महारानी अहिल्याबाई होल्कर : अविस्मरणीय प्रजावत्सल व्यक्तित्व

"परहित सरस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।" श्री रामचरितमानस से उद्धृत ये अति पावन पंक्तियाँ पिता माणकोजी शिन्दे तथा माता सुशीला की सुपुत्री तथा इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर (31 मई 1725 से 13 अगस्त 1795) के विराट व्यक्तित्व पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। गयाजी अवस्थित श्री विष्णुपद मंदिर की निर्मात्री देवी अहिल्याबाई का गयाधाम पर जो उपकार है, वह हर किसी के लिए प्रेरणा स्रोत है, प्रणम्य है। पितृपक्ष के समय तो फल्गु नदी और विष्णुपद मंदिर का महत्व और भी बढ़ जाता है। महारानी अहिल्याबाई प्रारंभ से ही एक अत्यंत धार्मिक स्वभाव की महिला रहीं। यह उनकी उदार धार्मिक प्रवृत्ति ही थी, जिसने उन्हें एक गरीब साधारण से परिवार में पली - बढ़ी बालिका से महारानी बना डाला। उनके प्रति अति स्नेह रखने वाले श्वसुर मल्हारराव, पति खण्डेराव, पुत्र मालेराव तथा पुत्री मुक्ताबाई की मृत्यु से उत्पन्न असीम दुःखों को झेलने के उपरांत भी अहिल्याबाई ने अपने भीतर देश-समाज की सेवा की भावना को जीवित रखा; तथा आजीवन ही, वे मनसावाचाकर्मणा धर्म, साहित्य तथा कलाओं की समर्पित संरक्षिका बनी रहीं। अठारहवीं शताब्दी में, जब महिलाओं के जीवन का मूल उद्देश्य घर की चाहारदीवारी में बंद रहकर सास-ससुर, पति तथा पुत्र की सेवा-शुश्रूषा तक सीमित था, देवी अहिल्याबाई ने एक विधवा होकर भी, लीक से अलग हटकर नारी-शक्ति के समाजसेवी रूप को जीवंत किया। महारानी ने अपने धर्म-उत्प्रेरित सुकर्मों के माध्यम से ईश्वर में अपनी अटूट आस्था को हमेशा अटल बनाये रखा। प्रिय परिजनों की मृत्यु के उपरांत भी ईश्वर के प्रति उनकी आस्था अडिग बनी रही और वो लोकहित में मंदिर एवं देवालयों का निर्माण करवाती रहीं।

तब तो आज इक्कीसवीं सदी में भी उनकी गरिमा ज्यों-की-त्यों बरकरार है। एक समृद्ध राज्य की महारानी होने पर भी उन्होंने स्वयं को सुख-वैभव-विलासिता से सदैव दूर रखा। निष्काम सेवा करके प्राप्त शुभकामना और दुआएँ ही उनके जीवन की अनमोल निधियाँ थीं। उनके पास से कोई भी याचक दुःखी होकर नहीं लौटता था। सूर्योदय से पूर्व जागकर नर्मदा-स्नान के उपरांत वे पूजन किया करती थीं। तत्पश्चात धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन द्वारा वह अपने द्वारा किये जा रहे कर्मों का आत्ममूल्यांकन करती थीं। उनका धर्म पुस्तक के पृष्ठों तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने धर्म के मर्म को अपने कर्म में शामिल करके हमेशा एक आदर्श शासिका का जीवन जिया। प्रजा के सुख से बढ़कर उनके लिए कुछ भी नहीं था। प्रजा ही उनकी संतान थी, उनका सर्वस्व थी। उन्होंने प्रजा को सुखी रखना ही अपने जीवन का परम लक्ष्य बना रखा था, तभी तो अपने व्यक्तिगत दुःखों के कंटकों को उन्होंने अपने कर्तव्यपथ पर कभी भी बिछने नहीं दिया। इंदौर की महारानी का कर्मक्षेत्र महज अपने राज्यक्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने पूरे भारतवर्ष में मंदिर, घाट, धर्मशालाएँ, कुएँ आदि बनवाये, जनता की भलाई को मद्देनज़र रखते हुए निर्माण कार्य हेतु हृदय खोलकर धन का दान किया। उनकी यही उदारता उनके महामानवी होने का साक्ष्य है।

