श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष

यशोदा की गोद में आ गया कान्हा

लोक - मानस में श्रीराम — मर्यादा पुरुषोत्तम तथा श्रीकृष्ण — लीला पुरुषोत्तम की महिमा से सम्मानित - पूजित हैं। दोनों के साम्य - वैषम्य को विवेचित करने वाला एक सुन्दर दोहा है -

राम - श्याम दोउ एक हैं, रूप - रंग - तिल - रेख।
इनके नयन गंभीर हैं, उनके चपल विशेष ।।

आँखों की गंभीरता और चपलता के द्वारा दोनों के पार्थक्य की कवि - कल्पना मोहक है। श्रीकृष्ण के इन चपल नेत्रों में अद्भुत सौन्दर्य और माधुर्य है। 'मधुराष्टकम्' के रचनाकार श्रीमद्बल्लभाचार्य कहते हैं कि मधुरापति श्रीकृष्ण के अधर, उनका मुखमंडल, उनके नेत्र, उनकी हँसी, उनका हृदय, उनकी गति सभी कुछ मधुर हैं -

अधरं मधुरं, वदनं मधुरं, नयनं मधुरं, हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।

ऐसा स्वरूप सहज ही आकृष्ट कर लेता है। 'कृष्ण' का तात्पर्य ही है, 'कर्षण' यानी आकर्षण करने में सक्षम। अपने नाम की सटीक अर्थवत्ता प्रमाणित करते हैं श्री कृष्ण। कृष्ण में क्यों है इतना आकर्षण ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री लिखते हैं — 'आध्यात्मिक दृष्टि से वे सबकी अंतरात्मा हैं - और अपनी आत्मा ही सबसे अधिक प्रिय होती है। आधिदैविक दृष्टि से वे इष्ट देव हैं - भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष - फिर वे प्रिय क्यों न हों ! आधिभौतिक दृष्टि से वे लीला पुरुषोत्तम हैं - परब्रह्म होते हुए भी धराधाम पर सशरीर अवतीर्ण होकर विचित्र लीलाएं रचानेवाले महानायक; सभी स्तरों, रुचियों, पात्रताओं के व्यक्तियों की अपेक्षाओं की पूर्ति करने वाले नटनागर। एक में सर्व का समाहार देखना हो तो श्रीकृष्ण को देखिये। वे कर्मी भी हैं और योगी भी, प्रेमी भी हैं और ज्ञानी भी, रसिया भी हैं और अनासक्त भी वे सचमुच परस्पर विरुद्ध धर्मों के आश्रय हैं।' कवि देवल आशीष ने राधा - कृष्ण केन्द्रित कई सवैयों की रचना की है। सहज किन्तु बड़ा ही भावपूर्ण है यह छंद -

विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरूप दिखा गया कान्हा
सारथी, तो कभी प्रेमी बना, तो कभी गुरु - धर्म निभा गया कान्हा
रूप विराट धरा, तो धरा तो धरा हर लोक पे छा गया कान्हा
रूप किया लघु तो इतना कि यशोदा की गोद में आ गया कान्हा


कण - कण का कर्षण करने में समर्थ होने के कारण एक को 'कृष्ण',और कण - कण में रमण करने के कारण एक को 'राम' की संज्ञा प्राप्त हुई है।
अपने विविध रूपों में श्रीकृष्ण अपनी मोहिनी से सबको विमुग्ध कर लेते हैं। कहा भी गया है कि जो जीवमात्र को (या उसके अज्ञान को) आकर्षित कर आत्मसात कर ले, वह कृष्ण है। एक व्याख्या यह भी है कि कृष्ण वह है जो संसार रूपी अरण्य को विदीर्ण कर दे। गोपाल तापिनी उपनिषद् में कहा गया है कि सत्स्वरूप आनन्द स्वरूप परब्रह्म का बोध कराता है कृष्ण शब्द। कविवर अरुण प्रकाश अवस्थी रचित दोहों की स्मृति हो आई -

चिदानन्द आनंदघन, जगत नियंत्रक ईश।
मन वाणी से परे हो, दामोदर योगीश ॥
निरुपमेय तुम कृष्ण हो, सब बिधि अपरम्पार ।
कौन हुआ तुमसे अधिक, आकर्षक अवतार ।।
तुमने व्याख्यायित किया, कर्मयोग निष्काम।
इसीलिए युग-वंद्य है, कृष्ण तुम्हारा नाम ।।


