पं. राकेश राज मिश्र “जिज्ञासु” कानपुर
यह बात अनुभवसिद्ध है कि मन में आत्मविश्वास हो तार्किक बुद्धि हो और कॉमन सेंस हो तो जीवन में कुछ भी असंभव नहीं ! इनके साथ व्यावहारिक शिक्षा और प्रशिक्षण के बिना भी किसी क्षेत्र में सफलता के कीर्तिमान स्थापित किए जा सकते हैं। सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ जिसने मेरी व्यावसायिक दिशा क्षेत्र का निर्धारण किया।
कानपुर विश्वविद्यालय जोकि अब छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय है, से सन् 1973 में “शिक्षा शास्त्र” विषय के साथ “एम ए” करने के उपरांत अपेक्षित नौकरी एक वर्ष बीत जाने तक नहीं मिल सकी तो एक फर्म में “सेल्स रिप्रेजेंटेटिव” की नौकरी स्वीकार कर ली मात्र तीन सौ रुपए प्रतिमाह पर।
इस फर्म के पास टेक्सटाइल केमिकल्स और पिगमेंट्स की डिस्ट्रीब्यूटरशिप थी और कार्यक्षेत्र संपूर्ण उत्तर प्रदेश। टूरिंग जॉब था, मुझे अच्छा लगा और जुट गया पूरे मन से। आइटम्स अच्छे थे पर टक्कर नामी गिरामी कंपनियों से थी। अपने आइटम्स की ट्रायल देकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना बड़ा रोमांचक था। नई मार्केट की तलाश करना और उसमें अपने प्रोडक्ट्स के ट्रायल देकर सेल्स जेनरेट करना, वास्तव में रुचिकर कार्य था।
चार वर्षों में पूरी मार्केट में अपनी एक अच्छी पहचान बन चुकी थी। मेरा वेतन अब तक छः सौ रुपए हो चुका था। सन् 1978 में बॉम्बे की एक बड़ी कंपनी से मेरे पास नौकरी का प्रस्ताव आया दुगने वेतन पर ! मार्केट वही थी पर उनके पास हर इंडस्ट्री के लिए केमिकल्स की बहुत लंबी रेंज थी। यह जॉब वैसे तो टेक्निकली क्वालीफाइड लोगों के लिए थी क्योंकि यहां भी प्रोडक्ट्स की ट्रायल्स देकर उनकी उपयोगिता सिद्ध करना अपेक्षित था। पर कदाचित मेरे अनुभव और मार्केट में मेरी साख ने क्वालिफिकेशन की अनिवार्यता पूरी कर दी।
मेरे लिए सबसे बड़ा प्रलोभन फर्स्ट क्लास में यात्रा की सुविधा थी, सो मैंने हां कर दी। सेकंड क्लास की यात्रा बिना रिजर्वेशन बहुत कष्टकारक होती थी। ज्वाइनिंग बॉम्बे में होनी थी और एक महीने की टेक्निकल ट्रेनिंग वहीं पर कर लेने के बाद ही मार्केट में उतरना था। मेरी पिक अप अच्छी थी सो महीने भर की ट्रेनिंग सोलह दिन में ही पूरी हो गई। मेरा टेक्निकली क्वालीफाइड न होना वहां हर किसी के लिए बड़े अचंभे की बात थी।
मैने इंटरमीडिएट तक साइंस पढ़ी थी इस कारण सोच में टेक्निकलिटी थी। दूसरे हर प्रोडक्ट के टेक्निकल लिटरेचर्स होते हैं जो मैं थोरोली पढ़ लेता था ताकि प्रोडक्ट से संबंधित हर विषय का उत्तर दे सकूं। मेरा साबका टेक्निकल लोगों से ही पड़ता था। मैने अपने टेक्निकली क्वालीफाइड न होने की अयोग्यता को कभी छिपाया भी नहीं इस कारण किसी विषय में और अधिक जानकारी पाने के लिए किसी से पूछने में कोई संकोच नहीं होता। बड़ी प्रसन्नता के साथ सभी मेरी जिज्ञासा शांत करते।
