हिन्दी वन्दना के श्रद्धापूरित स्वर

'एक डोर में सबको जो है बाँधती, वह हिन्दी है'

‘जन-जन की भाषा कल्याणी
कोटि-कोटि कंठों की वाणी
गाँव-गाँव घर-घर की बोली
तुम्हें प्रणाम हमारा सविनय
जय हिन्दी, जय हिन्दी, जय-जय ।।

‘हिन्दी की जयकार करने वाली ये पंक्तियाँ प्रख्यात बाल साहित्यकार विनोद चन्द्र पाण्डेय की हैं। पिछले दिनों हिन्दी दिवस पर प्रकाशित इस रचना ने अनेक कवियों द्वारा की गयी हिन्दी-अर्चना की अनायास स्मृति करा दी। स्मृति-पटल पर बरबस वे उद्गार भी अनुगुंजित होने लगे, जो देश की विशिष्ट विभूतियों ने समय-समय पर व्यक्त किये हैं। कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था - "आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है, जिसका एक-एक दल, एक-एक प्रांतीय भाषा और उसकी संस्कृति / उसका साहित्य है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा ही नष्ट हो जायेगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रान्तीय बोलियाँ, जिनमें सुन्दर साहित्य / सृष्टि हुई है, अपने- अपने घर में (प्रान्त में) रानी बनकर रहें, प्रान्त के जन-गण की हार्दिक चिन्ता की प्रकाश-भूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहे और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्यमणि हिन्दी भारत-भारती होकर विराजती रहे।"

हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) को केन्द्र में रखकर सितम्बर महीने में विभिन्न सरकारी, अर्द्धसरकारी तथा अन्य संस्थानों द्वारा हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी माह का अनुपालन किया जाता है। राजभाषा के रूप में हिन्दी के प्रति संकल्प एवं निष्ठा जगाने के इन अनुष्ठानों के बीच कहीं-कहीं यह शंका भी ध्वनित होती है कि हिन्दी की प्रतिष्ठा से भारतीय भाषाओं की महत्ता कम हो जायेगी। मैकाले के मानसपुत्रों द्वारा प्रयासपूर्वक किये जा रहे इस दुष्प्रचार का सीधी- सरल भाषा में जवाब दिया है कविवर गिरिजा कुमार माथुर ने -

'एक डोर में सबको जो है बाँधती, वह हिन्दी है
हर भाषा को सगी बहन जो मानती, वह हिन्दी है
भरी-पुरी हो सभी बोलियाँ, यही कामना हिन्दी है
गहरी हो पहचान आपसी, यही साधना हिन्दी है
सौत विदेशी बने न रानी, यही भावना हिन्दी है'

हिन्दी की महिमा का गुणगान करते हुए कवि ने इस गीत में भाषा के तत्सम - तद्भव रूप, बोलचाल की सरल हिन्दी के लालित्य और आंचलिक भाषाओं के स्पर्श के साथ बोली जाने वाली हिन्दी के स्वरूप की भी चर्चा की है। इसे आमजन की भाषा बताते हुए गिरिजाकुमारजी आगे कहते हैं -

चौरंगी से चली नवेली प्रेम - पियासी हिन्दी है,
बहुत - बहुत हम सबको लगती भालोबासी हिन्दी है।
उच्च वर्ग की प्रिय अंग्रेजी, हिन्दी जन की बोली है,
वर्ग - भेद सब दूर करेगी, हिन्दी वह हमजोली है।'

27 दिसम्बर 1917 को महात्मा गाँधी ने कलकत्ता में कहा था – “आज की पहली और सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि हम अपनी देशी भाषाओं की ओर मुड़ें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करें। हमें अपनी सभी प्रादेशिक कार्यवाइयाँ अपनी - अपनी भाषाओं में चलानी चाहिए तथा हमारी राष्ट्रीय कार्यवाइयों की भाषा हिन्दी होनी चाहिए।" हिन्दी भाषा की समृद्धि में ब्रज, अवधी भोजपुरी सहित देश के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली भाषा - बोलियों का बहुत बड़ा अवदान है। इसे 'संस्कृत - की वंशजा / भारती भाषाओं की बहना' कहकर गीतकार नीलम श्रीवास्तव ने बड़ी सार्थक पंक्तियाँ लिखी हैं -

