उठनेके पहलेही में ,

में अनगिन बार गिरा हूँ

– राकेश शंकर त्रिपाठी, कानपुर.

आशाओं की डोरी से, लिपटी हुई लटाई थी;
मैं पतंग सा डोल रहा, बड़ी विकट पुरुवाई थी;
जीवन के हाथों से हमने, कितनी ठुमकी खायी हैं;
कभी ढील तो कभी ढिलाई, सभी खींच कर लायी हैं;
डोर नहीं मेरे हाथों में, मैं कठपुतली सा नाच रहा;
ऊंचा उड़ने की चाहत में, इधर उधर मैं भटक रहा;
जीवन की पेंचों में फँस कर, मैं कितनी बार कटा हूँ।
उठने के पहले ही मैं, मैं अनगिन बार गिरा हूँ।।

देखे हमने ख्वाब सुनहरे, जीवन की अरुणाई में;
नयी दिशायें नई उमंगें, नव ऊर्जा तरुणाई में;
कैनवास में चले तूलिका, निखरे रंग जमाने में;
बड़े पटल पर उभरे आकृति, जीवन अलख जगाने में;
स्वप्न सुनहरे अद्भुत नभ हो, हो जीवन सब हरा भरा;
रंग बिरंगे बागों से, होती पुष्पित रहे धरा;
शुभ्र ज्योत्स्ना की चाहत में, अनगिन काली रात जिया हूँ।
उठने के पहले ही मैं, मैं अनगिन बार गिरा हूँ।।

पुलकित तन मन रहे प्रफुल्लित, फिर जीवन से लड़ूँ लड़ाई;
फिर ऊर्जा से ऊर्जित हो, फिर से यौवन ले अँगड़ाई;
फिर बाधाओं की दौड़ों में, बाधाओं को पार करूँ;
ओंकार के शंखनाद से, कुरूक्षेत्र संघर्ष करूँ;
ऊसर बंजर माटी में, ईच्छाओं की फसल उगे;
फिर बसंत की बासंती में, अलसाई सी नींद जगे;
बागों में उगने से पहले, पतझड़ सा ही उजड़ा हूँ।
उठने के पहले ही मैं, मैं अनगिन बार गिरा हूँ।।

अरुणिम प्रभात की आशा, उत्कर्षों का सागर हो;
प्रबल प्रखर दृढ़ जीवन सा, मधुमय सुन्दर आँगन हो;
धुन सागर की लहर लहर सा, गूँजे नाद जमाने में;
मुट्ठी में किस्मत हो अपनी, भाग्य दबा हो काँखों में;
इंद्र धनुष के रंगों से, जीवन का प्रति भाग सजे;
सप्त सुरों के सरगम सा, जीवन का प्रति राग बजे;
अमृत पीने की चाहत में, विष के कितने घूँट पिया हूँ।
उठने के पहले ही मैं, मैं अनगिन बार गिरा हूँ।।