इस बड़ी कंपनी में पैसे, सुविधा और रुतबा तो अच्छा था पर अभी तक मेरा ब्रांच इंचार्ज के रूप में इंडिपेंडेंटली काम करने का अभ्यास था। और यहां मैं जूनियर मोस्ट था ! मुझसे सीनियर एक शकील साहब थे और ब्रांच मैनेजर गोखले साहब थे। यही मुझे इस कंपनी में लेकर आए थे।
उस समय तक कानपुर के अतिरिक्त फर्रुखाबाद वाराणसी और गोपीगंज भदोही आदि टेक्सटाइल प्रोसेसिंग सेंटर्स थे जिनमें मेरी अच्छी पकड़ थी। जिस प्रोडक्ट की मेरे पास सबसे अच्छी बिक्री थी वो प्रोडक्ट ये कंपनी भी बनाती थी पर बिक्री नहीं थी। मेरी शुरुआत इसी प्रोडक्ट से हुई। पहली ही विजिट में लगभग हर कस्टमर से सौ पचास किलो का ट्रायल ऑर्डर लेकर आया।
अधिकांश ग्राहकों का एक ही सवाल हुआ कि “जो प्रोडक्ट मैं अब तक बेंच रहा था वो अच्छा है या ये ?” मेरा उत्तर था कि “वो तो अच्छा है ही, पर ये भी अच्छा है!” जिस प्रॉडक्ट की अब तक तारीफ करता रहा, कंपनी बदल लेने से उसकी बुराई नहीं कर सकता। ये उत्तर लोगों को पसंद आया। उन्होंने बताया कि यदि मैं उसकी बुराई कर देता तो वो ऑर्डर नहीं देते।
ये प्रोडक्ट तो मार्केट में नहीं चल पाया पर इसकी आड़ में कई सारे प्रोडक्ट्स की सेल मिल गई। सभी प्रोडक्ट्स अच्छे और किफायती थे सो साल बीतते बीतते पूरी मार्केट कवर हो गई और मेरे द्वारा कंपनी को अच्छी सेल मिलने लगी। यहां पर गोखले साहब, शकील भाई और मेरे कस्टमर्स के लेजर बंटे हुए थे। जिन पर टारगेट के ऊपर की सेल पर इंसेंटिव मिलने का प्रोविजन था। सारी क्रीम अर्थात मिल्स और बड़े कस्टमर्स गोखले साहब के पास थे। बचा खुचा शकील भाई के पास! और मेरे लेजर में सारे मेरे बनाए नए कस्टमर्स थे।
सेल में मैं अब तक शकील भाई से आगे निकल चुका था। इस बीच चूंकि इस कंपनी के पास प्रोडक्ट्स की बहुत अच्छी रेंज थी! सो उन सब के ट्रायल देते देते मुझे टेक्सटाइल प्रोसेसिंग की पर्याप्त जानकारी हो गई। और मेरे नाम पर “टेक्नीशियन” का लेबल चस्पा हो चुका था और मैं क्वालिफाइड टेक्निशियंस के साथ बराबरी की बातचीत कर लेने में समर्थ हो चुका था। पर अब मेरा मन कुछ उचटने सा लगा था ! क्योंकि मार्केट पूरी कवर हो चुकी थी और कुछ नया करने को बचा नहीं था। पोस्ट मैन जॉब रह गई थी बस ! पेमेंट लाना और ऑर्डर लाना।
इसी बीच एक खन्ना साहब से परिचय हुआ। वे भी टेक्सटाइल प्रोसेसिंग केमिकल्स बनाते थे। उनकी कंपनी छोटी थी पर प्रोडक्ट्स अच्छे और कंपटीटिव थे। वो मुझमें बड़ी रुचि रखते थे। जब भी मिलें एक ही बात बोलते थे कि मिश्रा जी आप जैसा कोई सेल्स का बंदा हमारे साथ हो तो अच्छी से अच्छी कंपनी की छुट्टी कर सकते हैं। कुछ करने की लालसा में, खन्ना साहब के साथ में मुझे संभावना दिखने लगी। मुझे लगने लगा कि इनका साथ पकड़ कर मैं स्वयं को अधिक संतुष्ट कर सकूंगा।
