दिनेश गंगराड़े इंदौर
चुनाव याने चुनना अन्धों में एक काणे को, महान नेता को जो पांच साल जनता को उल्लू बना सके। चुनना सरकार का जो करोड़ों रूपये का चूना लगा सके, प्रजातंत्र की हिचकोले खाती नाव को बेड़ापार कर सके। डेमोक्रेसी कैसे किनारे लगे ? नेताओं का जनता के सम्मुख “कैसे नाचूं की रिहर्सल ? जनता चाहे वैसा नाचना, जनता के वशीभूत होकर झूठे वादे करना। असंभव काम में भी इस दौरान ना न कहना। गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए इन नेताओं को देखना ही चुनाव है। यूँ तो समूचे सेवाकाल में सरकारी कर्मचारी लापरवाही, उदासीनता, काम टालने की प्रवत्ति से ही अपनी नौकरी बजाता है। नौकरी काल में ये वीरपुरुष समय कैसे बिगाड़ना इस मुद्दे पर तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं। सरकारी नौकरी या सरकारी काम याने वह काम जो सरक-सरक कर संपादित हो जिसमे दो पैसों की जगह दस पैसे लगें, जिसमें गुणवत्ता कतई ठीक न हो, जो घटिया होकर ज़्यादा दाम से भुगतानित हो, जो कमीशनखोरी से संलिप्त हो, जो निम्न स्तर की होकर जनता में उच्च स्तर या ए ग्रेड की लगे, ऐसे काम जो बनने के चंदरोज़ बाद ही उखड़ने लगें, जो आमजन की निगाह में हिकारत से देखे जाएं, जिनपर सरकारी काम का ठप्पा लगा हो जो बेहद अनुपयोगी, बेढंगी, बेकाम, बेमज़बूत, फोसरी, भरभराकर ढहनेवाली, कच्ची, बेबुलंद इमारत हो ये सब सरकारी काम को इंगित करता है।
जिसे देखकर व भोगकर जनता कलपती, कोसती, चिल्लाती रहे। वो शासकीय कार्य जिसमें बाधा डालने का मतलब लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के बाद “सजायाफ्ता” बनना तय है। ऐसे कर्मठ सेवाभावी का सरकारी नौकरी में आना आजकल बेहद कठिन, असंभव व अकल्पनीय है। जो इसे पा गए वे भाग्यशाली, कर्मवीर (?) प्रतिभाशाली, विरले युगपुरुष हैं। 10-20 साल पहले तक सरकारी नौकरी का अपना अलग रुतबा था। अब थोड़ा फीकापन आया है।
सरकारी अमलों के इन वीरपुरुषों की औकात, कार्यक्षमता, साहस, विवेकशीलता चुनावों के समय दिखती है जब किसी “गवर्नमेंट सर्वेंट” की ड्यूटी इलेक्शन में लग जाती है। चुनावी ड्यूटी की कल्पना मात्र से ही हमारा कर्मठ, करूँ कर्मचारी हिलने को लगता है। चुनाव की घोषणा के साथ ही इलेक्शन ड्यूटी का हव्वा इस कदर छाया रहता है कि आदेश आते ही कर्मी के होश उड़ जाते हैं और वो घायल पंछी की तरह फ़ड़फ़ड़ाने लगता है। चुनावी सेवा किसी भी कर्मचारी-अधिकारी के लिए जानलेवा एक्सिडेंट से कम नहीं है। ये वो कड़वी गोली है जिसे न चाहते हुए भी निगलना सरकारी कर्मी की मज़बूरी है। कर्मी के शरीर के सारे गंभीर रोग इलेक्शन ड्यूटी के आदेश से चंद दिनों के लिए फ़ना हो जाते हैं। जिसके न आने की अगरबत्ती वो ईश्वर के सामने कई वर्षों से लगाता आया है। चुनाव चाहे कोई भी हो उसकी घोषणा होते ही कर्मियों की नींद उड़ जाती है। उनका जीवन चक्र ख़ौफ़ खाने लगता है, वे तनावयुक्त