झूठी शान की खातिर

यह मानवीय प्रकृति है कि कोई काम यदि हमें असंभव सा
दिखता है तो उसके लिए हम बिना विचार किए कोई भी
कीमत देने को तैयार हो जाते हैं। समस्या तब खड़ी होती है जब
दैवयोग से वह कार्य संपन्न हो जाता है और कीमत अदा करने
की स्थिति आती है। तब वही कीमत बहुत ज्यादा और
अनुचित लगने लगती है। उसे अदा करने में हमारा दिल
कचोटने लगता है और हम तरह-तरह के तर्क देकर उससे
बचने का यत्न करने लगते हैं।
इसको ऐसे समझ सकते हैं कि एक महाशय को किसी ने लॉटरी का एक टिकट भेंट किया जिसका प्रथम पुरस्कार एक करोड़ रुपए का था। बाकी छोटे-छोटे पुरस्कार बहुत सारे थे। अब किसी ने उनसे कह दिया कि यदि पुरस्कार की आधी राशि वे बाला जी के मन्दिर में दान देना स्वीकार कर लें तो उनका प्रथम पुरस्कार आ सकता है। महाशय जी ने बिना सोचे स्वीकार कर लिया। बाला जी का चमत्कार तो देखिये, उनका प्रथम पुरस्कार आ भी गया। पर, अब पचास लाख रुपए दान करने से बचने के बीस बहाने ढूंढने लगे। ऐसा ही एक वाकया हमारे साथ भी घटित हुआ। मजे की बात यह है कि वहां धन की कोई बात ही नहीं थी। लगभग असंभव सी समस्या के निवारण की दिशा में हमारे सफल प्रयास को श्रेय देने भर की थी।
बात सन् 1990 के आसपास की है। तब हमारे संपर्क में एक चौहान परिवार था। चौहान जी का निवास हमारे व्यापारिक स्थल के बगल में था। थोड़े ही समय में हमारे बीच संबंध इतने घनिष्ट हो गए थे कि जब भी उन्हें समय मिलता, हमारे यहां आ जाते और हमें मिलता तो हम उनके यहां चले जाते। चौहान जी की विवाहित बेटी उनके साथ ही रह रही थी। दामाद जी आते जाते थे, किन्तु कभी रुकते दिखाई नहीं दिये। एक दिन यूं ही जिज्ञासावश पूछ लिया कि बेटी के ससुराल में कोई समस्या है क्या ? वह यहीं रहती है ! तो वे बड़ी लम्बी सांस भरते हुए बोले कि क्या बताएं मिश्रा जी, ठाकुरों की आन टकरा गई है। समधी जी का कहना है कि आप आकर छोड़ जाओ ! हम कहते हैं आप बुला लो।
अब आप बताएं हम अपनी बेटी को छोड़ने कैसे जा सकते हैं? समाज में तरह तरह की बातें होती हैं लोग कहेंगे कि लड़की इतनी भारू हो गई कि खुद ही छोड़ आए, कोई लिवाने भी नहीं आया ! वो हैं कि सुनने समझने को तैयार ही नहीं हैं, बस अपनी बात पर अटके हुए हैं, चार साल हो गए। जब उनसे पूछा कि दामाद जी तो आते हैं वो क्यों नहीं लिवा ले जाते ? तो उन्होंने बताया कि उनके घर में किसी को पता ही नहीं कि वे यहां आते हैं। पता चल जाए तो मुसीबत आ जाय। हमारे यह कहने पर कि उसके भाई ही जाकर छोड़ आवें, वे बोले कि कोई भी जाय, हुआ तो हमारा भेजना ही। कायदा यही कहता है कि वे आकर लिवा ले जाएं और आना तो उन्हें ही होगा।
मुझे लगा कि वाह री ऐंठ ठाकुरों की बच्चों के हित अहित की भी परवाह नहीं। सोचा कुछ करना चाहिए। संयोग से हमारे पिताजी के बहुत अच्छे से परिचित भदौरिया जी, दामाद जी के चाचा निकले। पिताजी से चौहान जी की सारी कथा बताई और कहा, कि इनकी मदद करने की इच्छा है तो उन्होंने कहा कि ठीक है एक बार भदौरिया जी से बात करके देखते हैं। भदौरिया जी से बात करके पिताजी ने बताया कि चौहान जी जब अपनी बेटी को लिवाने गए थे तो उसके ससुर जी की भेजने की इच्छा नहीं थी। चौहान जी के अधिक आग्रह करने पर उन्होंने कह दिया कि ठीक है ले जाइये लेकिन छोड़ भी जाइयेगा, कोई लिवाने नहीं जाएगा। चौहान जी बिना कुछ कहे बिटिया को लिवा ले गए। इसका मतलब कि भेजने की जिम्मेदारी उन्होंने स्वीकार की ! अब स्वीकार की है तो पालन करें।
पिताजी ने यह भी बताया कि भदौरिया जी स्वयं आहत हैं इस बात से, और दिल से चाहते हैं कि बहू अपने घर आए। किन्तु अपने भैया से कुछ भी कहने का साहस नहीं है। ऐसा करते हैं कि एक बार बिठाते हैं दोनों परिवारों को एक साथ। यह बात जब चौहान जी से बताई कि हम बीच का कोई मार्ग निकालने का प्रयास कर रहे हैं ! ऐसा कि आप दोनों की आन भी बनी रहे और बेटी अपने घर भी चली जाय। तो वे तुरन्त मेरे पैर छूते हुए बोले कि मिश्राजी आप यदि ऐसा कर दें तो, पूजा की अलमारी की ओर दिखाते हुए बोले कि भगवान के ये सारे चित्र यहां से हटा दूंगा और आपका एक बड़ा सा चित्र यहां रख कर सिर्फ उसकी पूजा करूंगा आजीवन ! मेरे बाद मेरे बेटे आपकी पूजा करेंगे, उनके बाद उनके बच्चे भी वैसा ही करेंगे। आने वाली सात पुश्तें आपको ही पूजेंगी।
