बदलाव जीवन का एक स्वाभाविक क्रम है। इस क्रम में निरंतर हम अपनी सूरत के साथ सीरत में भी बदलाव महसूस करते हैं। कभी तो यह फायदेमंद लगता है, पर एक लम्बे समय के अंतराल में जब बीते समय का आंकलन किया जाता है तो हमारे ही कृत्यों में कई प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाते हैं।
क्या हम पुरखों की धरोहर को संभालने में विफल हो रहे हैं ?
हमारी संस्कृति हमारे संस्कार पुरखों की धरोहर ही तो हैं। सोचता हूं, कहां से आरम्भ करूं ?
किसी बालक के जन्म से ले कर किसी वृद्ध के मरणोंपरान्त तक बहुत कुछ बदल दिया हमनें। यह परिवर्तन सकारात्मक होता तो लेश मात्र भी पीड़ा न होती, दर्द तब होता है जब उस परिवर्तन में भरपूर नकारात्मकता दिखती है। हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि जन्मोत्सव, जन्मदिवस, शिक्षा, त्योहारों, विवाहोत्सव जैसे सभी अवसरों को हमने सिर्फ मनोरंजन का जरिया बना लिया है। परिवार के बुजुर्गों की राय को दरकिनार करते हुए हम इन सारे अवसरों पर वही करने का प्रयास करते हैं जो सहज हो और भरपूर मनोरंजक भी हो। शारीरिक और आर्थिक रूप से सक्षम हमारे घर परिवार के बुजुर्ग यदि कुछ करना भी चाहें तो वर्तमान और कथित आधुनिक पीढ़ी आधुनिकता के ताने बाने से उनके प्रयास को पूर्णतया विफल कर देती है।
यह कथित आधुनिक पीढ़ी ये भूल जाती है कि आज उन्होंने जो सफलताएं अर्जित की हैं वह सिर्फ और सिर्फ हमारी संस्कृति और हमारे संस्कारों की वजह से ही सम्भव हो सका है। धर्म, समाज और क्षेत्र के अनुसार संस्कृति का उल्लेख विस्तार से तो सम्भव नहीं है परन्तु यह दावे के साथ कह सकता हूं कि उनमें किसी न किसी स्तर पर समानता अवश्य है। विचार करने की आवश्यकता है, कि हमारे पूर्वजों ने हमें संस्कारों और संस्कृति की जो धरोहर सौंपी थी उसे हम आने वाली पीढ़ी को देने में क्यों विफल हो रहे हैं।
यह सत्य है की हम अगली पीढ़ी से जुड़ी वो कड़ी हैं जिनपर अपनी सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ाने का दायित्व उतना ही है जितना कि हमारे पूर्वजों ने निर्वहन किया है। आइये उन प्रयासों पर विचार करते हैं जिनके पालन से शायद हम अपनी धरोहरों को उन तक पहुँचाने का सफल माध्यम बन सकें।
हमें बच्चों को अल्पायु से ही धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों की महत्ता बतानी होगी, उन्हें इस सन्दर्भ में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में साथ ले जाना होगा। यदि विद्यालय के पाठ्यक्रम में इस तरह के विषय हैं तो उस विषय में उनकी रुचि बनानी होगी और प्रकरण को रोचक बनाते हुए उनके दिल दिमाग में ऐसे विषयों को विस्तार से डालना पड़ेगा। उन्हें गलत और सही का फर्क समझने में सहायक की भूमिका निभानी होगी। जिन प्रतिभाओं ने संस्कार और संस्कृति के क्षेत्र में ख्याति अर्जित की है उनकी सफलता से उन्हें अवगत कराना भी आवश्यक होगा। विद्यालय या किसी अन्य स्थान पर आयोजित इस तरह के कार्यक्रम में उन्हें शामिल होने हेतु प्रोत्साहित करें और ऐसा करने पर उन्हें शाबाशी दें, और परिवार और समाज में उसकी प्रशंसा करें।
ऐसा प्रतीत होता है कि हम यदि इन बातों पर ध्यान दें तो वह दिन दूर नहीं होगा जब आने वाले पीढ़ी को संस्कार और संकृति धरोहर देने में हम सफल होंगे।
योगेश कुमार अवस्थी, संस्थापक
को.कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज, कोलकता (प.बं.)