'जन्माष्टमी' का पवित्र दिन यानी भादों मास की अष्टमी प्रभु श्री कृष्ण का प्राकट्य दिवस है। गीता में कहा भी गया है कि साधुजनों के परित्राण, दुष्टों के दलन और धर्म की स्थापना ही अवतार के हेतु हैं। लोकमंगल के लिए प्रभु का आविर्भाव स्वाभाविक रूप से सर्वत्र आनन्द - उछाह बिखेर देता है। यही कारण है कि यह पर्व सोल्लास मनाने की परंपरा है। जन्माष्टमी क्यों है पवित्र तिथि ? यदि प्रभु घट - घट वासी हैं तो सभी स्थान पवित्र हैं, सभी दिन पावनता से मंडित हैं। फिर क्यों तीर्थ स्थानों की परिकल्पना और शुभ - दिनों की योजना की गई ?
हमारी परंपरा ने, हमारी संस्कृति ने, हमारे संतों - मनीषियों ने बड़ी सूझ - बूझ के साथ हमारे लिए कुछ पवित्र स्थान, पवित्र तिथियों का निर्द्धारण किया है, ताकि हम अपनी भागदौड़ भरी जीवन शैली से थोड़ा विरत होकर उस परिवेश में जायें, जहाँ वास्तविक आनन्द और शांति की अनुभूति हो; उस शुद्धता पवित्रता की प्रतीति हो, जो हमारे सम्यक् विकास हेतु आवश्यक है।
जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि, एकादशी, पूर्णिमा आदि पर्वों - तिथियों को पवित्रता से मंडित कर काल को रेखांकित किया गया है। इसी प्रकार विविध तीर्थस्थानों- बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुरी, रामेश्वरम्, वाराणसी, काशी, मथुरा, प्रयाग आदि स्थानों को तीर्थ के रूप में चिह्नित कर हमें यह संदेश दिया गया है कि दैनन्दिन जीवन के राग - द्वेष से मुक्त होकर हम इन स्थानों पर जाकर पावनता एवं दिव्यता का अनुभव करें। भक्तगण इन विशेष दिनों, पर्वों पर अपनी दिनचर्या से पृथक शुद्ध भाव एवं भक्तिपूरित मन से स्वयं को प्रभु की सेवा - अर्चना में प्रवृत्त कर कृतकृत्यता का अनुभव करते हैं।
गीता गायक कृष्ण, योगिराज कृष्ण, गोपीवल्लभ कृष्ण, मुरलीधर कृष्ण अपने विविध रूपों में, विभिन्न प्रकार की लीलाओं के मध्य जनमानस को, भक्त - मन को बार - बार आकृष्ट करते हैं। डॉ. अरुण प्रकाश अवस्थी का एक चर्चित मुक्तक है—

हमीं वृन्दा विपिन में श्याम बन मुरली बजाते हैं,
हमीं ब्रज - वीथियों में रास की लीला रचाते हैं।
मगर जब राष्ट्र के सम्मान पर आघात होता है,
हमीं गीता सुनाकर के सुदर्शन भी उठाते हैं।।

एक तरफ बाल - लीला का, बाल - क्रीड़ा का आनन्द; तो दूसरी तरफ गीता के उपदेश की दार्शनिक - आध्यात्मिक प्रस्तुति। इन दो छोरों के बीच लीला के कई सोपान हैं जो अपनी विविधता एवं रोचकता में भक्तों, कवियों, साधकों को विमुग्ध करते रहते हैं। गोपियों के संग रास लीला का प्रसंग हो या सुदामा से मैत्री की अनोखी मिसाल; कुरुक्षेत्र में अर्जुन के लिए सारथी की भूमिका हो या राधा से प्रेम की प्रगाढ़ता का अद्वितीय संदर्भ; वेणुवादन की सांस्कृतिक - आध्यात्मिक अर्थवत्ता हो या गोचारण, गोपालन, गो - सेवा की सामाजिक संरचना- सभी के केन्द्र में कान्हा की उपस्थिति की विराट अर्थवत्ता है। शिव ओम अम्बर की त्रिपदी है -
नित्य लीला प्रवृत्त है कान्हा हर कहीं जिसका केन्द्र है ऐसा इक परिधिहीन वृत्त है कान्हा। रस रूप पुरुषोत्तम ब्रह्म श्रीकृष्ण की अंतर आह्लादिनी शक्ति हैं श्री राधा। भक्तों - संतों - आचार्यों के मतानुसार दोनों दो भिन्न रूप में