इसी असंतोष के बीच कंपनी ने एक नया प्रोडक्ट लॉन्च किया जोकि टेक्सटाइल प्रिंटिंग से केरोसिन को रिप्लेस करता था। उस समय टेक्सटाइल प्रिंटिंग में केरोसिन का प्रयोग बहुतायत में होता था। इसमें एक केमिकल के साथ पानी मिलाकर मशीन में मथने से गाढ़ा पेस्ट तैयार होता था जिसमें पिगमेंट मिला कर छपाई की जाती थी। उस समय केरोसिन की शॉर्टेज हो गई थी और हर कोई उसके विकल्प की तलाश में था।
यह नया प्रोडक्ट “के आर डब्ल्यू” मोम की बट्टी जैसा था जो गर्म पानी में घुल जाता था फिर ठंडा पानी मिला कर मशीन से मथने पर केरोसिन के पेस्ट जैसा ही गाढ़ा पेस्ट बन जाता था। मशीन से मथे बिना पेस्ट गाढ़ा नहीं होगा ऐसा कंपनी का कहना था। इस कारण इसे इस्तेमाल करने के लिए मशीन का होना अनिवार्य था।
कंपनी की रिकमेंडेशन चार प्रतिशत की थी जिससे इसकी कॉस्ट केरोसिन के लगभग बराबर पड़ती थी। पर रिपोर्ट ऐसी थी कि चार प्रतिशत का पेस्ट पर्याप्त गाढ़ा नहीं होता है। आवश्यकता के अनुसार गाढ़ा बनाने में पांच से साढ़े पांच प्रतिशत लेना पड़ता है। इस प्रकार वो काफी महंगा पड़ता था। इस कारण सफलता नहीं मिल पा रही थी।
मेरे सौभाग्य से खादी विभाग की एक यूनिट में ट्रायल का अवसर आया। पेस्ट बनाने के लिए आधा पानी गर्म लेकर उसमें प्रोडक्ट को घोल कर मथते हुए बाकी ठंडा पानी मिलाना होता था। प्रोडक्ट आधे पानी में घुल चुका था। अब मशीन चलाते हुए बाकी ठंडा पानी मिलाना था कि बिजली चली गई। प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। धीरे धीरे ठंडा होने लगा तो पानी के ऊपर प्रोडक्ट की मोम जैसी एक परत तैरती हुई दिखने लगी।
मैने पास में पड़ा एक डंडा उठा लिया और उसे चलाने लगा ताकि प्रोडक्ट पानी से सेपरेट न हो जाय। थोड़ी ही देर में वह गाढ़ा होने लगा तो थोड़ा थोड़ा करके ठंडा पानी मिलाते हुए वैसे ही चलाता रहा। पूरा ठंडा होते होते फर्स्ट क्लास गाढ़ा पेस्ट तैयार हो चुका था। तुरंत उसमें पिगमेंट मिला कर छपाई कराई गई। अगले दिन शाम तक परिणाम आ गया और दो सौ किलो का ट्रायल ऑर्डर मिल गया। कंपनी में इस प्रोडक्ट की यह पहली सफलता थी। यह मुझे काफी बाद में पता चला।
आठ दस दिन में मैटेरियल आ गया। उसी दिन पार्टी को भेज दिया गया। सप्ताह भर के भीतर वहां से अगला ऑर्डर पांच सौ किलो का मिला। इसके साथ ही गोखले साहब ने अपने कस्टमर दो मिल्स में इसके ट्रायल की व्यवस्था कराई और ट्रायल मुझे ही देना था। ट्रायल सक्सेसफुल होना ही था। दोनों जगहों से पांच पांच सौ किलो के ट्रायल ऑर्डर मिले। अगले ही दिन उनके यहां भी मैटेरियल भिजवा दिया गया।
