भात का पिला

“भात के पिल्ले की गतिविधि ने एक बार प्रमाणित कर दिया कि कठिन समय में ही नेतृत्व क्षमता का आकलन होता है”

उपरोक्त किस्से के कथा नायक हमारे परिवार के अभिन्न अंग रह चुके हैं । यह प्रसंग उनके विवाह समारोह से लिया गया है । उनके समस्त भाई - बहनों का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, शादी-जनेऊ का कार्य हमारे पिता श्री के नेतृत्व में हमारे परिवार जनों के माध्यम से हुआ करता था। इस किस्से को हमारे ज्येष्ट बहनोई ने रेखा-चित्र के रूप में पिछली सदी के ६० दशक के उत्तरार्ध में तत्कालीन प्रचलित ऑडियो टेप के माध्यम से सुरुचिपूर्ण ढंग से संजोया था। उनका प्रयास अद्भुत था। अफसोस कि उस रिकॉर्डिंग को हम सब सहेज कर नहीं रख पाए। उस प्रसंग को जितना मुझे स्मरण है, जनता-जनार्दन के समक्ष फिर से रखने की धृष्टता कर रहा हूं।

जहां तक स्मरण आ रहा है घटना 1966 के आसपास की है। हमारे भ्राता श्री कथा-नायक रोजी-रोटी की तलाश में कानपुर से शिक्षा ग्रहण कर अपने ज्येष्ट मामा (पिताश्री) के पास कोलकाता पहुंचे। कोलकाता के बड़ाबाजार अंतर्गत पोस्ता में हमारा परिवार सीमित साधनों के साथ जिंदगी की जद्दोजहद से जूझ रहा था। उस संघर्ष एवं जीवन यापन की तलाश में हमारे भाई श्री ने भी आकर अपने पांव पसारे। शुरुआती तौर पर हम लोगों के साथ रहते हुए उन्होंने बड़ा बाजार के कपड़ा बाजार में नौकरी से शुरुआत की। पिताश्री जिस प्रतिष्ठान में संलग्न थे, उनकी तत्कालीन बैंकों में से एक में प्रबंधकीय तौर पर अच्छी पहुंच थी। जिसके फलस्वरूप हमारे पिताजी की कृपा से घर परिवार, नाते-रिश्तेदार, दूरदराज के कई लोगों को जीवन-यापन की सुविधा उस बैंक में मिली थी।हमारे कथा के प्रमुख पात्र को भी यथा समय उसी बैंक में रोजगार का अवसर प्राप्त हुआ। यह बात अलग है कि हमारे परिवार के अंतिम सदस्य थे, जिन्हें पिताश्री बैंक में लगवा पाए। कालांतर में वह बैंक 1969 में निजी से राष्ट्रीयकृत हो गया। हमारे भैया धीरे-धीरे कोलकाता में व्यवस्थित हो गए। पहले लंबीबाड़ी, लालकोठी के निकट, बाद में उसी के निकट एक खोहनुमा घर में उनका आशियाना सजा। कालांतर में हावड़ा मैदान के पास की गली में कल्पना टॉकीज के पास कल्पना-लोक में उनका विहार प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि कनौजिया जब अपनेपैरों पर खड़ा हो जाता है तो "देखुअन" अर्थात् (कन्या पक्ष वाले किसी वर को जामाता बनाने की कसौटी पर कसने लगते हैं,) की लाइन लग जाती है, फिर अभ्यर्थी को 'नक्खास" (विवाह बाजार) में उतारा जाता है। हमारे भाई जी को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, उनके समस्त कार्यों का दायित्व हमारे परिवार पर ही था, अतः एक दिन कोलकाता के हमारे आवास-स्थल लाल कोठी की छत की छाती पर छठी के दिन एक आपात बैठक आहूत की गई, जिसमें परिवार के 6 वरिष्ठ लोगों ने हिस्सा लिया। बैठक का एकमेव एजेंडा था हमारे चरित नायक का "काठ में पांव" अर्थात् विवाह कराया जाए। इस बैठक में हम अल्पायु थे, अतः दूर से ही महत्वपूर्ण चर्चा का दर्शन कर रहे थे। विवाह आयोजन प्रस्ताव के सर्व सम्मति से पारित होने के बाद कन्या खोजने का दायित्व सुयोग्य पात्रों को दिया गया। भगवत् इच्छा से प्रतिष्ठित पांडे परिवार की उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के पड़री ग्राम की एक परिणीति हमारी आदरणीय भाभी से भैया का विवाह निश्चित हुआ। पांडे परिवार के कुछ सदस्य कोलकाता में भी निवास करते हैं। इस परिवार से हमारे परिवार के एकाधिक आत्मीय संबंध दशकों से रहे हैं, एवं उनमें कालांतर और भी संयोजन हुआ है।

