संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार

मारी मूल भारतीय सामाजिक व्यवस्था ग्राम्य जीवन की रही है। कृषि हमारा मूल व्यवसाय रहा है और शैली संयुक्त परिवार की। संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें कोई भी विषय व्यक्तिगत न होकर पारिवारिक होता था। प्रत्येक उपलब्धि, प्रसन्नता अथवा समस्या किसी एक की न होकर पूरे परिवार की होती थी। सभी का अस्तित्व परिवार से था, सभी की समृद्धि परिवार से थी और परिवार की पहचान परिवार के मुखिया से होती थी।

परिवार में मुखिया की भूमिका वैसी ही होती थी जैसी कि बाग में माली की। किस पौधे को कब क्या चाहिए इसकी चिंता पौधे को नहीं करनी, यह माली का दायित्व है और इसका निर्वाह वह पूरे लगन के साथ करता था।

परिवार के समस्त संसाधन और उन पर अधिकार समान रूप से परिवार के एक एक सदस्य का होता था। भले ही उसे अर्जित करने में किसी का भी एकल प्रयास रहा हो। सभी लोग मुखिया के प्रत्येक निर्णय और अनुशासन का हृदय से सम्मान और पालन करते थे।

ऐसा कदापि आवश्यक नहीं कि एक ही माता पिता से उत्पन्न सभी संताने बौद्धिक और शारीरिक क्षमता में एक समान ही हों। कोई बहुत उन्नति कर जाता है तो कोई पिछड़ भी जाता है। संयुक्त परिवार में इस अंतर का कोई अस्तित्व नहीं होता। जबकि एकल परिवार में यह विषमता बहुत मायने रखती है। इसका मुख्य कारण यह है कि संयुक्त परिवार में सारी व्यवस्थाएं केंद्रीयकृत होती हैं जबकि एकल में ठीक इसके विपरीत।

जब तक हमारे समाज की अर्थ व्यवस्था कृषि आधारित रही तब तक तो कोई समस्या न थी। किंतु जब कृषि उपज परिवार के सदस्यों की बढ़ती संख्या के परिणामस्वरूप अपर्याप्त दिखने लगी तो परिवार के युवा सदस्यों को एक एक करके धनार्जन के उद्देश्य से बाहर शहरों की ओर निकलना पड़ा। शहर पहुंचे तो बेहतर शिक्षा के नाम पर बच्चे भी शहर आ गए। पर उस स्थिति में भी राशन आदि की व्यवस्था गांव घर से ही होती और यथासंभव वह अपनी बचत घर भेजता रहता। शहर में वह परदेशी की ही भांति रहता था, सारे त्योहार, बच्चों के संस्कार आदि घर पर पूरे परिवार के साथ ही संपन्न होते।

धीरे-धीरे स्थिति यह बनने लगी कि शहर में रहते-रहते यहां की भौतिक चकाचौंध में रस आने लगा। बच्चे भी शहरी जीवन शैली के अभ्यस्त होने लगे। ऐसी ही स्थिति ने संयुक्त परिवार के विघटन को जन्म दिया। क्योंकि बच्चों को ग्रामीण परिवेश में कृत्रिम भौतिक सुख साधनों का अभाव रास न आता। इसके परिणामस्वरूप छोटे तिथि त्योहार शहर में ही मनने लगे और घर आना जाना कम होने लगा। और इससे उत्पन्न अपराधबोध से स्वयं के बचाव के लिए नए-नए बहाने बनने लगे ! कभी छुट्टी न मिल पाना ! कभी बच्चों की परीक्षा और कभी कोई अन्य विवशता ! इसी प्रकार क्रम से संयुक्त परिवार विघटित होते हुए कई एकल परिवारों का स्वरूप लेते चले गए। गांव घर में एक साथ रहने वाले भाई शहर में एक साथ न रह सके। इसका बहुत बड़ा कारण शहरी जीवन में पति पत्नी को साथ समय व्यतीत करने तथा राय परामर्श की स्वच्छंदता का स्वाद चखने के बाद उसमें किसी प्रकार का व्यवधान स्वीकार्य नहीं था। धीरे-धीरे बुजुर्गों द्वारा निर्णीत होने वाले विषय घर की स्त्रियों की इच्छा व सहमति के विषय होने लगे ! परिणामतः बुजुर्गों की इच्छा उपेक्षित होने लगी। भाइयों के बीच की आर्थिक विषमता उनके बीच के प्रेम संबंधों को प्रभावित करने लगी। पारिवारिक निर्णयों में स्त्री की प्रधानता के कारण इन विघटित परिवारों की नई पौध में संस्कारों में भी भिन्नता आने लगी।

