जिस क्षण जीव मां के गर्भ में स्थान पाता है, उसी क्षण उसके संपूर्ण जीवन का लेखा - जोखा सुनिश्चित हो जाता है। जीवन में कब, क्या, कैसे, कितना और कैसा उसके साथ घटित होना है या उसके द्वारा संपन्न होना है, यह सब उसी क्षण निर्धारित हो जाता है। इस निर्धारण को ही जीव का प्रारब्ध माना गया है।
यह सर्वस्वीकार्य तत्थ्य है कि हमारे जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना पूर्व निर्धारित होती है। उसी के अनुसार हमारी मनःस्थिति बनती रहती है और वैसा ही हमारा अन्तःकरण हमसे करवाता जाता है। कोई कितना भी समझाए, हमारी समझ में नहीं आता और हम वही करते हैं जो प्रारब्ध को स्वीकार्य होता है। हम जो करने जा रहे हैं उसका परिणाम सुखद होगा अथवा दुःखद, हम जान और समझ ही नहीं पाते।
समाज की यह प्रकृति है कि जब भी कोई सामान्य धारा के विपरीत अथवा उससे भिन्न कुछ करने का प्रयास करता है तो उसके अपने और शुभचिन्तक उसके दुष्परिणामों के प्रति आगाह करते हैं। किन्तु प्रारब्ध के वशीभूत वह उनकी उपेक्षा करते हुए वही सब करता है जो उसका अन्तःकरण उससे करवाता है। ऐसा ही कुछ डॉक्टर राकेश दीक्षित ने किया जो कि हमारे साले साहब का बड़ा और होनहार बेटा था ।
बात सन् 2005 की है जब भाजपा नेत्री उमा भारती बंगलौर में राष्ट्रीय ध्वज के अपमान के विरोध में प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार कर ली गई थीं और उनके समर्थन में देश भर से भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा बंगलौर जाकर गिरफ्तारियां देने का आह्वान किया गया था। राकेश उस समय भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता थे, कानपुर देहात जिले के मीडिया प्रभारी थे और तत्कालीन नगर सांसद जिनका यह तीसरा कार्यकाल था, के अति विश्वस्त लोगों में से एक थे।
राजनीति में सफलता का एक ही मापदण्ड होता है कि हमारी समाजिक सक्रियता का विस्तार कितना है ? राकेश एम बी बी एस प्रशिक्षित डॉक्टर तो नहीं थे किन्तु उनकी उपचार शैली परिपक्व थी और उनके हाथ में यश था। इस कारण आसपास के दसियों गांवों में सफल डॉक्टर के रूप में उनकी अच्छी पहचान थी उनका प्रभाव क्षेत्र इतना प्रबल था कि आवश्यकता पड़ने पर उनके एक संदेश मात्र से चार छ: सौ लोगों का एक स्थान पर एकत्रित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। यही कारण था कि सांसद जी को राकेश अति प्रिय थे और अगले विधान सभा चुनाव में विधायकी के टिकट के लिए उसकी दावेदारी प्रबल मानी जा रही थी।
अब ऊपर से संदेश आया कि अधिक से अधिक कार्यकर्ताओं को लेकर बंगलौर पहुंचाना है तो सांसद जी ने राकेश को इसका दायित्व सौंपते हुए कहा कि राकेश ! तुम्हारे लिये यह सुनहरा अवसर है स्वयं को प्रमाणित करने का, देखना है कि तुम कितना कर पाते हो।