प्रकट होते हुए भी अभिन्न हैं। निम्बाकाचार्यजी का एक श्लोक है -
यः कृष्णः सापि राधा च, या राधा कृष्ण एव सः । एकं ज्योति: द्विधा भिन्नं, राधा - माधव रूपकम् ।।
अर्थात् जो कृष्ण है, वही राधा है। जो राधा है, वही कृष्ण है; एक ही ज्योति राधा - माधव के रूप में द्विधा विभक्त हो गई है। फिर याद आ रहे हैं देवल आशीष -

राधा ने त्याग का पंथ बुहारा, तो पंथ पे फूल बिछा गया कान्हा ।
राधा ने प्रेम की आन निभाई, तो आन का मान बढ़ा गया कान्हा ।।
कान्हा के तेज को भा गई राधा, तो राधा के रूप को भा गया कान्हा ।
कान्हा को कान्हा बना गई राधा, तो राधा को राधा बना गया कान्हा ।।

स्व. देवल आशीष ने राधा - कृष्ण केन्द्रित अनेक छन्दों का सृजन कर आधुनिक हिन्दी साहित्य की कृष्ण केन्द्रित कविताओं में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। उन्हीं के एक सवैया की दो पंक्तियाँ हैं— 'काम विजेता को, प्रेम प्रणेता को, प्रेम पीयूष पिला गई राधा / विश्व को नाच नचाता है जो, उस श्याम को नाच नचा गई राधा।'
श्रीकृष्ण के जीवन का, जन्माष्टमी का संदेश हम सबके लिए बहुत स्पष्ट है कि उत्थान - पतन, जय - पराजय, निन्दा - स्तुति, हानि - लाभ, जीवन - मरण सभी में अनासक्त रहकर, निष्काम भाव से कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए। हम अपने आराध्य से, अपने प्रभु से सुख - शांति - आनन्द की प्रार्थना तो करें, लेकिन यह भी संकल्प करें कि जीवन में जो वेदना, पीड़ा और दुख - दर्द के थपेड़े आयेंगे उन्हें श्रीराम एवं श्रीकृष्ण की ही भाँति झेलते हुए सतत गतिशील रहेंगे।
स्वयं श्रीकृष्ण ने जीवन में कितने प्रकार के दुःखों कष्टों का सामना किया। माता - पिता कारागार में, एक के बाद एक ६ सहोदरों की हत्या, बंदीगृह में जन्म, दूसरे के यहाँ पालन - पोषण, पूतना द्वारा शिशु अवस्था में ही वध की योजना, विभिन्न आसुरी शक्तियों का मुकाबला, ग्वाल - बालों, गोपिकाओं से प्रगाढ़ प्रेम का त्याग, सगे मामा कंस का वध, जरासंध से मथुरा की रक्षा हेतु लगातार सत्रह बार युद्ध, अठारहवीं बार पलायन। सबसे भयानक युद्ध महाभारत का महानायकत्व किया। बहेलिए ने तीर से मारा। अनेकानेक प्रसंग हैं उनके व्यक्तिगत जीवन की वेदना के। हम अपने जीवन से तुलना करें तो उससे बहुत अधिक। कृष्ण तो योगी थे, सही अर्थों में योगिराज थे। 'दुःख के संयोग के वियोग का नाम योग है' - इस उक्ति को सार्थक करते हुए वे क्रियाशील रहे। योगेश्वर कृष्ण की गीता में ही उक्ति है— 'तं विद्याद् दुःख संयोग वियोगं योगसंज्ञितम्'।

अंत में किसी कवि की इन पंक्तियों के साथ श्रद्धापूरित प्रणाम निवेदित है। लीला पुरुषोत्तम को -

कर्म का पाठ सिखा जग को गया, गोकुल गाँव का धेनु चरैया
गूढ़ रहस्य बता गया सृष्टि के, गोपिन के सँग रास रचैया
था करामाती ज़रूर बड़ा कोई, ऐसी बजा गया वेणु बजैया
आज भी गूँज रहा हर ओर, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया ॥

डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी, कोलकाता