अनुभव कहता है कि घर में आने वाली हर बहू अपने साथ कुछ भिन्न संस्कार, कुछ भिन्न औचित्य, कुछ भिन्न प्राथमिकताएं, लेकर आती है और पहले ही दिन से अपने घर में, अपने जीवन में लागू करने का प्रयत्न आरंभ कर देती है! विचार करें तो संयुक्त परिवार व्य्यवस्था के विघटन और एकल परिवार व्यवस्था के उदय के लिए हम किसी को दोष नहीं दे सकते हैं। क्योंकि यह हमारी सभ्यता के विकास के क्रम में एक स्वाभाविक परिवर्तन है। इसके लिए किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। हमारे चिंतन में आध्यात्मिक पक्ष का दुर्बल और भौतिक पक्ष का प्रबल होते जाना भी विकास की ही परिणति है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में बच्चे भगवान की देन होते थे, उनकी परवरिश भगवान करता था। दस दस बारह बारह बच्चे होते थे और सभी का पालन पोषण अच्छे से हो जाता था। आज बच्चे हम पैदा करने लगे, उनका पालन पोषण हम करने लगे और इतने में ही सर के बाल कम होने लगे। संयुक्त परिवार व्यवस्था में बच्चों का संस्कारिक विकास की प्रक्रिया बुजुर्गों द्वारा संचालित होती है इस कारण सभी में एक समान होती है, उनके वैचारिक मूल्य भी प्रायः एक समान होते हैं।

और भी बहुत से कारण हैं - समय के साथ मान्यताएं बदल गईं, संपन्नता की परिभाषा बदल गई। कल जहां संपन्नता का मापदंड घर में पलने वाले जानवर की संख्या से होता था, आज चार पहिया और अन्य भौतिक सुख साधन से होने लगा। इसी बदलती मानसिकता के कारण बच्चों के वैवाहिक संबंधों के चयन में हमारी प्राथमिकताएं भी बदल गईं। कल बेटी के लिए भरे पूरे परिवार का लड़का पहली पसंद होती थी, आज अकेला लड़का अच्छा माना जाने लगा। बेटे के लिए कल जहां गृह कार्य में दक्ष कन्या ढूंढी जाती थी, आज जॉब करने वाली प्राथमिकता पाने लगीं।

भौतिकता की अंधी दौड़ में स्त्री गृहस्थी के दायित्वों और बच्चों के पालन पोषण की वैकल्पिक व्यवस्था करके, पुरुष के कंधों से कंधा मिला कर धनार्जन में सहयोग करने में लग गई। विडंबना ये कि फिर भी सब अपर्याप्त दिखता है क्योंकि हम सभी चाहे अनचाहे भौतिक उपलब्धियां अर्जित करने की प्रतिस्पर्धा में सहभागी बन चुके हैं। विकास के इस क्रम में हम इतना आगे आ चुके हैं कि अब पीछे लौटना संभव नहीं। हां इतना आज भी है कि एकल परिवारों में बंट जाने के बाद भी जो लोग अपनी परंपराओं का पालन करते हुए अपने माता-पिता व बुजुर्गों की इच्छा व उनकी प्रसन्नता का सम्मान करते हैं, वे आज भी संयुक्त परिवार के सुख का लाभ पा रहे हैं। जो ऐसा नहीं कर रहे या कर पा रहे हैं, वे भौतिक उपलब्धियां कितनी भी अर्जित कर लें इस सुख से वंचित रह जाते हैं।

प्रशांत  त्रिपाठी, लखनऊ