एक दो दिन बाद अकबरपुर फैजाबाद स्थित प्रदेश की उस समय की खादी की सबसे बड़ी यूनिट से सौ किलो का ट्रायल ऑर्डर इस आग्रह के साथ प्राप्त हुआ कि हम वहां जाकर इसका ट्रायल दें। अगले सप्ताह मैटेरियल के साथ मैं वहां पहुंचा और तीन चार दिन लगातार ट्रायल देकर कर वहां से पांच सौ किलो का ऑर्डर लेकर लौटा।
यहां आया तो पता चला कि दोनों मिलों से शिकायत मिली कि छः प्रतिशत से नीचे का पेस्ट काम नहीं करता और इससे कॉस्ट तो बढ़ती ही है, छपाई में रंग भी हल्के पड़ रहे हैं। अगले ही दिन एक मिल पहुंचा तो आग्रह किया गया पेस्ट मैं उनके आदमी से बनवाऊं। मैने बनवा दिया और बढ़िया बन गया। अब तक मेरा हाथ भी अच्छा सेट हो चुका था। उसके अगले दिन दूसरे मिल में ऐसा ही किया।
इनसे निपटा तो शकील भाई की एक पार्टी के यहां ट्रायल की व्यवस्था की गई। शकील जी साथ ही रहे। उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया और कहा कि कायदे से मेरी जगह गोखले साहब को आना चाहिए था। क्योंकि जूनियर की मदद करना सीनियर की जिम्मेदारी होती है और वो तो ब्रांच इंचार्ज भी हैं।
उन्होंने बताया कि गोखले साहब दूसरों को मूर्ख बना कर फायदा उठाने में माहिर हैं। और साथ ही दूसरों के काम का क्रेडिट लेने का कोई अवसर नहीं चूकते। उन्होंने बताया कि “के आर डब्ल्यू” में जितनी मेहनत मै कर रहा हूं, हेड ऑफिस में इसका सारा क्रेडिट वो ले रहे होंगे। मुझे लगा कि इसमें क्या गलत है। लड़ाई फौज के सिपाही लड़ते हैं पर जीत का सेहरा तो कमांडर के सर ही सजता है।
शाम को ऑफिस पहुंचा तो बॉम्बे से एम डी साहब की कॉल मिली बोले “मिश्रा आई वांट टू सी यू हियर ऑन मंडे!” इस दिन बुधवार था। सोमवार को वहां पहुंचने के लिए मुझे हर हाल में शुक्रवार को कानपुर से निकलना होता। मैने कहा “सर इतनी जल्दी टिकट मिल पाना तो मुश्किल होगा!” तो वो बोले कि “कम बाई एयर ! बट बी हियर ऑन मंडे!” मैं बड़ा प्रसन्न हुआ कि बाई एयर ट्रैवल करने का अवसर मिलने जा रहा है। पर अगले दिन ऑफिस पहुंचा तो शुक्रवार की कन्फर्म टिकट मुझे थमा दी गई। खैर ! मैं प्रसन्न था कि परमात्मा की कृपा से ऐसा कुछ मुझसे हो सका जो कंपनी इतना महत्व दे रही है।
सोमवार को मैं एम डी साहब के सामने बैठा था। पीछे से “डायरेक्टर आर एन डी” देसाई साहब पधारे और आते ही मेरी पीठ ठोंकते हुए बोले, “सो मिश्रा गोखले हैज़ ट्रेंड यू इन सच अ वे दैट यू कैन गिव इंडिपेंडेंट ट्रायल्स ऑन के आर डब्ल्यू !” ये बात सुनते ही मुझे शकील भाई की बात याद आ गई। और वास्तव में बुरा लगा। और निश्चय किया कि ये क्रेडिट मैं गोखले साहब को तो नहीं लेने दूंगा ! देसाई जी ने मुझे बताया कि कल मुझे वहां की एक बड़ी मिल में “के आर डब्ल्यू की ट्रायल देनी है !” मैने तुरंत कहा कि “सर, पेस्ट तो गोखले साहब बनवाते हैं ! मैं तो प्रिंटिंग में ट्रायल देता हूं। और पेस्ट बनवाना उनके बिना मेरे अकेले के बस का नहीं !”
