वर्तमान समय में सोशल मीडिया ने समाज की दिशा और दशा को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से परिवर्तित कर रखा है। स्त्री हो या पुरुष, बच्चे हों या बुजुर्ग, या फिर युवा वर्ग; सभी अपनी - अपनी रुचि, आवश्यकता तथा सुविधाओं के अनुरूप ऑनलाइन देखे जा सकते हैं। ऐसे में, लोग सोशल मीडिया पर ही, यह विरोधाभासी संदेश प्रसारित करते संकोच नहीं करते कि वर्तमान समय में इंसान जितना ऑनलाइन होता जा रहा है; इंसानियत उतनी ही ऑफलाइन होती जा रही है। इस कथन में जिस समस्या की ओर इशारा किया गया है, उसे कोई भी प्रबुद्ध तथा संवेदनशील मनुष्य सरलता से समझ सकता है; बहुत हद तक यह कथन सही भी है। फिर भी, इस कथन को पूर्णतया सही नहीं माना जा सकता। निःसंदेह, आज अधिकतर लोग फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि पर अपने भाव, विचार तथा कार्यकलाप साझा करने के अभ्यस्त से हो गये हैं। यदि पोस्ट्स समाजोपयोगी हों, तो उनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है; और यदि पोस्ट्स समाज की सभ्यता
“इंसानों में इंसानियत को जीवित रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है उनके शब्दों और कर्मों में समानता तथा सामन्जस्य का होना”
तथा संस्कृति की संवेदनशीलता को आघात पहुंचाने वाले हों, तो उनके नकारात्मक प्रभावों का पड़ना भी स्वाभाविक है। ऐसे में उचित है कि सोशल मीडिया पर कुछ भी डाला जाये तो देश, समाज और युग पर पड़ने वाले उनके दुष्प्रभावों एवं सद्प्रभावों को ध्यान रख कर ही डाला जाये।
कुछ लोग सोशल मीडिया को आभासी पटल कह कर उसका मखौल भी उड़ाने से बाज नहीं आते, हालांकि सोशल मीडिया की आलोचना करने वाले स्वयं भी इसके प्रभाव के दायरे में ही होते हैं। इस संदर्भ में दार्शनिकता की गहराई में जाकर विचार किया जाये, तो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही माध्यम वास्तविक (रीयल) भी हैं, अन्यथा दोनों ही आभासी (वर्चुअल) भी हैं। कटु सत्य तो यह है कि यह दुनिया भी परम सत्य एवं सत्ता का आभास मात्र ही है। यह निखिल विश्व ही आभासी है। जो कल थे, आज महज उनका आभास मात्र है। जो आज हैं, उनका भी कल एक आभास मात्र ही रह जायेगा। यही तो ऑनलाइन पटलों पर होता हुआ पाया जा रहा है। छद्मवेशी कहाँ नहीं पाये जाते ?
दरअसल, इंसानियत के प्रति निष्ठा दिखलाने हेतु, ऑनलाइन या ऑफलाइन दोनों ही माध्यम अत्यंत मददगार सिद्ध हो सकते हैं; बशर्ते, हमारी कथनी और करनी में समानता हो, सामन्जस्य हो तथा एकरूपता हो। हम जो भी कहें, उसे आत्मविश्वास तथा अडिगता के साथ करने का साहस भी रखें, ताकि कोई भी व्यक्ति स्वयं को शाब्दिक प्रपंचों से छला गया महसूस न करे। किसी भी मनुष्य के भीतर ठगे जाने की आत्मग्लानि न हो। ऑफलाइन मोड में भी ऐसे इंसानों की कमी तो नहीं है, जो कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। धार्मिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में तो ऐसी कूटनीतियाँ हर जगह देखने को मिल जाती हैं। शिक्षा जगत हो या साहित्य जगत या फिर कला जगत, कोई भी क्षेत्र बहुरुपियों से मुक्त नहीं है। ऐसे लोगों से यह दुनिया भरी पड़ी है जिनकी कथनी और करनी में आसमान - जमीन का अंतर हो। अतः, इंसानियत के पतन हेतु ऑनलाइन माध्यमों को ज़िम्मेदार ठहरा देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं।
कथनाशय यह है कि हमें ऑनलाइन या ऑफलाइन, किसी भी पटल पर, कुछ भी कहने से पूर्व इस बात का अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि हम उस कथन पर स्वयं कितने खरे उतरते हैं। हमें कुछ भी करने से पहले इस बात पर अनिवार्य रूप से विचार - मंथन कर लेना चाहिए कि उससे देश या समाज का कितना भला होगा। हम कुछ भी करें, तो उसके पीछे हमारा उद्देश्य समाजोपयोगी हो, इंसानियत के पक्ष में हो।
उपदेश से उदाहरण हमेशा से ही अधिक महत्वपूर्ण रहा है। शैतान भी बाइबिल पढ़ सकते हैं का कथन फेसबुक, व्हाट्सएप, इन्स्टाग्राम आदि की सुविधाएं उपलब्ध होने के पूर्व से मौजूद रहा है। अतः, इंसानों में इंसानियत को जीवित रखने के लिए उनके शब्दों और कर्मों में समानता तथा सामन्जस्य का होना अत्यंत आवश्यक है; और ये शब्द और कर्म, दोनों ही आत्मा के तुले पर तोल कर ही प्रयोग में लाये जाने चाहिए। कभी - कभी शब्द कटाक्ष भरे भी हो सकते हैं, किंतु उनका उद्देश्य हमेशा सकारात्मक हो, सत्य के पक्ष में, समाज के हित में।