भरद्वाज आश्रम प्रभु आए

डॉ. लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी, कानपुर

माता महारानी कैकेयी द्वारा पिता महाराज दशरथ से मांगे गए दो वरदानों में से एक ‘तापस बेस बिसेस उदासी, चौदह बरस राम बनबासी’ का पालन करने एवं ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्रान जाइ पर बचन न जाई’ को चरितार्थ करने कौशल्या नन्दन श्री राम अपनी भार्या जनक नन्दिनी सीता तथा अनुज सुमित्रा सुत लक्ष्मण के साथ श्रृंगबेरपुर होते हुए तीर्थराज प्रयाग स्थित ‘महर्षि भरद्वाज’ के आश्रम पहुंचे।

पुण्य सलिला गंगा तथा यमुना का संगम, पावन अक्षय वट जहां छत्र के रूप में विराजमान हो ऐसा तीर्थराज ऋषियों, मुनियों, साधकों, तपस्वियों, वीतरागियों के आकर्षण का क्षेत्र हो गया। महर्षि भरद्वाज का आश्रम ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधानरत उद्भट विद्वानों का केन्द्र था।

इन आश्रमों में दूर सुदूर स्थित विभिन्न आश्रमों के साधु संतों तथा ऋषि मुनियों के आवागमन से ज्ञान, विज्ञान, समाज एवं राज्यों की स्थिति पर परस्पर चर्चा होती रहती थी। वह समय था राक्षसों के आतंक का। तपोनिष्ठ, शांतिप्रिय ऋषियों के यज्ञ को बाधित करते थे ये निशाचर।

धर्मनिष्ठ ऋषियों ने धर्म की रक्षा हेतु तथा आसुरी शक्तियों के संहार के लिये मंत्र सिद्ध आयुधों, अस्त्र-शस्त्रों की परिकल्पना कर ली थी। तपोबल से विभिन्न आश्रमों में ऐसे कुछ आयुध निर्मित भी हो चुके थे, कुछ आश्रमों में ये पूर्णता की ओर थे। इन आयुधों के सन्धान हेतु आवश्यकता थी एक धीर, वीर, उदात्त नायक की जो ऋषियों से मार्गदर्शन प्राप्त कर ज्ञान, विज्ञान और आयुधों के प्रक्षेपण एवं परीक्षण में प्रवीण हो कर धर्म की पुनर्स्थापना हेतु महानायक के रुप मे प्रतिष्ठित हो।

महर्षि भरद्वाज के आश्रम में इसी विषय पर चर्चा में अयोध्या नरेश- महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र कुमार राम की सद्य अर्जित कीर्ति से उत्साहित ऋषियों ने कुमार राम में ऐसे महानायक होने की संभावना व्यक्त की। कुमार राम की सौम्यता, सहजता, शील, सौंदर्य, ताड़का-सुबाहु वध, अहिल्या उद्धार एवं शिव धनुष भंजन के प्रसंग से सभी आशान्वित थे। उक्त चर्चा से त्रिकालदर्शी महर्षि भरद्वाज मन ही मन आनंदित हो रहे थे तभी उन्हें सूचना मिली कि अयोध्या कुमार राम अपनी भार्या जानकी एवं अनुज लखनलाल के साथ संगम स्नान व पूजन पश्चात आश्रम की ओर पधार रहे हैं, साथ हैं निषादराज भी।

प्रमुदित महर्षि ने दंडवत करते दोनों राजकुमारों को उठा कर हृदय से लगाया। जनकसुता तथा निषादराज का अभिवादन स्वीकार कर सभी को उचित स्थान पर विराजित किया। उपस्थित ऋषिगणों को आगंतुकों ने प्रणाम कर अपना स्थान लिया। ऋषिगण जिन संभावित नायक की चर्चा कर रहे थे उन्हें अचानक सामने देखकर अचंभित से रह गए। ऋषिगणों में कुछ जो जनकपुर के सीय स्वयंवर में उपस्थित थे वे तो और भी आश्चर्यचकित थे। कहाँ वह सम्मोहक राजकुमार स्वरूप कहाँ यह वनवासी रूप जो कि उतना ही सम्मोहक लग रहा है।

