मैंने अपने पिछले संस्मरण (गढ़ेवा का अग्निकांड) में बताया था कि किस प्रकार श्री लाल साहब बाबा की कृपा से उस अग्निकांड में कैसे हताहत होने से बचा था।
उसी क्रम में मैं अपने जीवन के दूसरे सबसे रोमांचक, भयावह परन्तु अंततः सुखद अनुभव को आपके साथ साझा कर रहा हूं। यह घटना 1980 की है जब मैं यू पी एग्रो इंडस्ट्रियल कॉर्पोरेशन (उपाग्रो) बरेली में कार्यरत था। चैत्र मास प्रारम्भ हो चुका था। मेरे एक सहकर्मी आदित्य सक्सेना ने बताया वहां से पूर्णागिरि माता के दर्शन के लिए लोग नवरात्रि के समय जाते हैं जो कि लगभग 150 कि.मी. दूर है और वहां से नेपाल की पहाड़ियां भी दिखती हैं। उनकी बातों से मुझे भी उत्सुकता जागृत हुई क्योंकि मैं घुमक्कड़ स्वभाव का था और आज भी हूं। हम लोगों ने वहां जाने का कार्यक्रम बनाया। उनके साथ उनकी पत्नी (पूनम), छोटी बेटी 2-3 वर्ष की डिम्पल, छोटा भाई (अरूण) लगभग 14 वर्ष का, छोटी बहन पुष्पा लगभग (20 वर्ष), उनकी माताजी लगभग (58 वर्ष) उनकी पत्नी की नानी लगभग 65 वर्ष की भी जाने के लिए तैयार हुईं।
आदित्य ने अपनी पुत्री का मुण्डन संस्कार वहींं कराने का निर्णय लिया। हमलोगों ने बरेली से यू पी रोडवेज की बस से प्रातः 6:30 बजे प्रस्थान किया। हमारी बस की यात्रा बदायूं, पीलीभीत होते हुए टनकपुर (चम्पावत जिला) जो कि आजकल उत्तराखंड में है सम्पन्न होनी थी। नई-नई जगहों का आनन्द लेते हुए हमलोग आगे बढ़ रहे थे। पीलीभीत से टनकपुर के बीच खेतों के मध्य बनी हुई सड़क (जो कि खेतों से लगभग 5 फिट ऊपर थी) से हमारी बस जा रही थी कि अचानक हमारे आगे जा रही रोडवेज की बस सामने से आ रही एक बस से बचने के कारण सड़क के अत्यन्त किनारे आ गई और देखते देखते ही खेत में पलट गई। हमारे बस के चालक ने तुरन्त अपनी बस रोकी और हमलोग दौड़कर सामने दुर्घटनाग्रस्त बस के यात्रियों को बचाने के लिए भागे, उस बस के शीशे तोड़कर खिड़कियों के बीच से हमलोगों ने यात्रियों को बाहर निकाला। दैवीय कृपा से किसी भी यात्री को कोई गंभीर चोट नहीं आई। कोई गंभीर चोट नहीं आई।
तत्पश्चात हमलोग टनकपुर पहुंचे और आगे की यात्रा किसी और वाहन से सम्पन्न कर हमलोग कटरा पहुंचे। रास्ते में शारदा नदी का विहंगम दृश्य दिखा। कटरा में हमलोगों ने अपना सामान रखा और वहां से आगे की यात्रा हमलोगों ने पैदल प्रारम्भ की। सामने पूर्णागिरी के ऊंचे पहाड़ दिख रहे थे। पहाड़ों की तलहटी में शारदा नदी की एक धारा जो उधर से निकलती है उसमें हमलोगों ने स्नान भी किया और फिर आगे छोटे-मोटे नालों एवं पहाड़ियों को पार कर आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में बुद्ध की पहाड़ों में उकेरित प्रतिमाएं भी दिखीं। लगभग तीन चार घंटे चलने के बाद मां पूर्णागिरि का मन्दिर दिखने लगा। मन्दिर देखकर हमलोगों में अत्यन्त उत्साह जागृत हुआ।
पर अचानक बादल छा गए और तेज हवाओं के साथ वृष्टि होने लगी। हमलोगों का आगे बढ़ना अत्यन्त कठिन हो गया साथ ही अंधकार भी छा गया। अतः मन मसोस कर हमलोगों ने वापस लौटने का निर्णय लिया। कच्ची टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों और फिसलन भरे रास्ते से वापस लौटने में अत्यन्त कठिनाई हो रही थी। किसी तरह हम नीचे उतर रहे थे। आदित्य पूनम और अरुण के साथ आगे निकल गए। मैं नानी जी को लेकर धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था। नानी थक गई थीं अतः उन्हें मैं एक साधू की कुटिया में ले गया। नानी ने कहा कि मैं यहां रुकती हूं तुम नीचे जाकर पूनम को देखकर आओ। नानी को वहां अकेले छोड़ने का मेरा मन नहीं था पर उनकी जिद के कारण मुझे जाना पड़ा। जाने के पहले मैंने उनसे मेरे वापस आने तक वहीं रुकने को कहकर निकल गया।