बैसवाड़ा अंचल की परंपरा के अनुसार हमारे गांव राजापुर गढ़ेवा से पड़री के लिए गाड़ी-बैल से खूब धूमधाम से नियत विवाह-तिथि को हमारे भैया की वर-यात्रा प्रारंभ हुई। रास्ते भर बारातियों ने प्रचलित कटाई-कटावा (बैलगाड़ी की रेस प्रतिस्पर्धा )लोमहर्षक यात्रा का आनंद लिया। "नाना वाहन नाना जूथा" के साथ सायंकाल के पश्चात गंतव्य तक बारात पहुंची। पहले दिन विवाह परंपरा के अनुसार बारातियों का समुचित सत्कार हुआ। विवाह के दूसरे दिन कनौजिया में प्रचलित भात (कच्चे भोजन) का आयोजन था, जो कि अत्यंत विधि-विधान, नियम कानून से आयोजित होता है, जिसमें साफ-सफाई का विशेष ध्यान दिया जाता है एवं भोजन ग्रहण करने वाले केवल अधोवस्त्र ही पहनते हैं।

घर के आंगन में सभी भात- ग्रहण करने वालों की बैठने की पंगत अनुसार सुंदर व्यवस्था की गई थी। भारत में परोसे जाने वाले सुस्वाद एवं पारंपरिक व्यंजन परोसे जाने लगे। लगभग सारे व्यंजन परोसे जा चुके थे। अब भोजन शुरू करने के लिए "लक्ष्मी नारायण" किए जाने के संकेत का इंतजार था, कि अचानक बिजली की गति से एक सारमेय स्वान(कुत्ते का पिल्ला) पूरी पंगत के चारों ओर परिक्रमा कर जहां से आया था ,फिर वापस उसी तरह विलीन हो गया ,जैसे कि "जो जन जहां से आयहु सो तहं करहु पयान"। अनाहूत के अचानक आक्रमण ने कनौजिया खांटी बीस -विश्वा की श्रेष्ठता तथा पवित्रता पर प्रश्न चिन्ह लगाकर भूचाल ला दिया। कई स्तर की सारी चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था धरी की धरी रह गयी। सभी सन्न रह गए। बारातियों के साथ घराती विचारे रुद्ध श्वास से एकटक हमारे पिता श्री जो कि परिवार के कर्ता थे, की ओर देख रहे थे कि, सारे सुंदर आयोजन पर जैसे तुषारापात हो गया हो। पिताजी ने वक्त की नजाकत को पहचाना। भोजन के समय वे हमेशा मौन रहा करते थे, उन्होंने समय नष्ट किए बिना थाली के सम्मुख अपने दोनों हाथ जोड़कर श्रीवर श्री नारायण जी (भैया) को संकेत किया कि लक्ष्मीनारायण (भोजन प्रारंभ किया जाए)। सभी पक्षों ने इस कदम से राहत की सांस ली। संवेदनशील क्षण पर जिस तरह पूज्य पिता ने सकारात्मक निर्णय लिया उसे बारातियों, घरातियों ने ही नहीं, बल्कि जवार (आसपास के गांवों) में भी जब इसकी खबर लगी तो सभी ने निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की। भात के पिल्ले की गतिविधि ने एक बार प्रमाणित कर दिया कि कठिन समय में ही नेतृत्व क्षमता का आकलन होता है।

गोस्वामी तुलसीदास ने ठीक ही कहा है "धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपद काल परखिए चारी "।

इतिश्री भात का पिल्ला कथा ।

- मणि शंकर त्रिपाठी, कोलकाता