कुशल क्षेम के उपरांत कुमार राम ने महर्षि से अपने आगमन का प्रयोजन बताया एवं वनवास की अवधि में विभिन्न वरेण्य ऋषियों के आश्रम हेतु मार्गदर्शन का निवेदन किया।
प्रमुदित महर्षि ने मन ही मन कुमार राम के ‘सच्चिदानंद स्वरूप’ को प्रणाम करते हुए उनके ‘नर रूप की लीला’ का संज्ञान लेते हुए ‘महर्षि वाल्मीकि’ के आश्रम जाने का आदेश दिया। मार्ग बताने एवं साथ चलने को उद्यत ऋषियों को कुमार राम ने विनयपूर्वक मना कर दिया।

सूर्यपुत्री यमुना के तट तक फिर भी हठ पूर्वक आए कुछ ऋषियों को सानुनय वापस कर कुमार राम अपनी भार्या सीता तथा अनुज लखनलाल के साथ यमुना नदी पार कर घने वन के अन्दर अग्रसर होते हैं। उत्तरोत्तर वन सघन होता जाता है। आगे आगे कुमार राम, उनके पीछे जानकी और सबसे पीछे लखनलाल। हिंसक वन्य जीवों तथा संभावित आकस्मिक संकट से बचाव हेतु अति सतर्क एवं सजग रहते हुए वे अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जाते हैं।

वन में उपलब्ध कन्दमूल, फल, शाक तथा सरिता, झरना, सरोवर का जल ही पेय व आहार हेतु उपलब्ध होते हैं। प्रकृति ‘प्रकृति नियंता’ को सामने पा कर उनकी भरपूर सेवा में तत्पर हो गई। फलों से लदे वृक्ष, प्रवाहित निर्मल जल, शीतल मन्द सुगंधित वायु, मार्ग में बिखरे और बिछे पुष्प वन मार्ग को सुगम बना रहे हैं। धरती माता धन्य हुई जा रही हैं।

वन यात्रा में बढ़ते बढ़ते महर्षि वाल्मीकि आश्रम तक आ पहुंचे। महर्षि अपने आश्रम में अन्य ऋषियों के साथ संवाद
कर रहे थे, कुमार राम, देवी सीता और लखनलाल को देखते ही अति आनंदित हो आगे बढ़ते हैं। दोनों कुमार दण्डवत प्रणाम करते हैं, देवी सीता अभिवादन करती हैं। महर्षि प्रमुदित हो कर कहने लगे—‘मैं कब से प्रतीक्षारत था—-‘हे सर्वशक्तिमान’ देवताओं को दिये वचन के अनुरूप ‘अंशों’ सहित आपके ‘अवतार’ के बाद से ही मैं उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। हे जगदीश्वर आपके साथ भूमि का भार हरने हेतु ‘भूमिजा’ के रूप में प्रकट हुई ‘आदिशक्ति’ तथा ‘शेषावतार लखनलाल’ के दर्शन से मैं कृतकृत्य हुआ।

लौकिक रूप में आपकी यह ‘नर लीला’ विभिन्न भावनाओं, कष्टों, वेदनाओं, संवेदनाओं का समग्र रूप प्रदर्शित करते हुए त्यक्तों, परित्यक्तों, सामाजिक वंचितों को अपनाते हुए मानव समाज में ‘मर्यादा’ का एक उदाहरण प्रस्तुत करना तो है ही साथ ही आसुरी शक्ति का संहार कर ‘धर्म की स्थापना’ भी।

कुमार राम के आग्रह पर महर्षि ने अति रमणीक प्राकृतिक स्थान ‘चित्रकूट’ में वनवास का सुझाव दिया।

‘चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ’

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