अनंत जलराशि से उठती उत्ताल तरंगें तट पर एक प्रहार सा करते हुए लौट जाती हैं। यदा कदा वेग से उठती लहरें तट के काफी अंदर तक अपना फैलाव ले लेती हैं। निःशब्द वातावरण को हहराते, गरजते समुद्र की लहरें भेद रही हैं। सागर तट पर स्वभाव से चंचल असंख्य वानर दल होते हुए भी निस्तब्धता है। वानर छोटे छोटे झुंड बनाए बैठे हैं। अचानक एक बड़ी लहर उन तक आने पर और दूर हट कर बैठ जाते हैं। इस उपक्रम से नीरवता कुछ भंग हुई। आपस में चर्चा चली कि पवन सुत इतने दिन हो गए वापस नहीं लौटे हैं। उनमें चिन्ता, उद्विग्नता और आशंका स्पष्ट झलक रही है। सभी टकटकी लगाए आसमान की ओर देख रहे हैं।
व्यग्रता अधिक हो जाने पर वे उस स्थान की ओर जाते हैं जहां से मारुति नन्दन ने लंका की तरफ जाने के लिये छलांग लगाई थी। अन्य वानर भी साथ-साथ चलने लगे। वहां ऋक्षराज जामवंत, युवराज अंगद, नल, नील आदि वानर और रीछ दल के नायकों के साथ बैठे थे। वानरों ने उनको भी चिंतित मुद्रा में कभी आकाश, कभी सागर तथा कभी छलांग स्थल को निहारते देखा।
यद्यपि पवन पुत्र ने अपने अभियान में जाने से पहले सभी से आग्रह किया था कि उनके लौटने तक वे कष्ट सहते हुए भी फल और कंदमूल का आहार लेते रहें किन्तु किसी ने कोई आहार नहीं लिया जिसके कारण कपि दल शारीरिक रूप से कुछ श्लथ अवश्य हो गए थे। पवन सुत की सकुशल एवं सफल यात्रा हेतु वे प्रार्थना कर रहे थे।
सहसा एक कपि ने जामवंत जी से प्रश्न किया--ऋक्षराज, कपिश्रेष्ठ हनुमान इतने दिन हो गए अभी तक नहीं लौटे हैं, वे सकुशल तो होंगे, जिस अभियान में वे गए हैं उसमें सफलता तो मिलेगी ना। सम्पाती जी से ही सुना है कि समुद्र बीच स्थित लंका एक दुर्ग की तरह है। विशाल परकोटों से घिरी लंका के प्रवेश द्वार पर विकट राक्षस पहरेदार हैं और जिनका भोजन हम वानर आदि भी हैं, क्या पवन तनय ऐसी कठिन परिस्थितियों में अपने को सुरक्षित रखते हुए माँ जनक नन्दिनी तक पहुंच पाएंगे। जितना विलंब होता जा रहा है उद्विग्नता बढ़ती जा रही है। हम सभी देख रहे हैं आप और अन्य वानर श्रेष्ठ भी वैसे ही आशंकित लग रहे हैं।
जामवंत जी ने वानर समूह को इतना चिंतित देख बड़ी ही धीर गंभीर वाणी में समझाया - हे वानरों, आप सब अधिक चिन्ता न करें। पवन पुत्र को देवताओं द्वारा वर प्राप्त है, उनमें अतुलनीय बल है, बुद्धिमान, ज्ञानवान, सारे गुणों की खान तो हैं ही साथ ही प्रभु श्री राम की उन पर साक्षात कृपा है। निःसंदेह वे अभीप्सित कार्य सिद्ध करने की प्रक्रिया में होंगे। आप सभी को स्मरण होगा उनका वह स्वर्ण पर्वत के समान तेजोमय विशाल शरीर, जब मैंने उन्हें उनका विस्मृत बल याद दिलाते हुए कहा था कि आपका अवतार राम काज के लिए ही तो हुआ है। अपने बल को भूले हुए विनम्र मूर्ति हनुमानजी सर्वदा राम नाम जप का रक्षा कवच धारण किए हुए हैं। रावण या उसकी सेना द्वारा लंका में माँ सीता तक पहुंचने में पवन पुत्र के लिये कोई बाधा नहीं हुई होगी। आप सभी को स्मरण होगा किस प्रकार छलांग लगाने के पूर्व उन्होंने हुंकार भरते हुए गर्जना की थी। वानर जामवंत जी की बातें सुन कुछ आश्वस्त हुए।
सहसा विचित्र गर्जन तर्जन सुन सभी चौंक पड़े, वेग से हवाऐं चलने लगीं, समुद्र की लहरें अधिक औऱ अधिक उत्ताल हो गईं। अचानक हुए इस प्राकृतिक परिवर्तन से सब के सब सहम से गए और शिलाओं की ओट हेतु भागने लगे। इस आकस्मिक परिवर्तन के बीच महानाद सा गर्जन सुनाई पड़ा। जामवंत जी उद्घोष सा करते बोल पड़े--अरे ये तो मारूति नन्दन हैं- वे पधार रहे हैं- उनके गर्जन के आभास से ही स्पष्ट है कि वे कार्य सिद्ध कर लौट रहे हैं।
विभिन्न रंगो के बादलों और यदा कदा बिजली सी चमक के बीच हनुमानजी की आकृति कुछ कुछ स्पष्ट होने लगी। सभी वानर और रीछ उत्साह से 'जय श्री राम' 'जय श्री राम' कहते-कहते उछलने और नाचने लगे। इस नाद के साथ ही उनकी चिंता, उद्विग्नता एवं शारीरिक श्लथता सब दूर हो गई। पवन पुत्र जैसे-जैसे रंग बिरंगें बादलों को चीरते तट की ओर आ रहे थे उनका स्वर्ण पर्वत के समान शरीर और सिंह सी गर्जना और स्पष्ट होने लगी। उत्साह, आनंद एवं हर्षातिरेक से वानर दल प्रभु श्रीराम की, मारुति सुत की जयजयकार करते हुए तट की ओर भागने लगे। महावीर की प्रतीक्षा में बीते दुःख के पल अब उल्लास के क्षण हो गए।
हनुमानजी ने सबसे प्रेम से मिलकर जामवंत जी समेत सभी को अपनी यात्रा का विवरण सुनाया। सभी अति प्रसन्न हो पवन तनय की प्रशंसा करने लगे, तभी ।
मारूति सुत ने श्लथ हुए वानरों से उनकी इस स्थिति का कारण जाना तो बताया गया कि जबसे उन्होंने लंका हेतु प्रस्थान किया था तबसे किसी ने कोई आहार नहीं लिया था। सभी उनकी सफल और सकुशल यात्रा के लिए प्रार्थना कर रहे थे।
महावीर कुछ कहते इसके पहले ही युवराज अंगद ने घोषणा की---चलो मधुवन--वहां मधु और फल का जी भर कर आनंद लो, रक्षकों की कोई चिंता मत करना।
प्रत्येक महान कार्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से छोटे बड़े सभी का योगदान होता है। केशरी कपि किशोर की इस सफल यात्रा में असंख्य वानर एवं रीछ दल के व्रत, प्रार्थना एवं तपस्या भी परोक्ष रूप में थी।
दीनबन्धु प्रभु श्रीराम ने वानर एवं रीछ दल की सेवा, समर्पण और निष्ठा से प्रसन्न हो कर ही तो देवराज इंद्र को आदेश दिया था --
सुधा बृष्टि भइ दुहुँ दल ऊपर
जिए भालु कपि नहि रजनीचर