संतो बुआ

मामा आए थे, बता गए कि संतो बुआ नही रही। मां तो रोने ही लगी, मुझे भी बड़ा दुःख हो रहा था। संतो बुआ को याद करते ही एक चेचक के दागों से भरा गहरे रंग का चौड़ा चेहरा याद आता। भगवान ने लंबाई चौड़ाई खूब अच्छी दी थी। हमेशा हंसते चेहरे में दिखते ब्लैक एंड व्हाइट दांत उनकी पहचान थे। होश संभालने के बाद जब से मुझे याद है, उनकी उम्र चालीस से पचास के बीच की रही होगी पर ऐसा लगता है जैसे मैं उन्हें उनकी बीस साल की उम्र से जानती हूं, कारण है कि मां उनके बारे में मुझे बहुत कुछ बता चुकी हैं। मां बता रही थी कि अपनी शादी के समय संतो बुआ अच्छी लगती थी। सांवली सलोनी संतो बुआ को शादी के पांच साल के बाद चेचक हो गया तो उनका सारा आकर्षण ही चला गया।

संतो बुआ के पति को कोई और अच्छी लगने लगी और संतो अब बेकार हो गयी। अब उसे कुछ भी काम ठीक से नहीं आता था, ये उनके पति की राय थी और आखिर एक दिन उनके तीन साल और पांच महीने के बच्चों को उनसे छीन कर उन्हें घर से निकाल दिया गया। वो अपने मायके आ गयीं। बहुत दिनों तक उम्मीद थी कि उनका पति उन्हें ले जायेगा फिर भी वो अपने बच्चों के लिए बहुत तड़पी। जब साल दो साल गुज़र गए तब उनको अपना मन मजबूत करना ही पड़ा।

मां के जीवन तक छत्र छाया थी लेकिन मां के गुजरने के बाद भाई सब जायदाद बेंच कर अपनी ससुराल में रहने लगा। शायद वो भी संतो की जिम्मेदारी से भाग रहा था, पर इतनी मेहरबानी ज़रूर की, कि घर न बेचा।

अब वो अकेली थी लेकिन अपनी गरीबी और अकेलेपन के बावजूद समाज में गलत कहा जाने वाला कोई काम न किया। पिछली बार जब मां गयीं तो मैं भी उनके साथ गई। हमारी नानी का गांव बस स्टैंड से थोड़ा दूर है सो थोड़ा पैदल चलना पड़ता है। हम पैदल गांव पहुंचे तो गांव के बाहर ही संतो बुआ मिल गयीं। मां को देखते ही लिपट कर रोने लगीं। मां ने पूछा "क्या हुआ बुआ" तो बोली "अरे बिटिया पूरी जिंदगी ऐसे ही काट दीन और ई काल के लरिका......." और उनके रोने का क्रम जारी रहा। मां उन्हें समझा कर घर आ गयीं,मां से मैंने पूछा तो कुछ नहीं बताया और टाल दिया लेकिन घर में हो रही बात चीत के सुने अंशो से मैंने जो निष्कर्ष निकाला वो बहुत बुरा था।

संतो बुआ का संबंध गांव के उनके बेटे की उम्र के एक युवक से जोड़ कर गांव के कुछ तथाकथित मर्दों को हंसने का मुद्दा मिल गया था लेकिन गांव के हर शरीफ़ आदमी और हर घर की औरत को इस बात पर यकीन नहीं था। मैंने देखा था, उन्हें अब भी अपने पति के लिए करवा चौथ का निर्जला व्रत करते हुए। मैंने उनसे एक बार कहा भी था बुआ तुम क्यों रहती हो ये व्रत - उपवास जबकि तुम्हारे पति ने दूसरी शादी कर ली। "अरे बिटिया ई सात जनम का रिश्ता होवत है एक जनम का नाही"। पति के जीवन से संबंधित व्रत हो या बेटों की सलामती के लिए कोई उपवास, वो पूरे लगन से पूजा और व्रत करती थी। कभी - कभी मुझे लगता था कि इतना बुरा बर्ताव वो कैसे भूल गयीं। आश्चर्यचकित तो मैं इसलिए भी थी कि इतना दुःख झेलने के बाद भी उनके मन में कभी आत्महत्या का विचार क्यों नहीं आया।

हमेशा एक सी दिनचर्या.....सुबह उठ कर अपने तोते को राम - राम पढ़ाना, फिर झाड़ू लगाना, बर्तन धोना, नहा धो कर तुलसी को जल चढ़ाना, पूजा करके रसोई में जाना। दोपहर और रात का खाना एक साथ बना के रखकर फिर बुआ कहीं किसी के घर घूमने निकल जाती पर खाना वो अपने घर में ही खाती थी। ब्राह्मण थी सो दान लेती थी इसी से गुज़र बसर चलती थी। माचिस की डिबिया और तंबाकू के पैकेट भी रखती थी ,रात बिरात जब किसी को जरूरत पड़ती तो गांव में संतो बुआ की दुकान ही सबसे बड़ा सहारा थी।

मामा आए तो बता रहे थे कि संतो बुआ अब किसी के घर नहीं जाती थी और अब किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती थी, बस अपने घर में अपने तोते के साथ रहती थी। एक बार उन्होंने अपने बेटों को मिलने के लिए बुलाया था पर बड़ी मिन्नतों के बाद छोटा बेटा आया था। मामा ने बताया कि बुआ उसे पहचान ही न पाई और बाद में उनसे लिपट कर घंटे भर रोती रहीं। मरने के एक दिन पहले मामा के घर आकर बोली, "ग्यारह हजार रुपया बैंक मा हैं, मरे के बाद क्रिया करम उनसे ही कई दीन्ह्यो" और एक चांदी की चैन और पायल अपने बेटों को देने के लिए कहा। "तुम अभी कहां जा रही हो" कह कर सबने उनकी बात टाल दी, पर दूसरे दिन सुबह तोता जब अकेले ही राम - राम चिल्लाता रहा और दोपहर तक संतो बुआ न उठीं तब सबने जाना कि संतो बुआ तो अब नहीं रही। गांव का वो कोना हमेशा के लिए सूना हो गया।

शालिनी त्रिपाठी, मुंबई