फिर क्या था, राकेश जी हो गए सक्रिय, लक्ष्य कठिन था, फिर भी मन में उत्साह था क्योंकि अगले चुनाव में विधायकी की टिकट की पात्रता जो सिद्ध करनी थी। जुट गए ऐसे लोगों की तलाश में, जो अपने खर्चे पर बंगलौर जाने को तैयार हों और आठ दस दिन घर परिवार से दूर जाने में उसे कोई समस्या भी न हो। समय कम था फिर भी लगभग पच्चीस - तीस लोगों को तैयार कर लिया इस मुहिम के लिये।
बंगलौर के लिए सीधी एक ही ट्रेन थी, राप्ती सागर जो कि सप्ताह में तीन दिन ही बंगलौर जाती थी और कानपुर से चल कर तीसरे दिन वहां पहुंचाती थी। सभी की टिकट की व्यवस्था करना, निर्धारित समय पर सबको स्टेशन पहुंचने के लिये निरंतर खटखटाते रहना और साथ ही अपने स्वयं के उपचार पर निर्भर रोगियों की व्यवस्था सुनिश्चित करने में समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला और समय आ गया रवानगी का।
केश डायबटिक थे और इन्सुलिन के नियमित सेवन पर निर्भर थे। इसका इंजेक्शन वे स्वतः ही लगा लेते थे। बाहर कहीं भी जाना हो तो और सामान भले ही भूल जायें इंसुलिन रखना नहीं भूलते थे। ये यात्रा चूंकि लंबी थी, इस कारण चिंतित मां ने कहा कि बेटा इंसुलिन का इंजेक्शन ले जाना तो संभव नहीं होगा ट्रेन में, तुम इसकी कैप्सूल ही रख लो राकेश ने मां की बात पर हंसते हुए कहा कि यह तो संभव न हो सकेगा किन्तु आप चिन्ता न करो हर बड़े स्टेशन पर मेडिकल स्टोर होता है, मैं ले लूंगा आप निश्चिंत रहो। मुझे कुछ होने वाला नहीं, पुनीत कार्य के लिए जा रहा हूं, ढोंढ़ी बाबा रक्षा करेंगे (ढोंढ़ी बाबा का प्रसिद्ध मन्दिर कानपुर निकट कोढ़ी घाट पर स्थित है)।
राकेश की दस - ग्यारह वर्षीय छोटी बेटी तो, जब से उसने पापा के जाने का सुना था, एक ही रट लगाए थी कि पापा मत जाओ ! मुझे बहुत डर लग रहा है। जाते समय तो लिपट गई और एक ही बात - पापा मत जाओ प्लीज ! प्लीज पापा मत जाओ ! मुझे बहुत डर लग रहा है, किसी प्रकार राकेश ने अपने से अलग किया तो दादी से लिपट कर बोली दादी प्लीज मेरे पापा को रोक लो ! रोक लो दादी मुझे बहुत डर लग रहा है किन्तु राकेश जिस स्थिति मे थे उसमें रुकना संभव नहीं था, मां पत्नी को चिंतित और बेटी को बिलखता छोड़ कर निकल गए।
ट्रेन में पहला दिन तो निकल गया। हर किसी के पास बैठ कर बातचीत करते कराते रात हो गई, इंसुलिन की याद ही न रही। अगला दिन भी लगभग बीत गया। खाना - पीना चलता रहा, पेठा आया तो उसका भी प्रेम से सेवन हुआ। शाम को जब तबियत थोड़ी बिगड़ी तो इंसुलिन की याद आई कागज में इंजेक्शन का नाम लिख कर साथियों को दिया और बोले कि अगले स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी रुके, दौड़ कर ये दवा ले आओ।
किन्तु दवा अगले दिन सुबह मिल पाई, और तब तक राकेश मूर्छित हो चुके थे। अब समस्या ये कि इंजेक्शन लगे तो कैसे ? उसकी डोज तो किसी को पता ही नहीं है, और रिस्क लेने की स्थिति नहीं थी। सांसद जी के पास उस समय मोबाइल फोन या और उन्होंने एस टी डी एक्टीवेट करा रखी थी। उन्होंने बंगलौर के अपने संपर्कों द्वारा यहां के अस्पताल से अपॉइंटमेंट ले लिया किन्तु अभी वहां पहुंचने में ढाई तीन घंटे बाकी थे।
