संगीत
मार्तण्ड पंडित जसराज

नश्वर शरीर त्यागकर अविनश्वर के अंश बन गए पंडित जसराज। अपने सुमधुर कंठ से जिन देवताओं की जीवन भर वे भावपूर्ण अर्चना करते रहे, विलीन हो गए उन्हीं के श्री चरणों में। उनकी भौतिक काया का भले ही अवसान हो गया हो, परन्तु अपनी बहुमूल्य गीत-प्रस्तुतियों के माध्यम से वे सबके मन-मस्तिष्क में बसे रहेंगे; अपनी शिष्य परम्परा में अमर रहेंगे।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व-विश्रुत बनाने में जिन साधकों का अवदान अविस्मरणीय है, उनमें पंडित जसराज अन्यतम हैं। ईश्वर-प्रदत्त आवाज़ और कंठ-संगीत की अनवरत साधना द्वारा देश-विदेश में अपार कीर्ति अर्जित कर उन्होंने भारत-भारती को गौरवान्वित किया।
शास्त्रीय कंठ संगीत के क्षेत्र में पंडितजी ने जहाँ मेवाती घराने की खयाल गायकी को ऊँचाइयाँ प्रदान कीं; वहीं संस्कृत साहित्य, विशेष रूप से आदि शंकराचार्य के अनेक श्लोकों के भावपूर्ण गायन से अपार कीर्ति अर्जित की। भगवान कृष्ण की सुमधुर स्तुति ‘मधुराष्टकम्’ उन्हें विशेष प्रिय थी। हवेली संगीत (पुष्टिमार्गीय साहित्य) की शुद्ध शास्त्रीय शैली को अपनाकर गहन शोध द्वारा पं० जसराज ने अनेक नई बंदिशें निर्मित कीं। भक्तिरस से सराबोर इन बन्दिशों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में आध्यात्मिक क्रांति का बीज-वपन किया। पं० जी ने प्राचीन ‘मूच्छना’ के आधार पर जुगलबन्दी के नए स्वरूप की रचना की, जिसमें एक ही समय में विभिन्न रागों को प्रस्तुत किया जा सकता है। उनके सम्मान में इस अनोखी जुगलबन्दी का नाम ही ‘जसरंगी’ पड़ गया, जो संगीत-जगत की अविस्मरणीय उपलब्धि है।
गुरु-शिष्य परंपरा को अपूर्व ऊँचाई प्रदान करने वाले पंडितजी ने सातों महाद्वीपों में अपनी सांगीतिक प्रस्तुति के द्वारा भारतीय शास्त्रीय संगीत की महिमा को सुप्रतिष्ठित कर एक कीर्तिमान बनाया। पं० जसराज के नाम से सितंबर 2019 में नासा ने एक ग्रह का नामकरण किया। सौर मंडल में मंगल और वृहस्पति के बीच रहते हुए सूर्य की परिक्रमा करने वाला यह ग्रह उनकी साधना की वैश्विक स्वीकृति का अमिट आधार है।
‘जयहिन्द’ एवं ‘तिरंगा’ प्रस्तुतियों के माध्यम से पंडितजी ने एक तरफ राष्ट्रीयता को संगीत से संबद्ध किया तो दूसरी तरफ विश्व पर्यावरण से संबन्धित ‘पंचतत्व’ कार्यक्रम के माध्यम से उनका पर्यावरण-प्रेम उजागर हुआ। गुजरात भूकंप एवं अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के पश्चात् शांति हेतु किए गए दो संगीत-यज्ञ मानवता के प्रति उनके अनुराग को दर्शाते हैं। ‘संगीत मार्तण्ड’ पंडित जसराज ने संगीत की शास्त्रीयता को भक्ति की भावाकुलता से जोड़कर विराट मानव-समुदाय को अध्यात्म की जो सुरीली भावभूमि प्रदान की, वह विरल एवं विशिष्ट है।
संगीत के ऐसे शीर्ष साधक की सहृदयता का एक प्रसंग मेरे लिए अविस्मरणीय है। कोलकाता की प्रसिद्ध संस्था श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय ने 2014 ई. में ‘राष्ट्रीय शिखर प्रतिभा सम्मान’ हेतु पंडितजी का चयन किया था। संस्था की ओर से संयोजक श्री कृष्ण स्वरूप दीक्षित ने मुंबई जाकर उनसे औपचारिक अनुमति भी प्राप्त कर ली थी। हम सभी उनकी स्वीकृति से परम आनंदित थे; परंतु आयोजक के रूप में हमारे मन में दो चिन्ताएँ थीं। पहली, पंडितजी की प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्यक्रम की अध्यक्षता किससे कराई जाय ? और दूसरी, उन जैसे शीर्ष संगीत साधक का गरिमापूर्ण सम्मान कैसे निर्विघ्न सम्पन्न हो ?