माता अहिल्याबाई द्वारा निर्मित मूर्तियाँ, मंदिर तथा तीर्थस्थल अत्यंत सुंदर, भव्य तथा सुदृढ़ हैं। सभी अपने आप में भारतीय वास्तुकला तथा शिल्पकला के नायाब उदाहरण हैं। स्वयं शिव की उपासिका होने के कारण उनके द्वारा सर्वाधिक संख्या में शिव मंदिरों का निर्माण करवाया जाना स्वाभाविक है, किंतु उन्होंने विभिन्न धार्मिक मतावलंबियों के लिए भी देवी-देवताओं के अनेक प्रतिष्ठित मंदिर बनवाये। श्री बद्रीनारायण, श्री द्वारका, श्री रामेश्वर, श्री जगन्नाथ पुरी, सौराष्ट्र, श्री शैल मल्लिकार्जुन, ओंकारेश्वर, परली बैजनाथ, काशी, त्रयंबकेश्वर, घृष्णेश्वर, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, अवन्तिका (उज्जैन), चित्रकूट, पुष्कर, एलोरा, भुसावल, पुणताम्बे, भरतपुर, नाथद्वारा (राजस्थान), टेहरी (बुंदेलखंड), बुरहानपुर, बेरुल, नैमिषारण्य, संवलग्राम, प्रयाग, अमरकंटक, पंढरपुर, चौंडी, केदारनाथ, नासिक, ऋषिकेश, गंगोत्री, इंदौर, गया, आदि जैसे अनेक स्थानों पर देवी अहिल्याबाई ने जनहित में मंदिर, धर्मशाला, कुंड, घाट आदि बनवाये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अहिल्याबाई ने जो भी निर्माण कार्य करवाये, उनके पीछे सत्ता, वैभव, तथा राजसी ठाठबाट का प्रदर्शन करना नहीं रहा। उनका हर कार्य लोकहित की भावना से अनुप्रेरित था। उनका हृदय मानवीय संवेदनाओं और राष्ट्रीय सौहार्द्र का आगार था। गया जी अवस्थित श्री विष्णुपद मंदिर व सभा मंडप का निर्माण करके तो देवी अहिल्याबाई ने अपने पितरों के प्रति सबसे अच्छी और सबसे सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की। उनकी कृपा से अनेक प्रतिभाशाली शिल्पियों, कलाकारों और मजदूरों को रोजगार प्राप्त हो सका।

महारानी ने मंदिरों में पूजा-अर्चना हेतु उच्चकोटि के धर्मज्ञों, विद्वानों तथा पुजारियों की भी नियुक्ति की। संगीत और साहित्य की समृद्धि हेतु भी महारानी ने अनेक यत्न किये। धर्मशास्त्र, कर्मकांड, वेदांत, व्याकरण, ज्योतिष विद्या आदि के विद्वानों को भी उन्होंने यथोचित मान-सम्मान और प्रोत्साहन दिया। उन्होंने देश भर से तरह-तरह की विद्याओं में प्रवीण पंडितों को आमंत्रित करके महेश्वर में बसाने का अति प्रशंसनीय कार्य किया। वह स्वयं भी मराठी, संस्कृत, हिंदी व मोड़ी भाषा अच्छी तरह लिख-पढ़ और समझ लेती थीं। उन्होंने संस्कृत भाषा में 'अहिल्या-कामधेनु' नामक एक ग्रंथ भी लिखा था। समय-समय पर योग्य पुजारियों, कवियों, लेखकों, गायकों व कीर्तनकारों को पुरस्कृत करना भी उनकी शासन-पद्धति में शामिल था। यह संपूर्ण नारी जाति के लिए कितने गौरव और सुखप्रद आश्चर्य का विषय है कि जहाँ अठारहवीं सदी में विधवाएँ पति की चिता के साथ सती हो जाना ही अपने जीवन का अंतिम प्रारब्ध समझती थीं, देवी अहिल्याबाई ने अपने श्वसुर मल्हारराव के अनुरोधानुरूप दिवंगत पति के अधूरे कार्यों और कर्तव्यों को पूर्ण करना ही अपने जीवन का परमोद्देश्य मान लिया। इस एकनिष्ठ प्रजावत्सलता के कारण ही देवी अहिल्याबाई को माता अहिल्याबाई भी कहकर बुलाया जाने लगा। उनकी प्रजा को बाहरी शत्रुओं, चोर-डाकुओं तथा राज्य के अधिकारियों से कोई ख़ौफ़ नहीं था। महारानी एक अति कुशल निर्भीक शासिका के रूप में जनता की सभी समस्याओं का निराकरण करने की हर संभव कोशिश करती रहीं।

सत्य है कि किसी व्यक्ति का नाम समय के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से तभी अंकित हो पाता है, जब वह निष्काम भाव से जन-हितार्थ कार्य करता है, परोपकार करता हुआ ही मृत्यु को प्राप्त होता है। महारानी अहिल्याबाई भी आजीवन तन-मन-धन से देश तथा समाज का कल्याण करती रहीं। उनके द्वारा किये गये लोकहितकारी कार्यों को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। महारानी अहिल्याबाई होल्कर का प्रजावत्सल व्यक्तित्व युग-युगांतर तक अविस्मरणीय रहेगा।

डॉ. कुमारी रश्मि प्रियदर्शनी, गया