थोड़ी देर नीचे उतरने के पश्चात एक साधुओं की कुटिया में आदित्य का परिवार दिख गया। वे लोग हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने बताया कि नानी जी के आदेशानुसार मैं आपलोगों को देखने आया था। आपलोग यहीं रुकिए मैं नानी जी को लेकर वापस आ रहा हूं ऐसा कहकर मैं वहां से निकल गया। चारों ओर घटाटुप अंधेरा छाया हुआ था, बीच-बीच में साधुओं की कुटिया दिख जाती थीं जिनसे थोड़ी रोशनी रास्ते में बिखर रही थी। ऊपर साधू की कुटिया में आने पर मुझे नानी जी नहीं दिखी। मेरा मन किसी अनिष्ट की आशंका से भर गया और हृदयगति तीव्र हो गई। मैं मां दुर्गा से प्रार्थना करते हुए धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। अचानक पहाड़ के एक मोड़ पर एक साधू प्रगट हुआ और उसने कहा कि नीचे एक बुढ़िया खाई में गिर गई है। मैं बुरी तरह घबड़ा गया। थोड़ा और नीचे उतर रहा था तभी मुझे एक आवाज पहाड़ के नीचे की ओर से आई की "ऐ राहगीर मुझे बचा लो मैं यहां गिर गई हूं" आवाज सुनकर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा और जब देखा तो कोई और नहीं बल्कि वो नानी जी ही थी। मैं नीचे लेटकर अपने हाथों से नानी जी को पकड़ा और उन्हें ऊपर खींचने लगा पर मैं उन्हें पूरी तरह से ऊपर नहीं खींच पा रहा था।
मैंने दुर्गे माता से सहायता की प्रार्थना की, अचानक ही एक साधू प्रगट हुए और उनकी सहायता से मैं नानी जी को ऊपर खींच पाया। नानी जी मुझसे लिपट गयीं। इस बीच वो साधू महाराज कहां ओझल हो गए पता ही नहीं चला। मैंने मां दुर्गा को मन ही मन धनयवाद दिया संभवतः उन्होंने ही अपने किसी गण को भेजकर मेरी सहायता की होगी। मैं नानी जी का हाथ पकड़ कर नीचे उतरने लगा और थोड़ी देर में हम दोनों आदित्य के परिवार के पास पहुंच गए। मैंने आदित्य को धीरे से सारा वृत्तांत सुनाया जिसे सुनकर वे सिहर गए। थोड़ी देर रुककर हमलोग साथ-साथ नीचे उतरने लगे और वहां भी उस अंधेरी रात में किसी अनजान पहाड़ी व्यक्ति ने नीचे जल्दी पहुंचने में हमारी मदद की थी। वह रास्ता भी आम रास्ता नहीं था नीचे जाने वाला, पहले तो डर लगा, विश्वास किया और जल्दी पहुंच पाए उन अनजान साथी का भी धन्यवाद। लगभग 2-3 घण्टे के अथक प्रयास के पश्चात् हमलोग कटरा वापस पहुंचे।
सभी के कपड़े पूरी तरह से भीगे हुए थे। सबने अपने कपड़े बदले और तभी हमें पता चला कि अरुण वहां नही है। आदित्य और मैं सबको वहां कमरे में छोड़कर पुनः अरुण को ढूंढने निकले और लगभग एक घण्टे के प्रायस के बाद अरुण पहले खौला में एक चाय वाले की भट्ठी में कपड़े सुखाते हुए मिला। उसको लेकर हमलोग वापस कमरे में आए। रात्रि हमने वहीं विश्राम किया। थकावट के कारण सभी तुरन्त सो गए। दूसरे दिन सुबह जब सोकर उठे तो देखा कि मौसम बिलकुल साफ था। नित्यकर्म से निवृत्त होकर हमलोगों ने मां पूर्णागिरि के मंदिर की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में मैंने आदित्य को वह स्थान दिखाया जहां नानी जी गिर गईं थीं। नीचे लगभग 70-80 फिट गहरी खाई थी और वहीं ऊपरी सतह के पास किसी पेड़ की एक मोटी सी जड़ थी जिसमें अटककर नानी जी लटकी हुई थी। उस स्थान को देखकर हम दोनों कांप उठे और मां दुर्गा को पुनः हृदय से धन्यवाद दिया, जिनकी कृपा से हमलोग एक कलंक से बच गए।
हमलोग शीघ्र ही उत्साह पूर्वक मन्दिर की ओर चढ़ने लगे। वहां से नेपाल के पहाड़ साफ दिखाई पड़ रहे थे। पहाड़ के शीर्ष पर मां पूर्णागिरि का मंदिर स्थित था। हमने माताजी के भव्य दर्शन किए। आदित्य ने अपनी पुत्री का मुण्डन संस्कार संपन्न करवाया। वहां पर उपस्थित सबलोगों को हमलोगों ने प्रसाद वितरित किया और फिर नीचे की ओर प्रस्थान किया। लौटने का रास्ता आसान लग रहा था। रास्ते में एक अपंग वृद्ध महिला दिखाई दीं जो कि बैठकर ही आगे बढ़ रहीं थीं। उन्होंने बताया कि वह खड़े होकर चल नहीं सकती और बैठकर ही अपनी यात्रा पूर्ण करतीं हैं तथा प्रति वर्ष माता के दर्शन के लिए आती हैं। उनकी श्रद्धा को हमने नमन किया और साथ ही हमें उनसे प्रेरणा भी मिली कि कोई भी कार्य असंभव नहीं है, यदि सच्ची श्रद्धा एवं लगन हो तो आप अपनी हर इक्षा पूर्ण कर सकते हो। उसके पश्चात् हम सब लोग सुन्दर दृष्यों का आनन्द लेते हुऐ हंसी खुशी बरेली वापस लौटे।
अगले दिन मुझे एटा, एवं मथुरा के फ़र्टिलाइज़र गोडाउन के 31 मार्च वार्षिकी ऑडिट पर फिजिकल वेरिफिकेशन के लिए निकलना था, पर माता की कृपा से मुझे रंचमात्र भी थकावट नहीं लग रही थी। इसके विपरीत मेरे अन्दर दो नए स्थान देखने तथा श्री कृष्ण जन्म भूमि देखने का अपार उत्साह था जो सकुशल सम्पूर्ण हुआ था।