स्वर-सम्राज्ञी पद्मभूषण श्रीमती गिरिजा देवी ने कुमारसभा पुस्तकालय तथा मेरे प्रति विशेष स्नेह-सद्भाव के कारण उसी शाम जोड़ासाँको ठाकुर बाड़ी में अपने गायन के कार्यक्रम के बावजूद प्रातः 11 बजे के इस आयोजन में उपस्थित रहने की स्वीकृति देकर हमारी पहली व्यग्रता को दूर कर दिया।
अब दूसरी चिन्ता थी कार्यक्रम को पंडितजी की मर्यादा के अनुकूल सुसम्पन्न करने की। श्रीमती गिरिजा देवी (अप्पाजी) ने मुझे सदैव वात्सल्यपूरित स्नेह दिया है। उनकी बेटी सुधाजी के सहपाठी होने के कारण मुझे पारिवारिक अंतरंगता सहज सुलभ रही है। इसी का लाभ उठाते हुए मैंने अपनी उद्विग्नता व्यक्त कर दी। ‘अप्पाजी’ ने कहा, ‘मैं कार्यक्रम में उपस्थित रहूँगी ही; जसराज जी मुझे बड़ी बहन का मान देते हैं, कोई असुविधा नहीं होगी।’ इसी क्रम में उन्होंने पंडितजी की साहित्यिक अभिरुचि का संकेत देते हुए यह भी बताया कि वे ब्रजभाषा की राधा-कृष्ण केन्द्रित रचनाओं के बड़े प्रशंसक हैं। वे ‘जसराज’ ही नहीं ‘रसराज’ भी हैं।
कार्यक्रम के एक दिन पूर्व हमलोग ‘एअरपोर्ट’ पर उनकी अगवानी करने पहुँचे। स्मित मुखमंडल की आभा से मंडित तेजस्वी व्यक्तित्व का सान्निध्य पाकर हम सभी अभिभूत थे। परिचय प्राप्त करने के बाद उन्होंने बड़ी सहजता से स्वयं गाड़ी में आगे बैठने की बात कही, और हमलोग हवाई अड्डे से रवाना हुए। बातचीत का क्रम चल पड़ा और उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की, कि ‘गिरिजा बहन’ (श्रीमती गिरिजा देवी) समारोह की अध्यक्षता कर रही हैं।
समारोह होली के उपरान्त 23 मार्च 2014 को था, अतः स्वाभाविक रूप से मैंने पद्माकर के प्रसिद्ध छंद ‘लला फिरि आइयो खेलन होरी’ की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने पूरा छंद रुचिपूर्वक सुना और मेरे साथ कुछ पंक्तियाँ दुहराईं भी। मुझे सहज ही अनुभूति हो गई कि पं० जी को चर्चा में रस प्राप्त हो रहा है। वार्ताक्रम को आगे बढ़ाते हुए मैंने पद्माकर के छंद के समानांतर आत्मप्रकाश शुक्ल के उस छन्द का उल्लेख किया, जिसमें राधा की इस ‘बरजोरी’ का उत्तर कृष्ण द्वारा दिया गया है। छन्द उन्होंने सुना और आत्मप्रकाश शुक्ल रचित छंद की अंतिम पंक्ति “घर जाहु लली अब है गई होरी’ सुनकर उल्लसित हुए। साथ ही उन्होंने रसखान, बिहारी आदि कवियों को भी याद किया। उनकी साहित्यिक अभिरुचि देखकर मेरा संकोच दूर हो गया। साथ ही दूर हो गया वह भाव भी, जो किसी अति विशिष्ट व्यक्ति के निकट जाने में हर सामान्य व्यक्ति के भीतर पनपता है।
बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा- ‘अति विशिष्ट जनों से मिलने में मुझे सदैव संकोच होता है। बशीर बद्र साहब ने कहा भी है- ‘बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फासला रखना / जहाँ दरिया समंदर से मिला, दरिया नहीं रहता।’ इसे सुनते ही पंडितजी पीछे घूमे और मुस्कराते हुए उन्होंने मुझसे कहा- ‘देवी सरस्वती के मंदिर के हम सब पुजारी हैं, यहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।’ उन्होंने मुझसे इसे फिर सुनाने का आग्रह किया और कहा, “कल कार्यक्रम में आप मुझे पूरी ग़ज़ल लिखकर दे दीजिएगा। साहित्य संगीत की यही सरसता तो हमें मनुष्य बनाती है- ‘साहित्य संगीत कला विहीनः / साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीनः।”
इस प्रथम मुलाकात के छोटे से कालखंड ने आयोजक के रूप में मेरे तनाव को शिथिल कर दिया। अगले दिन कार्यक्रम अत्यंत आत्मीय वातावरण में सम्पन्न हुआ। पंडितजी ने सम्मान ग्रहण करने के बाद अपने उद्गार में कहा भी- ‘मुझे देश-विदेश में अनेक सम्मान मिले हैं, परन्तु यह सम्मान मेरे लिए विशेष महत्त्व का है क्योंकि यह मुझे बहन गिरिजादेवी के हाथ से प्राप्त हुआ है। इसमें उनका आशीर्वाद भी समाहित है।’ उस भावपूर्ण वक्तव्य में पंडितजी ने एक दिन पूर्व मेरे साथ हुई साहित्यिक चर्चा का भी उल्लेख किया, बशीर बद्र का वह शेर भी सुनाया और जोड़ा- ‘इन पंक्तियों को भी मैं अपने साथ लिए जा रहा हूँ।’ मेरे लिए वह क्षण अत्यंत रोमांचक था। उन्होंने कलकत्ते के साथ अपने लगाव के कई प्रसंग सुनाए तथा अपनी संगीत-यात्रा के सोपानों का भी उल्लेख किया। इस प्रकार पुस्तकालय का यह ‘राष्ट्रीय शिखर प्रतिभा सम्मान’ अविस्मरणीय बन गया।
पंडितजी की दैहिक काया का भले ही अवधान हो गया है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसी विभूतियाँ कभी दिवंगत नहीं होतीं; अपनी कीर्ति में सदैव जीवित रहती हैं। ऐसे साधकों का यशः शरीर न कभी वृद्ध होता है और न ही मरणधर्मा होता है- ‘नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजं भयं।
और अंत में स्वरचित दोहे के साथ निवेदित है भावपूर्ण श्रद्धांजलि :
अविरल अनुपम साधना, प्रभु प्रदत्त आवाज़ ।
शिखर कंठ संगीत के, स्वर-साधक जसराज ।।