शिष्टाचार - वैवाहिक कार्यक्रम

'जहां गांठ तंह रस नहीं,अस जानत सब कोय।
पर विवाह की गांठ में, गांठ गांठ रस होय'।।

वैवाहिक कार्यक्रमों में रसदार गांठ के अनेकों कार्यक्रम होते हैं, जिनमे वर-वधू पक्ष के लोगों के आनन्द - उल्लास एवं उमंग के अवसर आते हैं । आजकल कई पुरानी रस्में विलुप्त हो कर नये - नये रस्म प्रचलन में हैं।

पिछले लगभग 45-50 वर्ष तक प्रचलित 'शिष्टाचार' का कार्यक्रम अब विलुप्त हो चुका है।

अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई तथा कैरियर की उत्कंठा में साहित्य और संस्कृति से दूर हो रही आज की नई पीढ़ी को उससे परिचित कराने की आवश्यकता है।

उन दिनों 3 से 4 दिनों की बारात होती थ। 'आडम्बर विहीन' कार्यक्रमों में 'रस्मों 'तथा 'मेल - मिलाप' की ही महत्ता थी।

शिष्टाचार कार्यक्रम 'पाणिग्रहण' सम्पन्न होने के पश्चात कच्चा भोजन जिसे 'भात' कहा जाता था के बाद गोधूलि बेला में जनवासे में वर पक्ष द्वारा आयोजित होता था।

वर पक्ष इस आयोजन हेतु कालीन, गलीचा, मसनद, इत्र, गुलाब जल, माला, पान, जलपान आदि की व्यवस्था स्वयं करता थ। वधू पक्ष के आगंतुकों का वर पक्ष के द्वारा स्वागत किया जाता था। आमतौर पर गर्मियों में होने वाले वैवाहिक कार्यक्रम में खेती किसानी से निवृत्त बड़े लोग तथा गर्मी की छुट्टियों के कारण बच्चे सारे आयोजन में भरपूर भागीदारी करते थे। कन्या पक्ष के आगंतुकों में उनके परिवार, रिश्तेदार, स्थानीय विशिष्ट जन होते थे, जिनके आगमन पर वर पक्ष के बच्चे गुलाब जल का छिड़काव करते थे, किशोर एवं नवयुवक इत्र लगाते थे। उभय पक्ष परस्पर परिचय, यथायोग्य प्रणामशीष के पश्चात आमने सामने विराजमान होते थे। तत्पश्चात दोनो पक्ष के पंडितों द्वारा संयुक्त स्वस्तिवाचन के उपरांत कन्या पक्ष से बहु प्रचलित श्लोक का सस्वर पाठ होता था।

'दूरे प्रश्रुत्वा भवदीय कीर्तिं
कर्णो च तृप्तौ न तु चक्षुषी मे
तयोर्विवादम परिहर्तुकामः
समागतोहम तव दर्शनायो'

अर्थात वर पक्ष की कीर्ति सुन कर कान तो तृप्त हो गए थे अब दर्शन लाभ पा कर नेत्र भी तृप्त हो रहे हैं।

इसके बाद मंगलाचरण फिर उभय पक्ष के बच्चों को कुछ सुनाने को कहा जाता था, जिसके लिए घर के बड़े लोग बच्चों को कविता छन्द श्लोक आदि सुनाने हेतु प्रेरित करते थे। ऐसे आयोजन बच्चों को उत्साहित करने के साथ - साथ नई - नई रचनाओं को याद कर उन्हें प्रस्तुत करने तथा झिझक मिटाने की नर्सरी होती थी। तत्पश्चात नौजवानों, बड़े लोगों द्वारा भगवान, मौसम, सम सामयिक विषयों पर स्वरचित या पुराने प्रतिष्ठित कवियों यथा तुलसीदास, सूरदास, नरोत्तमदास, पद्माकर, रत्नाकर, गंग, भूषण, नंदराम आदि के अतिरिक्त छन्द के तत्कालीन श्रेष्ठ कवियों की रचना का पाठ होता था। उभय पक्ष की जवाबी प्रस्तुति से वातावरण तालियों तथा वाह - वाह की ध्वनि से गुंजायमान हो उठता था। कई बार आते जाते लोग भी ठहर कर प्रस्तुतियों का आनंद लेते थे। कभी - कभी ऐसे ही आयोजन में किसी प्रसिद्ध कवि का आगमन हो जाने से गरिमा और भीड़ दोनों बढ़ जाते थे।

फिर वर - वधू को भावी दाम्पत्य जीवन हेतु आशीर्वाद के साथ यह कार्यक्रम 'बड़हार' हेतु आमंत्रण के साथ संपन्न होता था। कार्यक्रम के बीच में ही किसी समय वर तथा उससे छोटे बच्चों को 'कलेवा' के लिये ले जाया जाता था।