होकर ‘ऊपर-नीचे’ होने लगते हैं। उनकी पूजा-पाठ यकायक बढ़ जाती है। वे इससे मुक्ति के हथकंडे अपनाने लगते हैं। अच्छे-अच्छे सूरमाओं को चुनाव के वक्त अचानक गंभीर, जानलेवा बीमारी पनप जाती है। वे गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती होने की सोचने लगते हैं। वे इस धरा से चंद दिनों के लिए “उठने” की दुआ करने लगते हैं। बस चुनाव समाप्ति तक वे डायबिटीज़, बीपी, कैंसर ग्रस्त होना चाहते हैं। सैकड़ों कर्मचारी निर्वाचन से मुक्ति के आवेदन दफ्तरों में लगाते हैं पर ये “मेडिकल बोर्ड” इन सब पर पानी फेर देता है। ये मेडिकल बोर्ड किसने बनाया होगा यार इस पर ‘चिंतन’ होने लगता है। बड़ी कोफ़्त होती है। “मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है निर्वाचन से तू बच जाए ये ख्याल झूठा है”। सारे दांव-पेंच आजमाने के बाद जब निर्वाचन ड्यूटी केंसिल नहीं होती तब इस बेचारे की कुछ दिन मर जाने की “ललक” बढ़ जाती है। किसी भी चुनाव के वक्त सबसे दबंग कर्मचारी भी बेचारा मेमना बन जाता है। उसकी सारी कार्यक्षमता “सिफर” होने लगती है। इस दौरान उसकी गुर्राहट, रिरियानेपन में बदल जाती है ताली से डरने वाले मेमनों की मानिंद, चुनावपूर्व दहाड़ने वाले कर्मी बकरी की तरह मिमियाने लगते हैं। जगत मिथ्या है, कोई किसी का नहीं होता है, सब पैसों का खेल है भैया, सब देखने के हैं – ऐसे ख्याल आने लगते हैं। चुनाव इन्हे सर्जिकल स्ट्राइक से नजर आते हैं। कई बार घोर निराशा व्याप्त हो जाती है।मैजिक मेन (चुनाव आयोग) के सामने सगले कर्मी मेमने से अथवा “जमूरे” से नज़र आते हैं, पर मरता क्या न करता ये सोचकर ये बेचारा (?) गरीब सरकारी कर्मी अपने आप को संभालता है, चुनावी समर में खुद को झोंकने की हिम्मत जुटाता है। डरते-डरते, दिल से रोते-रोते पर ऊपर से नकली हंसी हँसते हुए चुनाव का दूसरा प्रशिक्षण लेता है। खुद को इलेक्शन ड्यूटी के लिए तैयार करता है। मन को समझाता है “रोज़ी रोटी का अपमान नहीं करना चाहिये। इससे ही दाल-रोटी है भैया” ये विचारकर खड़ा होता है। अपनी अटैची, बैग, थैला टटोलता है। समर की तैयारी करता है, मन को कठोर बनाता है, खुद को संबल देता है। इष्टदेव को मनाता है, घरवाली पर चिढ़ता है, कुछ दिन “अपसेट” रहता है। पर, अंततोगत्वा चुनावी मतदान दल में किसी भी पद पर काम करने को किसी योध्दा की भांति तैयार होता है। नास्तिक भी तब बार-बार ईश्वर को याद करता है। चुनाव की नाव बेड़ा पार करने की प्रार्थना करता है। चुनाव के तीन दिन पहले से ही ‘क़यामत’ आ गई सोचकर घर से खाने का टिफिन रखकर “कूच” करता है। जंग ए चुनावी ड्यूटी शुरू होती है। काउंटर पर सामान लेने से पहले चारो योध्दा एक जगह एकत्रित हो कर आखिरी बार अपने कुलदेवता का स्मरण करते हैं। बड़ा योध्दा (पी ओ) सामान काउंटर पर प्रगट होता है। सरकार की चुनावी विस्फोटक सामग्री वोटर लिस्ट, इ वी एम्, अमीट स्याई, 4-6 दर्जन प्रपत्र लिफाफे, चिन्ह वगैरा की सामग्री बम-गोलों की तरह न चाहते हुए भी लेता है।