उस समय टेलीकम्युनिकेशन की स्थिति ये थी कि एक शहर से दूसरे शहर बात करने के लिए ट्रंक कॉल बुक करनी पड़ती थी।
संदेशों के आदान प्रदान के लिए टेलेक्स की सुविधा थी। तुरन्त कानपुर टेलेक्स करके इसकी जानकारी दी गई और गोखले साहब से बात करने के लिए शाम चार बजे की कॉल बुक की गई। बातचीत क्या हुई मुझे पता नहीं पर मुझे अगले ही दिन वापसी की टिकट थमा दी गई।
यहां वापस आया तो गोखले साहब के तेवर बदले हुए थे। खुल कर मुझसे कुछ कह तो नहीं सकते थे पर खिसियाहट जबरदस्त थी। शकील भाई से बात हुई तो वो बहुत प्रसन्न थे कि मैंने गोखले साहब को बहुत सही उत्तर दिया। एम डी साहब ने इन्हें तुरंत बुलाया था बोले “गोखले कम बाई नेक्स्ट फ्लाइट !” इन्हें रिपोर्ट मिल चुकी थी। समझ गए थे कि जाने का मतलब अपनी भद्द कराना है। लगे बीस बहाने बनाने कि अभी तुरंत तो नहीं आ सकता। तो एम डी ने गुस्से में फोन पटक दिया।
अगले महीने मैंने वहां से नौकरी छोड़ दी। मेरे वहां से छोड़ते ही दो तीन बड़ी कंपनियों के मालिकों ने मुझसे संपर्क किया और नौकरी ऑफर की पर मैने खन्ना साहब से हाथ मिला लिया। उनके यहां से पहली विजि़ट बनारस की बनी। वहां की एक अच्छी कंपनी के एम डी से मिलने के लिए कार्ड भेजा तो उन्होंने मुझे तुरंत बुला लिया। वे लंच कर रहे थे मेरे लिए भी टिक्का पकौड़ा मंगाया गया। मुझसे उन्होंने कुछ कहा नहीं, अपने आदमी को बुला कर बोले कि “शर्माजी को बुलाओ !” शर्मा जी आए तो उनसे बोले कि “ये मिश्रा जी हैं ! आप इनसे अपनी प्रॉब्लम डिस्कस कर सकते हैं !” इतना कह कर वे वहां से चले गए।
इस कंपनी में ऊंचे मूल्य की कॉटन और सिल्क की साड़ियों की रंगाई छपाई होती थी। दोनों के शेड अलग अलग थे क्योंकि दोनों की छपाई की रासायनिक प्रकृति एक दूसरे के विपरीत थी। कॉटन की प्रिंटिंग रिएक्टिव कलर से होती थी जिसकी प्रकृति एल्कलाइन होती है। जबकि सिल्क की प्रिंटिंग एसिडिक मीडिया में होती है। अभी तक वहां एक ही डाइंग मास्टर दोनों शेड देखता था। सिल्क में उन्होंने उस समय की लेटेस्ट “डिस्चार्ज प्रिंटिंग” शुरू की थी जिसके लिए शर्मा जी बम्बई से बड़े ऊंचे वेतन पर बुलाए गए थे।
डिस्चार्ज प्रिंटिंग के बारे में मुझे अधिक नहीं पता था सिवाय इसके कि गहरे रंग में रंग कर उस पर हल्के रंग की छपाई की जाती है। इसके प्रिंटिंग पेस्ट में एक केमिकल पड़ता है जोकि गहरे रंग को काट कर उसकी जगह हल्के रंग को फिक्स करता देता है। मुझे उस केमिकल का नाम तक नहीं पता था।
शर्मा जी मुझसे पंद्रह बीस साल बड़े रहे होंगे। उन्होंने मुझे पहले तो ऊपर से नीचे तक गौर से देखा। मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास की कोई कमी नहीं थी। इससे शायद वे कुछ संतुष्ट हुए और उन्होंने पूछा कि “क्या मैं डिस्चार्ज प्रिंटिंग के विषय में उनकी समस्या का निवारण कर सकता हूं?”
मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ पूछा कि “बताएं क्या समस्या है !” उन्होंने बताया कि “उनकी प्रिंटिंग में रंग के साथ कपड़ा भी कट जा रहा है ! एक एक साड़ी दो से ढाई हजार की होती है। बहुत नुकसान हो रहा है। छपाई की जगह का कपड़ा गल जा रहा है। सारे केमिकल और फॉर्मूलेशन वही है जो वे अब तक इस्तेमाल करते आए हैं ! दिमाग काम नहीं कर रहा है ! चेक करने के चक्कर में चार लॉट बेकार हो चुके हैं ! अब और नुकसान सहने की मालिकों की भी हिम्मत नहीं पड़ रही है !”