वस्तुतः इस 'शिष्टाचार' कार्यक्रम का एक सामाजिक सरोकार भी होता था। उभय पक्ष के प्रतिष्ठित श्रेष्ठ जनों की सहमति से कई वैवाहिक सम्बन्ध भी तय हो जाते थे। उस समय बच्चों का यज्ञोपवीत संस्कार आमतौर पर 11,13 या 15 वर्ष तक हो जाया करता था। इस आयोजन से उनमें से संभावित दामाद की भी तलाश हो जाती थी। मेरे पूज्य चाचा जी (स्व० पं राम शरण जी त्रिपाठी) ऐसे ही एक कार्यक्रम में अंदाजे गए थे।

वर - वधू को आशीर्वाद में आचार्य गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी का यह छन्द अत्यंत प्रचलित था।

'चिर जीवो सुखी रहो जीवन में, जुड़ी पंडित मंडलियों ने कहा। शत बार बिलोको बसन्त बहार, पिकों ने कहा अलियों ने कहा। फलो फूलो सनेही रहो सबके, मुस्काती हुई कलियों ने कहा। एक दूसरे के हिय हार बनो, हँसती सुमनावलियों ने कहा।'

अपने बचपन में मैंने ऐसे ही कार्यक्रम में नरोत्तम दास जी का 'सीस पगा न झगा' पहली बार सस्वर सुना था। हमारे परिवार में पूज्य कक्कू जी (स्व० पं राम कुमार जी त्रिपाठी) तथा सुप्रसिद्ध कवि मेरे जीजा जी (स्व० पं अरुण प्रकाश जी अवस्थी) के मार्गदर्शन एवं सान्निध्य में साहित्यिक परिवेश ने इसमें और रुचि जगाई, विभिन्न कवियों की रचनाएं याद कर उन्हें प्रस्तुत करने लगा।

बचपन में एक घटना सुनी थी, ऐसे ही समारोह में एक बच्चे को खड़ा किया गया उसने अंग्रेजी में पोस्टमैन पर छोटा सा लेख ही सुना दिया, बड़े लोगों ने उसे प्रोत्साहित करते हुए रचनाएं भी याद करने को प्रेरित किया और पता चला वह बड़ी अच्छी प्रस्तुति करने लगा था।

मेरे कार्यकाल के दौरान कार्यस्थल में प्रतिवर्ष होने वाली एक प्रतियोगिता याद आती है, जिसमें कविता के विभिन्न प्रकार जैसे गीत, छन्द, सवैया, घनाक्षरी आदि का ही प्रचलन था। मेरी साहित्यिक रुचि के कारण मैं निर्णायक मंडल में रहता था। उस समय के प्रतिभागियों ने इसी शिष्टाचार कार्यक्रम से ही प्रेरित होना बताया था।

शिष्टाचार आयोजन में सुने पुराने छंदो की जवाबी बानगी अवश्य बताना चाहूंगा, रीतिकालीन कवियों की कल्पना को एक पक्ष ने सुनाया।

'बैठी हती गुरु मंडली में
मन ते सुधि मोहन की न बिसारत
त्यों 'नंदराम' जू आइ गए
बन ते प्रभु मोर पखा सिर धारत
लाज ते पीठि दै बैठी बहू
पति मातु की आँखि सों आँखि न टारत
सासु की नैन की पूतरी में
निज प्रियतम को प्रतिबिंब निहारत
दूसरे पक्ष ने जवाब जो दिया
'भादों की कारी अंधेरी निसा
झुकि बादर मंद फुही बरसावै
राधा जू आपनी ऊँची अटा पै
छकी रस रीति मल्हारहि गावैं
ता समय मोहन के दृग दूरि ते
आतुर रूप की भूंख यों पावैं
पवन मया करि घूँघट टारै
दया करि दामिनि दीप देखावै

इस आयोजन में यदा कदा मनोविनोद की भी जवाबी प्रस्तुति हुई है। वर्तमान स्थिति में समयाभाव ,अति व्यस्तता तथा एक समय के वैवाहिक आयोजन में उस तरह तो कार्यक्रम असम्भव है फिर भी साहित्य संस्कृति और संस्कार को नई पीढ़ी तक परिचित कराने का कोई न कोई प्रयास होते रहना अति आवश्यक है। जिस प्रकार पुरानी महिला गायन परंपरा 'गउनई' आजकल नए आधुनिक अंदाज में 'लेडीज संगीत' के रूप में प्रचलन में है उसी तरह एक शुरुआत साहित्यिक सांस्कृतिक समागम की हो सकती है। एक सुझाव है कि उभय पक्ष एक या दो घंटे का साहित्यिक कार्यक्रम रखें जिसमें आबालवृद्ध सभी कोई न कोई रचना प्रस्तुत करें। आजकल 'थीम' प्रचलित है तो कोई भी ऐसी थीम पर प्रस्तुति हो और पुरस्कार भी हो, खासकर बच्चों और नवयुवक - नवयुवतियों के लिये।

डॉ. लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी, कानपुर