बंगलौर स्टेशन पहुंचने तक सांसद जी ने एंबुलेंस की व्यवस्था कर ली थी पहुंचते ही बिना देरी किये अस्पताल पहुंचाए गए डॉक्टर ने देखते ही कहा कि स्थिति गंभीर हो चुकी है, ठीक होने में कम से कम सात आठ दिन लग जाएंगे, अधिक भी लग सकता है। उन्हें एडमिट किया गया, अन्य कोई विकल्प भी नहीं था।
चार दिन के सघन उपचार कि बाद राकेश ठीक से बातचीत करने लगे तो सांसद जी ने उन्हें डिस्चार्ज करने का आग्रह किया किन्तु डॉक्टर ने साफ मना कर दिया और बोले कि अभी कम से कम चार दिन और लगेंगे इन्हें ठीक होने में उसके पहले डिस्चार्ज करने का मतलब ही नहीं।
सांसद जी ने अपनी स्थिति बताई तो डॉक्टर ने कहा कि ऐसी बात है तो ले जाइये लेकिन इसका सारा रिस्क आप का होगा और आप को हमें यह लिख कर देना होगा। सांसद जी ने अपने लेटरहेड पर सब लिख कर दे दिया। फिर भी डॉक्टर ने कहा कि आप इन्हें बाई एयर लेकर जाइये और जाते ही वहां के अस्पताल में भर्ती करा दीजियेगा। रास्ते में यदि तबियत बिगड़े तो आप जानिये।
प्लेन के दिल्ली लैन्ड करने से पहले ही राकेश की तबियत फिर बिगड़ गई और आनन फानन में उन्हें राम मनोहर लोहिया अस्पताल में एडमिट करा कर और उनके साथ दो चार लोगों को छोड़ कर सांसद जी कानपुर आ गए और तुरंत उनके घर में सूचना भिजवा दी। सूचना मिलते ही घर के लोग दौड़ पड़े दिल्ली को। वहां पर रह कर उनके लिए इलाज करवा पाना संभव नहीं था इस कारण वहां से अपनी रिस्क पर डिस्चार्ज करा कर वे टैक्सी द्वारा उन्हें कानपुर लेकर आ गए
कानपुर आकर अस्पताल जाने से पहले
राकेश ने ढोंढ़ी बाबा के दर्शन की इच्छा प्रकट की तो उसकी पूर्ति में अगला पूरा दिन बीत गया उसके अगले दिन अस्पताल पहुंचते - पहुंचते उनकी बाई आंख बुरी तरह सूज चुकी थी और दाहिनी में भी सूजन के लक्षण दिखने लगे थे। डॉक्टर ने आरंभिक उपचार देकर तुरन्त उन्हें लखनऊ पी जी आई के लिये रेफर कर दिया।
सूचना मिलने पर जब हम लोग उन्हें देखने पहुंचे तो उनकी दोनों आंखें बन्द थीं और वे डॉक्टर साहब के पैरों पर हाथ लगा कर गिड़गिड़ा रहे थे कि डॉक्टर साहब मुझे कैसे भी बचा लीजिये मेरे छोटे - छोटे बच्चे हैं, उनका क्या होगा। इस स्थिति में डॉक्टर साहब क्या कह सकते थे।
खैर ! राकेश लखनऊ पी जी आई पहुंचाए गए किन्तु अब तक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि किसी भी उपचार का कोई लाभ नहीं मिल पाया। लगभग पंद्रह सोलह दिन वहां रहे किन्तु वहां से उनका मृत शरीर ही वापस कानपुर आ पाया। एक उभरता हुआ सितारा उदित होने से पहले ही अस्त हो गया एक डॉक्टर जो दवा के सेवन में कोताही होने पर अपने मरीजों को डांट लगाता था, प्रारब्ध ने वही गलती उनसे करवा कर उसे जीवन से मुक्ति दिला दी।