युध्दस्थल पर ही इन विस्फोटक सामग्रियों का मिलान किया जाता है। इन प्राणलेवा सामान की हिफाज़त करनेवाले बुज़ुर्ग-कमज़ोर पुलिस “जवान” (?) से परिचय कर उससे अभिरक्षा का वचन लेकर ‘सेना की ये टुकड़ी रणभूमि में प्रवेश करती है। आयोग के तयशुदा उड़नखटोले (बस) में बैठते ही इन सैनिकों का समर शुरू हो जाता है। कोटवार, बीएलओ के साथ चुनावी युध्द की दुदुंभी बजती है। मुक़र्रर युध्द (मतदान) के दिन चारों वीर सैनिक जो रातभर न सोए हों बड़े सबेरे नहा-धोकर अपनी ड्यूटी पर मुस्तैदी से खड़ा होता है। चुनावी बिगुल के साथ एक-एक मतदाता अपने-अपने तीर छोड़ता है मतबल वोट डालता है। बीच-बीच में मतदान एजेंट, जोनल सेक्टर अफसर बार-बार खलल डालते हैं। भारी मारामारी, तनाव, शोरगुल व चिल्लपों के बीच मत का “दान” होता है। कई बुज़ुर्ग-युवा अपने वोट का इस्तमाल करते हैं। 8 घंटे की सतत दान प्रक्रिया चलती है जिसमें कई मर्तबा लोकतंत्र का दम घुटता है कई बार डेमोक्रेसी ज़िंदा होती है। लोक,तंत्र का गठन करने में व्यस्त रहता है इधर चुनावी सैनिक अपनी मारक ड्यूटी में ? समय के 8 घंटे कब बजते हैं इसका पता नहीं चलता है ? मतदान के इंतकाल के बाद “पार्टी” को थोड़ी राहत नसीब होती है। मशीन को लॉक कर मतदान टीम 4-6 दर्जन फार्मो का पेट पीओ भरता है। चुनाव की जान इवी मशीन को सील करता है। आंकड़े बताता है। निर्धारित रुट व खटोले से वापस लौटता है। सफ़र में सबके सब कर्मी “डर के आगे जीत है” के फार्मूले पर अपनी-अपनी डींगे हांकते हैं। खुद को स्मार्ट बताते हैं। “गंगा घोड़े नहाये” की सोच के साथ बतियातें हैं। खुद की जान से ज़्यादा कीमती चुनावी सामान को काउंटर पर जमा करते हैं। सोचते हैं — हम न होते तो प्रदेश-केंद्र सरकार का गठन कैसे होता ? लोकतंत्र ज़िंदा कैसे रहता ? डेमोक्रेसी कैसे फलती-फूलती ?
सप्ताहभर से अरबों का टेंशन झेलकर खुद के मान का मर्दन कर सैकड़ों रुपये का “मानदेय” पाता है। ईश्वर से मिन्नतें करता है कि “अ” की या “ब” की अथवा “अ-स” की सरकार बन जाए। 5 साल चले, गिरे, पड़े पर चुनाव से पांच वर्ष तक पाला न पड़े ? अंत में इन्ही होनहारों को सामग्री काउंटर से “गणना सहायक” का आदेश मिलता है मानो सिर मुंडाते ही ओले पड़े। वे 4-५ दिन बाद गणना करते हैं और झूठे उससे कम फरेबी, सबसे ज़्यादा झूठे की गवर्मेन्ट बन जाती है, जिसे चुनते हैं वो ही कर्मचारियों की मांग सुनने की बजाय लाठीचार्ज करती है। फिर सन्नाटा पसर जाता है। अगले चुनाव में ड्यूटी न लगे इस हेतु कुलदेवता के सामने अनुष्ठान कराने की सोचता है। सरकार, आयाराम की बने या गयाराम की अथवा मायाराम की इन्हें कोई लेना-देना नहीं है। नेता चाहे दयाराम चुने या ढेलाराम अथवा गंगाराम इन्हे क्या “लीजे-दीजे” ? ये बस चुनावी भुत, इलेक्शन ड्यूटी से बचना चाहते हैं ?