मैंने मन ही मन अपने प्रभु को याद किया कि प्रभु लाज रखना ! फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ पूछा कि “शर्मा जी रेसिपी क्या ले रहे हैं ?” उन्होंने कहा कि “आप बताएं क्या लेनी चाहिए !” मुझे तो रेसिपी की ए बी सी डी भी नहीं मालूम थी। पर कहा “बताऊंगा, पता तो लगे कि गलती कहां हो रही है !” उन्होंने रेसिपी बता दी। मैंने पूछा कि “इसमें रंग काटने का काम कौन करता है ?” उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे अंग्रेजी के किसी अध्यापक से कैट की स्पेलिंग सुनाने को कहा जाय ! कुछ झुंझलाहट के साथ आप उन्होंने नाम बताया।
मेरे बात करने का अंदाज़ कुछ ऐसा था जैसे मैं इसका एक्सपर्ट हूं और उनकी परीक्षा ले रहा हूं। फिर मैंने वाइवा लेने वाले एग्जामिनर की भांति पूछना आरंभ किया और वे परीक्षार्थी की भांति उत्तर देते रहे। मैंने हर आइटम के बारे में सवाल किया कि यदि ये अधिक हो जाए तो क्या असर पड़ेगा और यदि कम रह जाय तो क्या होगा। सारी बातचीत का निष्कर्ष ये निकला कि उनकी रेसिपी में कहीं कोई चूक नहीं है।
कुछ देर शांत रहने के बाद मैंने पूछा कि “अच्छा ये बताइए कि आप को क्या लगता है, कहां गड़बड़ है ?” तो वो बोले कि “सब देख चुका हूं, समझ में आता तो इस प्रकार आपसे पूछने की नौबत क्यों आती !” फिर मैंने पूछा कि “ये बताइए कि इसकी क्योरिंग आप इसी की बैक ग्रे में लपेट कर करते होंगे ?” उन्होंने कहा कि “बिलकुल ! मैं अपने सामने पैक करवाता हूं !”
क्योरिंग एक हीट ट्रीटमेंट की प्रॉसेस है जो रंग पक्का करने के लिए दी जाती है। उनके यहां ये स्टीम द्वारा दी जाती थी। इसके लिए छपी हुई साड़ियों का बंडल बना कर उसे बैक ग्रे में लपेट कर पानी
से भरे ड्रम के ऊपर रख कर नीचे से आग देते थे। बैक ग्रे एक केनवास शीट होती है जिस पर बिछा कर छपाई की जाती है !
मैंने कहा कि “आपके यहां रिएक्टिव प्रिंटिंग भी होती है ! यदि कोई आपसे शत्रुता वश आपकी बैक ग्रे बदल दे तो ?” मेरी बात सुनते ही शर्मा जी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जैसे उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने कहा “कि इस ओर तो उनका ध्यान ही नहीं गया। निस्संदेह यही एकमात्र कारण हो सकता है उनकी समस्या का। उन्होंने कहा कि मैं चेक करवाता हूं ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद !”
बाद में पता लगा कि उनका पुराना डाइंग मास्टर जानबूझकर बदमाशी कर रहा था क्योंकि उसे इनकी वरिष्ठता किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं थी। उसे दंडित किया गया क्योंकि उसने अपनी शत्रुता निकालने के लिए मालिकों का बहुत नुकसान कर दिया था।
मेरे प्रभु ने मेरी लाज रख ली और मेरे नाम के ऊपर लगे टेक्नीशियन के लेबल को कोई बट्टा नहीं लग पाया। खन्ना साहब के यहां मैं मात्र नौ महीने ही काम कर सका। क्योंकि इतने समय में ही उन्हें इतनी सेल दे दी थी जिसकी आपूर्ति में उनकी स्थापित क्षमता जवाब देने लगी थी। इस कारण वो मुझे और मार्केट करने के लिए निकलने ही नहीं दे रहे थे। उनके यहां से छोड़ कर मैंने अपना निजी व्यवसाय आरंभ कर लिया। कुछ आइटम्स बनाने लगा बाकी के और कंपनियों से लेकर रेंज पूरी कर ली। और कंपनियों के प्रोडक्ट्स मैं बेचता अपने ही ब्रांड नेम से था।