'इसकी धारा में ब्रज, अवधी, भोजपुरी का जल है
हर बोली की गंध समेटे, इसकी पुष्पांजलि है
सौ-गंधों के पुष्पों वाला उपवन जिस हिन्दी का
उस हिन्दी को नमन हमारा, बंदन उस हिन्दी का।'

आजादी- प्राप्ति हेतु किये गये आन्दोलनों में जो गीत जन - जन के कंठ में गूँजते थे; जिन गीतों को समूह में ओजस्विता के साथ गाया जाता था; वे सब हिन्दी में ही थे- "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा' गीत हो या 'कदम - कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये ज़िंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा' रचना; या फिर 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा- ये सभी गीत देश भर में राष्ट्र-प्रेम के भाव से भाषा एवं प्रदेश की बंदिश तोड़कर एक स्वर में उच्चरित होते थे। हिन्दी हमारे राष्ट्र के अस्तित्व और आत्मा की वाणी है। यह हमारी अस्मिता की, स्वाभिमान की प्रतीक है। डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी कहते हैं -

'कोटि-कोटि कंठों की भाषा, जन-गण की मुखरित अभिलाषा
हिन्दी है पहचान हमारी, हिन्दी हम सबकी परिभाषा'

कविवर सोम ठाकुर ने 'राजभाषा वंदना' शीर्षक अपने लोकप्रिय गीत में इसी भाव को व्यापक आयाम प्रदान करते हुए लिखा है -

‘इसमें प्रतिबिंबित है अतीत, आकार ले रहा वर्तमान । 'यह दर्शन अपनी संस्कृति का। / यह दर्पण अपनी भाषा का।।'

'गूँजी हिन्दी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार
राष्ट्रसंघ के मंच पर, हिन्दी का जयकार
हिन्दी का जयकार, हिन्द हिन्दी में बोला
देख स्वभाषा प्रेम, विश्व अचरज से डोला'
कह कैदी कविराय, मेम की माया टूटी
भारतमाता धन्य, स्नेह की सरिता फूटी '

रचना में 'मेम की माया टूटी' कहकर वाजपेयीजी ने अंग्रेजी के मायाजाल की तरफ इशारा किया था। 1975 में नागपुर में विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के माध्यम से हिन्दी को विश्व में स्थापित करने के संकल्प का सूत्रपात हुआ था। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान प्राप्त हो, इस हेतु सभी विश्व हिन्दी सम्मेलनों में संकल्प दोहराया जाता है। 2015 में भोपाल के विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी हिन्दी की वैश्विक प्रतिष्ठा हेतु भावना ध्वनित हुई थी। हमारे देश की भाषा को विश्व स्तर पर सम्मान मिले, यह हर हिन्दी- प्रेमी की इच्छा है, परन्तु हिन्दी की हमारे अपने देश में क्या स्थिति है, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। अटलजी ने बड़ी पीड़ा के साथ लिखा है - 'बनने चली विश्व-भाषा जो, अपने घर में दासी'। हिन्दी को स्वाभिमान से संयुक्त कर तथा उसके साथ आत्मीयता स्थापित कर हम अपनी धरती, अपनी संस्कृति से सहज ही जुड़ सकते हैं। राम सनेही लाल शर्मा 'यायावर' के गीत की पंक्तियाँ हैं —

'हिन्दी जनमन की अभिलाषा / यह राष्ट्रप्रेम की परिभाषा
भारत जिसमें प्रतिबिम्बित है / यह ऐसी प्राणमयी भाषा /
पहचानें अपनी परम्परा / इस संस्कृति का सत्कार करें
हिन्दी की जय-जयकार करें।'

हिन्दी का यह जयकारा कोटि-कोटि जनता का विजय गान है, क्योंकि हिन्दी विभिन्न भारतीय भाषाओं के मध्य सेतु है। धर्म, भाषा, जाति की विविधताओं वाला हमारा देश हिन्दी के माध्यम से एकत्व के सूत्र में आबद्ध होकर हमारी हृद्तंत्री को झंकृत कर देता है। वरिष्ठ कवि डॉ. रामेश्वर दयालु दुबे के चर्चित गीत 'भारत जननी एक हृदय हो / हिन्दी बने सेतु हृदयों की, / कोटि-कोटि जनता की जय हो' की समापन पंक्तियाँ अविस्मरणीय हैं -

