शहीद शिरोमणि वीर श्री चंद्रशेखर आज़ाद

श्री चन्द्रशेखर आजाद के जीवन-चरित्र के सम्बन्ध में बहुत से लोगों नें लिखा है। मैं अपने परिचितों तथा निकट सम्बन्धियों द्वारा एवं श्री आजाद की जबानी जो कुछ सुना है, वह लिख रहा हूँ। मेरी जन्म भूमि उन्नाव जिला स्थित ग्राम वीघापुर है। मेरे ग्राम से श्री चन्द्रशेखर आजाद के ग्राम 'बदरका' का 5 कोस का अन्तर है।

श्री चन्द्रशेखर आजाद के पूर्वज कानपुर जिले के थे। श्रीमती गोविन्दा देवी श्री देवकीनन्दन मिश्र "बदरकावालों" की बुआ थी। श्रीमती गोविन्दा देवी की कोख से श्री सीताराम का जन्म हुआ। कुछ दिनों के बाद श्रीमती गोविन्दा देवी का स्वर्गवास हो गया। तब श्री सीताराम के पिता ने द्वितीय विवाह श्रीमती बेहसा देवी के साथ किया, किन्तु उनसे कोई सन्तान नहीं हुई। वह जीवन पर्यन्त श्री सीताराम को साथ में रख कर बदरका में ही रहीं। श्री सीताराम के तीन विवाह हुए, जिनमें से दो पत्नियों का क्रमशः स्वर्गवास हो गया था। प्रथम विवाह सिकन्दरपुर में दूसरा विवाह मौरावां में, तीसरा विवाह चन्दन खेरा में श्री पाण्डेय भट्टाचार्य के यहाँ हुआ। श्री सीताराम तिवारी की तीसरी धर्मपत्नी से प्रथम पुत्र बदरका गांव में ही पैदा हुआ, वह 20-22 वर्ष की उम्र में मर गया। दूसरा पुत्र 23 जुलाई 1906 में मध्य प्रदेश के अली राजपुर रियासत के भांवरा ग्राम में हुआ। यही पुत्र वीर बालक आजाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आजाद के चार-पांच भाई थे, किन्तु वे सब जीवित नहीं रहे।

आर्थिक कष्ट

श्री सीताराम तिवारी को आर्थिक कष्टों के कारण बदरका ग्राम, जिला उन्नाव छोड़ना पड़ा था। बदरका निवासी पंडित रामलखन। अवस्थी उस समय अली राजपुर रियासत में पुलिस के दरोगा थे उन्होंने वहीं श्री सीताराम को अपने साथ ले जाकर पुलिस में भरती करा दिया था। फल-स्वरूप आजाद के पिता श्री सीतारामजी तिवारी वहीं बस गये।

जन्म-स्थान

श्री चन्द्रशेखर आजाद भांवरा ग्राम (मध्य प्रदेश) में पैदा हुए थे, उस ग्राम में भीलों और मुसलमानों की आबादी अधिक थी। ब्राह्मणों के दो-एक घर थे। श्री सीतारामजी की नौकरी थोड़े दिन बाद पुलिस विभाग से छूट गयी। उसके बाद उन्होंने बाग की रखवाली के निमित्त 5 मासिक की नौकरी की। उसी से जीवन-निर्वाह करने लगे। वह बड़े ईमानदार थे।

स्वतन्त्रता संग्राम में

श्री आजाद अक्सर अपने माता-पिता से कहाकरते थे कि हम संस्कृत पढ़ेंगे। श्री आजाद छोटी ही उम्र में एका-एक छिपकर बनारस चले आये और यहाँ से उसने अपने पिता को चिट्ठी भेजी कि मैंने संस्कृत पढ़ना आरम्भ कर दिया है, चिन्ता न करें। माता-पिता को जो बहुत व्याकुल थे, पत्र पाकर सन्तोष हुआ। उसी समय काशी में श्री आजाद से मेरी भेंट हुई थी। जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं भी उन्नाव जिले का हूँ और बरदका में मेरे छोटे भाई की शादी श्री देवीचरण वाजपेयी के यहाँ हुई है तो वे मुझसे घनिष्टता बढ़ाने लगे। कभी-कभी मेरे घर भी आते-जाते थे और मुझे फुफा कहते थे। जब असहयोग आन्दोलन छिड़ा तो वे असहयोग संस्कृत छात्र समिति में शामिल हुए और बहादुरों की तरह सब काम में आगे रहने लगे। सन् 1921 में जब महात्मा गांधीजी का असहयोग आन्दोलन छिड़ा तो संस्कृत विद्यार्थियों में भी असहयोग की लहर आ गयी। काशी में असहयोग संस्कृत छात्र समिति कायम हुई। चन्द्रशेखर आजाद भी उस समिति के एक छात्र थे। उस समय उनकी उम्र 14-15 वर्ष की थी। पहले पहल ही श्री आजाद को बेंत की सजा दी गयी। वे स्वयं दल के साथ गिरफ्तार हुये थे। मैं और बाबू भगवान दास जी सेन्ट्रल जेल में सजा काट रहे थे। वे छूट गये थे। वहीं श्री आजाद को 15 बेंत लगाये गये थे। मैं अपने बैरिक में टहल रहा था तो कई बार "महात्मा गांधी की जय" की आवाज आयी। थोड़ी देर में एक कैदी ने जिसका नाम श्री गङ्गाराम था तथा जो हमारे यहाँ आता था कहा कि लड़के को जिसका नाम श्री चन्द्रशेखर आजाद है बेंत लगाये गये हैं। उसने हर बेंत पर "महात्मा गांधी की जय" कहा। बेंत लगाने के बाद थोड़ी देर में उसे जेल के बाहर निकाल दिया गया। उसको तीन आना पैसा जेल वालों ने दिया। वह पैसा फेंक कर चल दिया और किसी तरह शहर पहुँचा।

