आज घर के दरवाजे पर नन्हीं बया दिखी। सुंदर सलोनी, मेरे बचपन के दिनों की सखी, मेरी प्यारी बया। अब तो जैसे दिखना ही बंद हो गई है। मैंने तो सच में, ना जाने कितने वर्षों के बाद इसके दर्शन किए होंगे। देखते ही मैं तो बस अपने बचपन की दुनिया में खो गई। खूब बड़ा सा आंगन, कोने में मां का लगाया मालती का पेड़, आंगन के बीच पड़ी चारपाई पर सोती मैं और चिड़ियों की चहचहाहट से खुलती मेरी नींद और वो भी एक-दो नहीं ढेर सारी बया, ये सारा मंजर आखों के सामने जैसे दोबारा घूम गया हो। घर के पीछे जो छोटा सा तालाब था, उसके किनारे लगे कंटीले पेड़ तो उनके घोंसलों का सबसे सुविधाजनक व सुरक्षित स्थान हुआ करता था। घर में लगे मालती के पेड़ पर भी उनका बसेरा था। घोंसला बनाने के लिए अपनी चोंच में हरी, पतली, लम्बी, पत्ती लाती और अपना घोंसला बुनती, एक कुशल बुनकर की तरह। बार-बार उड़ कर जाती और एक धागे जैसा पत्ता लाती फिर बड़ी लगन से अपने घर को बनाती।
एक घोंसला बनाने में कितनी मेहनत करती थी वो नन्हीं बया। मेरी सुबह उनकी इसी कार्य प्रणाली को देखने में बीतती थी। मेरे छोटे से दिमाग में अक्सर ये प्रश्न उठता था, जिसका जवाब मुझे आज तक नहीं मिला कि ये कैसे इतनी पतली पत्ती चीर कर ले आती है। एक इंजीनियर तो कितने टूल्स इस्तेमाल करता है कितनी भी छोटी चीज बनाने के लिए। पर इनके लिए तो सारे टूल्स इनकी एकमात्र चोंच ही है और उसी से इनका सुंदर सा बसेरा बन जाता है। एक घोंसला बनाने के लिए लगभग चार से पांच सौ बार उड़ कर जाती हैं। तब कहीं लगभग महीने भर में इनका घोंसला बन कर तैयार होता है।
मैंने कहीं पढ़ा है कि नर बया पहले घोंसला बनाता है जब आधा बन जाता है तब मादा बया उसे देखती है, एक तरह से निरीक्षण का कार्य करती है अगर पसंद आया तो आगे का घोंसला फिर वो बनाती है। एक तरह से वह भी पहले घर को पारित करती है, तब जाकर आगे का कार्य बढ़ता है। इनका घोंसला कारीगरी का एक अद्भुत नमूना है, जो हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है वैसे तो कई पक्षी घोंसले बनाते हैं पर इनका घोंसला बाकी सबसे काफी सुंदर व जटिल होता है। इनके घोंसले मुझे जहां भी दिखे एक झुंड के रूप में। एक बस्ती में जैसे बहुत सारे घर बने होते हैं इनके घोंसले भी कुछ उसी तरह से देखने की मिलते हैं। शायद, सुरक्षा की दृष्टि से ये ऐसा करती हों। ये एक तरह से सामाजिकता एवं एकता का संदेश भी है हमारे लिए - "एक रहो संगठित रहो"।
कुछ समय के बाद वो उसी घोंसले में अंडे देती थी। फिर उनके छोटे बच्चों का उनसे निकलना और ची-ची करके अपनी मां को बुलाना। मां बया अपनी चोंच में कभी दाना कभी कीड़े लाकर उनकी छोटी सी चोंच में डाल देती। बच्चे अपना छोटा सा मुंह पूरा ऊपर उठाते और छोटी सी चोंच खोल देते, और मां खाना उसमें डाल देती। ईश्वर ने सभी मां को शायद एक विशेष प्रकार की मिट्टी से बनाया है। वो पशु-पक्षी या इंसान कोई भी हो सबकी ममता बच्चे के लिए एक सी ही होती है। उन्हें पता होता है कि बच्चे को कब क्या चाहिए। खैर, मां की व्याख्या या गुणगान के लिए कोई शब्द ही नहीं, वो मां चाहे बया ही क्यों न हो। बया चिड़िया दिखने में काफी सुंदर होती है। इसके शरीर का आधे से ज्यादा भाग पीला होता है। कई जगह इसे सोन चिड़िया भी कहते हैं। मुझे तो ये सुनहरे रंगो वाली चिड़िया लगती थी। बया जब अपनी गर्दन टेढ़ी करके एक विशेष भंगिमा से इधर-उधर देखती तो सच में कितनी प्यारी लगती थी। ईश्वर की बनाई ये श्रृष्टि कितनी सुंदर व अनोखी है। ये छोटी सी सुनहरी बया उसका उदाहरण है।
इन सुंदर गुणवान पक्षियों की चहचहाहट अब काफी कम हो गई है। एक समय था जब इनकी ची ची से खेत-खलिहान, पेड़ सब गुंजायमान रहते थे। पर अब दिखना ही बंद हो गई हैं। आज इनका भी अस्तित्व खतरे में है। इनकी कमी का मुख्य कारण अंधाधुंध कटते पेड़-पौधे, गावों का शहरीकरण होना, खेतों में कीटनाशक का प्रयोग या बढ़ते मोबाइल टावर हो सकते हैं। मनुष्य अपने स्वार्थ में इस कदर खो गया है कि अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरे जीवों की सुरक्षा को भी खतरे में डाल रहा है। वो कृत्रिम वस्तुओं से अपना घर आंगन तो सजा रहा है, लेकिन प्रकृति-प्रदत्त अनमोल उपहार को अनदेखा भी कर रहा है। उनके फोन की रिंग में, डोर बेल में तो चिड़िया की आवाज गूंज रही है, पर जो नैसर्गिक गूंज है, वो कहीं खोती जा रही है। दुःख तो इस बात का है कि कई लोग इसका नाम भी भूल गए हैं। मैंने कई लोगों को पूछा कि बया चिड़िया दिखती है तुम्हारी तरफ ? तो जवाब ना में ही मिला।
मुझे तो इंतजार है फिर से उसी झुंड का, एक-दो नहीं बल्कि खूब सारी बया का। पेड़ों में पनपते उनके घोसलों की बस्ती का। आ जाओ प्यारी सुनहरी चिड़िया। अपनी सुरीली चहक से फिर से गुंजायमान कर दो बाग-बगीचा, घर-आँगन। इंतजार है पेड़ों को भी-आओ और फिर से भर दो उनकी डालों को अपने घोंसलों से।