साइकिल की आखिरी सवारी

जैसा कि मुझे लगता है, हर किसी के जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना जरूर घटती है, जिसका स्मरण आते ही खुद पर अनायास ही हँसी आ जाती है। मेरा भी एक संस्मरण कुछ ऐसा ही है जिसे मैं आप सबसे साझा करने की कोशिश कर रही हूँ। बात लगभग 1991 की है, उन दिनों हमारे गाँव से रेलवे स्टेशन और बस अड्डे तक जाने के लिए सिर्फ पैदल का रास्ता ही हुआ करता था। एक दिन मैं और मेरी बड़ी दीदी कानपुर से वापस आ रहे थे, गाँव के नजदीक बस स्टॉप पर जब उतरे तो बहुत ही कड़क धूप थी। उस चिलचिलाती धूप में एक - एक बैग दोनो के हाथ में और पैदल चलना है, सोच कर ही परेशान हो गए। तब तक एक शुभचिंतक भैया मिल गए और कहने लगे, इतनी धूप में आपलोग कैसे जाओगी। हमने कहा हाँ ! धूप तो बहुत है पर कोई साधन भी तो नहीं है, फिर भी जाना तो पड़ेगा। उन्होंने कुछ सोचते हुए पूछा क्या तुम साइकिल चला लेती हो ! मैंने तुरंत हाँ तो कह दिया पर अपने दरवाजे पर ही साइकिल से गोल - गोल घूमने के अलावा और कहीं भी नहीं चलाया था। अब दो मिनिट में साईकिल हमारे सामने थी दोनो हैंडल पर एक - एक बैग टांग दिया और पीछे दीदी को भी बैठा लिया। साईकिल एकदम नयी थी, बस पैडल पर पैर मारते ही स्पीड से चल पड़ी !

वाह कितनी खुशी की अनुभूति हो रही थी - और खुद पर गर्व करने का भी मन करने लगा। तभी कुछ दो सौ मीटर ही चले होंगे की पक्की सड़क समाप्त हो गयी और कच्चा रास्ता शुरू गया। हैंडल इधर - उधर होने लगा तो बैग भी जोरों से हिलने लगे। तब तक हैंडल मेरे बस के बाहर हो चुके थे। मेरी हालत ऐसी हो गयी जैसे बिगड़ैल घोड़े पर बैठा दिया गया हो। मैंने पैडल से दोनों पैर और हैंडल से दोनों हाथों को छोड़ ऊपर उठा दिया और आंखे बंद करके चीखना शुरू कर दिया - बचाओ बचाओ ! मेरी दीदी, जो पीछे बैठी थीं तुरन्त कूदकर मुझे बचाने के लिए साइकिल को पकड़ने की कोशिश करने लगीं, लेकिन साईकिल तो तब तक घोड़े जैसी कूदती - अनियंत्रित, मुझे और दोनो बैग को लेकर रास्ता छोड़ धूलधूसरित हो जमीनदोज हो चुकी थी। जब मैंने आँखे खोली तो अपने को साईकिल के बगल में पड़ा पाया। कोई देख ना ले, इस शर्म से तुरंत उठ कर धूल झाड़ साईकिल को भी खड़ा कर दिया। थोड़ा व्यवस्थित होने के बाद साईकिल के साथ पैदल चलकर घर पहुँची।

उस दिन के बाद मैंने कभी दरवाजे पर भी साईकिल नहीं चलाई और न ही किसी को बताया की मुझे साईकिल चलाना आता है। आज भी कभी जब किसी को साईकिल सीखते देखती हूँ या कभी वो वाकया याद आता है मन ही मन जरूर मुस्कुरा लेती हूँ, पर किसी को बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।

उमा शुक्ला, लखीमपुर