हवा महल

यदि आपने भूल-भुलैया चलचित्र देखा है
तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं
किस प्रकार के महल की बात कर रहा हूँ।

हमारे एक बड़े ही प्रिय बड़े भाई साहब हैं। हम सब उन्हें "राजा भैया" बुलाते हैं। कुछ साल पहले राजा भैया ने एक ऐसा अद्भुत अनुभव किया कि क्या बताएं। आपने अगर हल्दीघाटी, पानीपत अथवा महाभारत के विषय में सुना है तो आप यह भी जानते ही होंगे कि आजकल ऐसी लड़ाइयां, जो केवल साम्राज्य के विस्तार हेतु हों, किताबों में ही लड़ी जाती हैं। अगर विश्वास न हो तो हमारे कलयुगी मसीहा अमरीका को ही ले लीजिये, पूरी दुनिया में किस देश को कितनी फसल उगानी है से लेकर किस हद तक तेल निकालना है, ये सब "बाबा" अमरीका ही तो बताता है।

अरे...अरे लीजिये, आपको समझाने के चक्कर में मैं थोड़ा भटक गया। हाँ ! तो हम राजा भैया पर थे। राजा भैया ने भी जीवन में कई लड़ाइयां लड़ी। भगवान् की कृपा से हर जगह से राणा सांगा ही बनके निकले (अब जीत-हार कोई बड़ी बात थोड़े ही होती है)। एक लड़ाई के विषय में सोचकर ही आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस युद्ध का तो मैं चश्मदीद (मैं चश्मा लगाता हूँ यार) गवाह हूँ। हुआ यूं कि कई साल पहले की तर्ज़ पर....राजा भैया का एक बड़ा ही आलीशान मकान था ..कोलकाता के बहू बाज़ार इलाके में। वो मकान नहीं महल था। यदि आपने भूल - भुलैया चलचित्र देखा है तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस प्रकार के महल की बात कर रहा हूँ। जैसे उस चलचित्र में, एक महल के तीसरे माले पे एक भूत रहता था, ठीक उसी प्रकार हमारे राजा भैया का महल भी कुछ "हट के" था। अंतर सिर्फ इतना था कि इस महल के तीसरे तो क्या, पहले माले पे जाने के नाम पर भी किसी भी भूत की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती। उस महल में कबूतर और कौवे तक अपना घोसला नहीं बनाते थे। बच्चों के प्यारे "बैटमैन" आस-पास के मकानों से शीर्षासन करते हुए महल को ऐसे प्रणाम करते थे, मानो रावण और बाणासुर सीता-स्वयंवर में शिव-धनुष को दूर से ही देखकर प्रणाम कर रहे हों।

अगल-बगल के मकान अपने भाग्य को कोसा करते थे कि किस विलक्षण पड़ोसी से पाला पड़ा है, क्योंकि जब भी हवा का झोंका आता था, उस महल के सारे पडोसी चौकन्ने होकर आत्मरक्षा को तत्पर हो जाते थे, क्या पता कब उस महल का कोई दिव्यांश उसके गर्भ में प्रविष्ट हो जाए। वैसे उस महल में हरियाली बहुत थी। उस क्षेत्र को सोना या हीरे-मोती उगालने के लिए देश की धरती की कोई आवश्यकता नहीं थी.....महल की दीवारें ही उसके लिए पर्याप्त थीं । खासतौर से पीपल को उन दीवारों से बड़ा प्रेम था। जगह-जगह पीपल की जड़ें दीवार को "आ गले लग जा" पुकारती हुई ऐसे गले लगाती थी जैसे भीष्म पितामह को शर-शैया में सारे तीर चिपकाए रहते हैं। उस महल की विशेषता यही थी की उसकी उम्र बता पाना स्वयं काल के लिए भी असंभव था, अरे कहीं दिव्य विभूतियों की कोई उम्र पूछता है? बोलो भला, शिव-पार्वती विवाह में गणेश जी की पूजा हुई थी या नहीं? फिर तर्क क्या करना? उस महल में जाने और विचरण करने का सौभाग्य मुझ पापी को भी प्राप्त हुआ था। मैं तो शुक्र मनाता हूँ कि मैंने अपने काफ़ी पाप धो डाले, वरना पता नहीं कब चारों धाम कर पाता। उस महल की सीढियां चढ़ते समय मुझे पता चला कि भूकंप के समय क्यों सभी लोग चीखते-चिल्लाते खुले मैदान की ओर भागते हैं। हर कदम पर लगता था कि जीवन की सारी मोह-माया मिथ्या है, भगवान् का नाम जप ले रे दुष्ट, तेरा अंत समय आया है।