'जाति, धर्म, भाषा विभिन्न स्वर / एक राग हिन्दी में सजकर
झंकृत करे हृदयतंत्री को / स्नेह - भाव प्राणों में लय हो
भारत-जननी एक हृदय हो ।
शील-शक्ति-सौन्दर्य समन्वित / ममतामय मानव हो निर्मित, /
सत्यं, शिव, सुन्दरं संयुत / मानवता की सदा विजय हो
भारत-जननी एक हृदय हो।'

लोकप्रिय गीतकार गोपाल सिंह 'नेपाली' ने हिन्दी को भारतवर्ष के जन - जन की बोली - बानी बताते हुए सरकारी प्रयासों से इतर स्वतः विकसित होने की सलाह दी है। वे कहते हैं -

श्रृंगार न होगा भाषण से / सत्कार न होगा शासन से
यह सरस्वती है जनता की / पूजो, उतरो सिंहासन से
तुम उसे शांति में खिलने दो / संघर्ष काल में तपने दो।
हिन्दी है भारत की बोली / तो अपने आप पनपने दो।'

'स्वागत करती हिन्दी सबका, बिखरा कुंकुम रोली
धरती - जाई भाषा अपनी जननी, अपनी बोली'

यह ठीक है कि आज अपने देश में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ी है। वह अपने दायरे को अनवरत विस्तृत कर रही है। बाजार में, व्यापार में, मीडिया में, सोशल मीडिया में, विज्ञापनों में, तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने देश - विदेश में हिन्दी में बोलकर भाषा की व्यापक स्वीकार्यता का स्पष्ट संकेत दिया है। परन्तु हमारी औपनिवेशिक प्रवृत्ति आज भी अंग्रेजी और अंग्रेजियत को नकार नहीं पा रही है। प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व बच्चों के कोमल मन - मस्तिष्क पर कितना दबाव बना रहा है, इस तथ्य से हम सभी परिचित हैं। कवि गौरीशंकर वैश्य 'विनम्र' अपने गीत 'हिन्दी का जयगान करें' में लिखते हैं-

'शासन और प्रशासन मिलकर करते हैं षडयंत्र ।
बिन अंग्रेजी नहीं चलेगा, भारत का जनतंत्र ।।
एक सूत्र में मनका - सी हैं, भारतीय भाषाएँ ।
हिन्दी सबकी परम सहेली, पूर्ण करें आशाएँ ।।
हिन्दी बने राष्ट्र की भाषा, भारत की हम जोली।
पढ़ना - लिखना सहज लगेगा, माँ जैसी प्रिय बोली ॥
अंग्रेजी माँ कभी न होगी, क्यों उसका गुणगान करें।
हिंदी का जयगान करें ।।'

अपने देश में हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं जन-जन की भाषा के रूप में सर्व - स्वीकृति प्राप्त करें, इस हेतु अपने - अपने स्तर पर गम्भीर प्रयास की आवश्यकता है। हिन्दी के उन्ननयन हेतु अहिन्दीभाषी मनीषियों, विभूतियों का अवदान सुविदित है। आजादी के 76 वर्षों बाद अब हिन्दी भाषी जन समूह एवम् प्रदेशों में किसी एक भारतीय भाषा को सीखने की पहल आज के समय की जरूरत है। बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं में से किसी एक को स्वीकृति प्रदानकर उसके पठन - पाठन की व्यवस्था यदि हिन्दी प्रदेश की सरकारें करें, तो हिन्दी और भारतीय भाषाओं के बीच तालमेल में स्वाभाविक रूप से वृद्धि होगी। इसके साथ - साथ स्पष्ट संकल्प यह भी होना चाहिए कि हम भाषा के नाम पर आपस में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं रखेंगे और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को सुप्रतिष्ठित करेंगे। कवि वाहिद अली 'वाहिद' कहते हैं -

'भाषा के नाम पे देश बंटे,
इससे भी गिरी अभिलाषा न होगी।
स्वागत है सबका घर में,
पर राष्ट्र की दूसरी भाषा न होगी।।'

डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी, कोलकाता