ज्ञानवापी के पास पुतली वाले शिवाले में श्री आजाद छात्र समिति के कार्यालय में रहते थे। उसके पहले बड़ी पियरी पर मेरे मकान पर कभी आकर रहते थे। बेंत लगने के बाद आजाद पुनः पकड़ा गया उन्हें फिर सजा दी गयी। छूटने पर 1 सितम्बर 1922 को कांग्रेस कमेटी की ओर से ज्ञानवापी पर उनका स्वागत किया गया।

स्वभाव के उग्र

हम लोग जब जेल से छूट कर आये तो सार्वजनिक सभा में भी आजाद का स्वागत कांग्रेस कमेटी द्वारा हुआ था। मैं उस समय नगर कांग्रेस कमेटी का मंत्री था। आजाद बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। असहयोग आन्दोलन के बाद काकोरी ट्रेन डकैती केस के पहले श्री आजाद ने हिन्दू स्कूल तथा विद्यापीठ में पढ़ने की कोशिश की किन्तु उसका मन पढ़ने में लगता नहीं था। स्वभाव के बड़े उग्र थे। संस्कृत छात्र समिति के विद्यार्थियों से अक्सर आपस में अनबन हो जाती थी। गुस्से में उन्होंने एक बार चाकू निकाल लिया था। कई बार मैंने तथा डाक्टर अब्दुल करीम ने उन्हें बहुत समझाया और आपस में मेल करा देते थे। मुझे वे बहुत मानते थे। कभी-कभी उनका गुस्सा शांत करने के लिए मैं उनके कान भी पकड़ लेता था। कभी हँस कर रह जाता था। वही प्रेम मुझे गोली लगने के बाद इलाहाबाद ले गया था। बेंत लगने के बाद श्री आजाद अंग्रेजी राज्य के बहुत विरोधी हो गये थे। आजाद बड़ा चतुर और वीर बालक था।

कार्य-कलाप

चन्द्रशेखर आजाद का युग सशस्त्र क्रांति का युग रहा है। जिसके अन्तर्गत स्वतन्त्रता प्राप्ति के निमित्त अनेक लड़ाइयाँ लड़ी गयीं। जिनका सविस्तार वर्णन तो सम्भव नहीं है। सीमित एवं संक्षेप में कतिपय क्रान्तिकारी कार्य-कलापों का वर्णन किया जा सकता है। आजाद के जीवन में क्रान्तिकारी मोड़ सन् 1921 में जब उन्हें बनारस में 15 बेतों की सजा दी गई, तभी से आया। उस समय उनकी आयु मात्र 14 वर्ष थी। अंग्रेजी शासन के विरूद्ध बदले की भावना का संचार उनके हृदय में हुआ। अपने क्रान्तिकारी जीवन में इनका प्रथम दुरूह और अत्यन्त साहसिक कार्य काकोरी षड्यन्त्र था। 9 अगस्त 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली गाड़ी को काकोरी के पास रोक कर उसका अंग्रेजी खजाना लूट लिया गया था। उसके परिणाम स्वरूप इनके कई साथियों को फांसी एवं अन्य कठोर दण्ड दिये गये, परन्तु आजाद पुलिस के हाथ नहीं आये। आजाद बम्बई निकल गये और वहाँ जाकर पुलिस की निगाह से बचने के लिए एक जहाजी कम्पनी में नौकरी कर लिया। वहाँ से बाद में झांसी में इन्होंने श्री शचिन्द्रनाथ बक्शी जी के माध्यम से क्रान्तिकारियों का अड्डा बना लिया। इस अड्डे के मुख्य सूरमा सर्वश्री विश्वनाथ वैशम्पायन, सदाशिव राव, मल्का पुरकर तथा श्री भगवानदास जी माहौर थे। झांसी से कुछ दिन बाद ओरछा नरेश श्री वीरसिंह देव के संरक्षण में ओरछा में ही ब्रह्मचारी हरीशंकर के नाम से साधु बन कर रहे।

कानपुर में और आगरा में आजाद के नेतृत्व में बम के कारखाने स्थापित हुए। कानपुर के कारखाने में दिन में जूते की नाल और कीलें बनाई जाती थीं और रात को बम के खोल ढाले जाते थे। आगरा में भी इसी प्रकार एक बम का कारखाना स्थापति किया गया था, जहाँ भगतसिंह, राजगुरू आदि काम किया करते थे। आगरे में ही काकोरी केस के अभियुक्त श्री योगेशचन्द्र चटर्जी को जेल से छुड़ाने की योजना बनाई गयी थी। अब आजाद को कमांडर इन चीफ के रूप में उनकी पार्टी में माना जाने लगा।

लाहौर में जब पंजाब केशरी लाला लाजपतराय को सैण्डर्स द्वारा मारा गया, और लालाजी शहीद हुए एवं अंततः सैण्डर्स से बदला लेने के लिए उसे गोली से उड़ा दिया गया। इस अभियान का संचालन भी आजाद के नेतृत्व में ही हुआ था। आजाद ने अपने पिस्तोल माउजर का नाम बमतुल बुखारा रखा था।

दिल्ली असेम्बली में 8 अप्रैल सन् 1929 को सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो ऐतिहासिक बम-काण्ड किया था उस योजना का नेतृत्व भी आजाद ने ही किया था। दिल्ली में भी एक बड़ी बम-फैक्टरी का संचालन उनकी ऐतिहासिक घटनाएँ है, जिनसे देशवासी भली-भाँति परिचित हैं।

सतीश कुमार मिश्र, वाराणसी