हर कदम पर महल की एक-एक ईंट अपने स्थान से कूद-कूद कर दूसरे सगे संबंधियों को हमारे आगमन का शुभ समाचार देती थीं। उस महल में चलते समय मैं भली भाँती समझ सकता था कि जब सीता माता के पैरों-तले ज़मीन हटी होगी (जब उन्होने धरती में प्रवेश किया होगा) तो उन्हें कैसा लगा होगा। वैसे उस पुरातन महल में सनातन लोग रहते थे (पुराने किरायेदारों को इससे अच्छे नाम से क्या आप पुकार सकते हैं, भला)। सभी एक से बढ़कर एक महात्मा। कोई कुछ भी कर ले, उनकी तपस्या, जो वो महल में रहकर करते थे, नहीं टूटती थी। मूसलाधार बारिश, आंधी के थपेड़े, ट्राम लाइन की भूकम्पी भाड़-भाड़ और स्वयं तपस्वियों व उनके चेलों तथा रिश्तेदारों का आवागमन, रम्भा, मेनका, उर्वशी आदि अप्सराओं की भांति महल को डिगाने की हर संभव चेष्टा करते रहते थे। मगर तपस्वी बाशिंदों के तेज ने कभी उसे डिगने न दिया। स्वयं राजा भैया भी उनके इस तेज से इतने प्रभावित हुए कि वे भी उसी महल में रहकर तपस्या करने लगे, मगर दृढ़ आत्मविश्वास की कमी व अप्सराओं की दखलंदाजी से वे कभी-कभी घबरा कर भाग खड़े होते थे। फिर ईर्ष्या वश उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे इन सतयुगी तपस्वियों को इस कलयुग में पनपने न देंगे और वे चल पड़े उस वीर मार्ग पर जो उन्हें विजय पथ की भांति लगता था।

शुरू में तो उन्होने तपस्वियों को कमतर आंक कर महल के नीचे जाकर अपने नौकर सुमेरु (जिसकी लम्बाई सवा चार फुट से ज्यादा नहीं थी) को जोर से आवाज़ लगायी। उन्होंने सोचा कि उनके मेघ के समान स्वर ज़रूर उस महल के गर्व को खंडित करते हुए उसे धरती पर ला पटकेंगे, मगर तपोबल में कमी होने के कारण वे असफल रहे। तब जाकर उन्हें समझ में आया कि अकेले अपने दम पे कुछ नहीं होना है। फिर उन्होंने तपस्वियों को समझाना चाहा, मगर क्या कभी रावण ने भी विभीषण या माल्यवंत की बात सुनी थी? स्वयं रामचरितमानस में लिखा है:

“सठ सन बिनय, कुटिल सन प्रीती, सहज कृपन सन सुन्दर नीती, ममता रत सन ज्ञान कहानी, अति लोभी सन बिरति बखानी, क्रोधहि सम,कामिहि हरि कथा, ऊसर बीज बएँँ फल जथा”

जब रामायण फेल हुई तो वे महाभारत पे आये और उन्हें धराशायी करने हेतु तरह-तरह के शिखण्डियों का प्रयोग किया, जैसे पुलिस, कोर्ट, कचेहरी। मगर क्या वे भी कभी तत्काल सहायता देते हैं? सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर आज तक के सारे हथकंडे अपनाने के बाद वे हार मानकर भगवान् की शरण में आये और तपस्या छोड़ कर भक्ति मार्ग पर चल पड़े। सुबह-शाम बस यही एक प्रार्थना, कि उन सतयुगिओं से पीछा छूटे। सारे तैंतीस कोटि देवता उनकी प्रार्थना सुन-सुन कर पक गए। फिर अंततः कोर्ट से नोटिस आया, केस कि सुनवाई फलां तारीख को है, मानो आकाशवाणी हुई हो कि "घबराओ मत, कंस के अंत हेतु मैं स्वयं अवतार लूँगा"। बस, राजा भैया को मानो प्राण मिल गए हों। सचमुच ये भगवान् की कृपा ही थी कि सबके लाख समझाने के बावजूद भी केस का फैसला 4 साल में ही मिल गया और उन तपस्वियों को नैमिषारण्य छोड़ कर हिमालय की गोद (अर्थात कोलकाता के इधर-उधर के तंग गली-कूचे) में शरण लेनी पड़ी। आज उस पवित्र स्थल पर अद्भुत दुकानें खुल गयी हैं जो भिन्न-भिन्न आकार, प्रकार के जान्घिये व बनियान बेचती हैं। यदि आपको भी अपना जीवन सार्थक करना है, जो यहाँ से खरीददारी अवश्य करें। अरे भाई, "ये अन्दर की बात है"।

अभिषेक त्रिपाठी, कानपुर