होता है कि बारह बजे तक जागना क्यों भारी लगता था। आज तो हर रोज बारह बिना वजह ही बजते हैं। आज की जेनरेशन देर रात जागने की अभ्यस्त है। एक वेबसीरीज देखो और पाँच-छह घँटे किधर निकले मालूम ही न चले। वो भी न हो तो स्मार्टफोन में सर्फिंग करते चुटकियों में घँटे बीत जाते हैं। आज जन्माष्टमी और उसकी रौनक डिजिटल हो गई है।

पर बचपन की जन्माष्टमी का जिया हुआ उल्लास आज भी जेहन में ज्यों का त्यों है। तब कितना कुछ रहता था करने को। फिर भी आज की जेनरेशन को लगता है कि उस कालखंड में हमारे पास कुछ नहीं था करने को… क्योंकि हम डिजिटली हाईटेक नहीं थे। इसीलिए शायद तब वो कर पाए जो आने वाले समय में किंवदंतियों की तरह पढ़ी और सुनी जाएगी। इस दुनिया में यदि कोई चीज शाश्वत है तो वो है परिवर्तन… जिसकी आहट बड़े होते-होते हमें भी सुनाई देने लगी थी। बचपन की वो उल्लास और उमंगों भरी जन्माष्टमी बड़े होते-होते कुछ-कुछ बदलने लगी थी। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए झाँकी छोटी होती चली गई। एक समय आया जब सांकेतिक झाँकी भर होती, हाँ! पूजा का स्वरूप वैसा ही रहा।

जन्माष्टमी में गाए राग भूपाली का पसंदीदा क्लासिकल भजन ‘जाऊँ तोरे चरण कमलपर वारी…’ या फिर राग आसावरी पर आधारित ‘अरे मन समझ-समझ पग धरिये…’ आज भी जन्माष्टमी के दिन मन को दस्तक देकर सहज ही जुबान पर चढ़ जाते हैं।