कलकत्ता का वह एक्सीडेंट

निर्मल शंकर त्रिपाठी

लखनऊ

यह घटना मेरे बचपन की है (संभवतः 1967 की) जब हमलोग आलूपोस्ता, कलकत्ता में रहते थे। लालकोठी में आदरणीय बप्पा का परिवार (हमारे ताऊजी) और लम्बीबाड़ी में आदरणीय कक्कू (हमारे चाचा) का परिवार तथा हमारे पिताश्री के साथ हमलोगों का परिवार रहता था। हम सब लोग संयुक्त परिवार की तरह ही रहते थे, यद्यपि एक ही मकान (building) में सीमित कमरों की उपलब्धता के कारण तीनों परिवार दो अलग अलग मकान (आस पास) और अलग कमरों में रहते थे, पर सारे प्रमुख त्यौहार सब लोग साथ ही मनाते थे। हम सब बच्चे खेलने के लिए लाल कोठी में ही जाते थे। वहां पर क्रिकेट खेलने में अत्यन्त आनन्द आता था। लाल कोठी के गेट के पास शीतला मामा, जो दर्जी मामा के नाम से विख्यात थे की सिलाई की दुकान थी। क्रिकेट खेलने में कई बार गेंद उनके पास चली जाती थी, बच्चों के शोर से वह त्रस्त रहते थे, एक बार यदि गेंद उनके पास चली गई तो अत्यन्त कठिनाई से, बहुत अनुनय विनय के बाद ही हमें वापस मिलती थी और यदि गेंद कहीं उनको लग गई तो वो अपनी कैंची से रबर की गेंद को फाड़कर हमारी ओर फेंकते थे, उसके बाद सब बच्चे अपनी रोनी सूरत बनाकर घर वापस लौटते थे। एक बार गेंद सीधे उनके गाल पर ही चिपक गई और तमतमा कर गेंद को कैंची से गोद दिया तथा सामने हरिहर (लाल कोठी के निवासी) का बेटा पड़ गया तो उनके मुंह से अकस्मात निकल गया कि "बड़ा हरिहर का बेटा पिलियर (प्लेयर) बनत फिर रहा है"। कई बार तो गेंद गन्दी नाली में चली जाती थी और उसे निकालने के लिए कई जुगत और प्रयास करने पड़ते थे, और कभी कभी तो जिस बच्चे ने गेंद निकाली उसे घर पहुंचकर सारे कपड़े धोकर स्नान करना पड़ता था। इतनी कठिनाइयों के पश्चात भी खेलने में अति आनन्द आता था।

हमलोग "कमला शिक्षा सदन" नामक विद्यालय में पढ़ते थे, यह विद्यालय गणेश टॉकीज के आगे, गिरीश पार्क के पहले स्टैण्डर्ड चार्टर्ड बैंक के निकट स्थित था। इस विद्यालय की प्राथमिक पाठशाला गणेश टॉकीज के पहले पड़ती थी। हम 7 लोग - मैं, मेरे अनुज अशोक, सधन, मुन्ना, छुन्ना, एवं पुत्तन (हमारा भान्जा) विद्यालय के लिए अपने अग्रज (बाबू भैया) के नेतृत्व में एक साथ ही निकलते थे। बाबू भैया का अनुशासन एवं नेतृत्व अतुलनीय था, अतः हमलोगों को विद्यालय आने जाने में कभी किसी कठिनाई या अवांछित परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। हाँ मार्ग में पुत्तन (जो हम सबका लाडला था) बहुत मस्ती करता रहता था, कई बार उसके नखरे भी उठाने पड़ते थे पर सभी आनन्दित रहते थे। मार्ग में हमें दो स्थान पर सड़क पार करनी पड़ती थी, अतः सब लोग अति सावधानी से आवागमन करते थे, पर एक दिन संभवतः विधाता को कुछ और ही स्वीकार्य था, स्कूल जाते समय मध्य मार्ग में एक सड़क (मालापाड़ा मोड़) पार करते हुए हमे एक टैक्सी (अम्बेसडर कार) ने टक्कर मार दी और मेरे दाहिने पैर के पंजे पर कार का पहिया चढ़ गया, पीड़ा से मैं चीख उठा, और मैं तथा मुन्ना सड़क पर चित्त गिर पड़े। मुन्ना ने मेरा हाथ पकड़ रखा था अतः कार का धक्का लगने के कारण वो भी मेरे साथ गिर गया। मेरी चीख सुनकर अचानक एक्सीडेंट - एक्सीडेंट का शोर होने लगा, वहां आस पास के लोग गाड़ी के चालक को पकड़ कर पीटने लगे, पर ट्रैफिक पुलिस ने उसे पिटने से बचाया। कई लोग दौड़े और हम लोगों को सड़क के किनारे लेकर आये, मेरी पीड़ा देखकर सब छोटे बच्चे रोने लगे (मेरी समझ में नहीं आया कि चोटिल तो मैं हुआ हूँ पर ये लोग क्यों रो रहें हैं)। बाबू भैया ने जिस पैर पर गाड़ी का पहिया चढ़ा था, उसका जूता निकालकर देखा, मेरे जूते का ऊपरी भाग (चमड़ा) छिल गया था, लेकिन पैर सही-सलामत था और बाबू भैया ने मुझे ढाँढस बँधाकर कर बोले कि पैर बच गया और सांत्वना देने लगे। इसी बीच ट्रैफिक पुलिस वाला भी वहां आ गया, उसने समस्त बच्चों को चुप कराने के लिए कोका कोला पिलाया। रोने का लाभ समस्त बच्चों को मिल गया, मुझे और मुन्ना को छोड़कर (मैंने सोचा जहिका बियाहु वहिका याको बरा नहीं मिला)। सुदृढ़ जूता पहनने के कारण कोई विशेष हानि नहीं हुई। थोड़ी देर में सब लोग सामान्य हो गए और स्कूल की ओर चल दिए।

और एक बार पुनः अपने भ्राताश्री (बाबू भैया) के नेतृत्व में हम लोग अपने नियमानुसार विधिवत स्कूल आने जाने लगे।

सही नेतृत्व, उचित मार्गदर्शन एवं सावधानी से हम अपनी पूर्ण सुरक्षा कर सकते हैं। उपरोक्त घटना मेरे जीवन में अत्यन्त प्रेरणादायी रही और अपने भ्राताश्री (बाबू भैया), जो इस घटना को लिपिबद्ध करने के प्रेरणास्त्रोत भी हैं के साथ मेरी बॉन्डिंग और प्रगाढ़ हो गयी जो कि आज तक यथावत है।