भारतीय पौराणिक कथाओं में कई वीर महिलाओं को नारीत्व और नारीवाद के आदर्शों को कायम रखने में पहले प्रेरक के रूप में भी देखा जा सकता है, परन्तु दो सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य- रामायण और महाभारत- दो महिलाओं सीता और द्रौपदी को केंद्रित करके लिखे गये हैं। इन दोनों ने ही भारतीय मानस को आकार दिया है, ये महिला अधिकारों की मशाल वाहक थीं, जो आधुनिक युग में और अधिक प्रासंगिक हो गईं हैं। सीता हो या द्रौपदी दोनों ने ही अपने सम्मान के लिए भीषण जटिलताओं का सामना किया है। सीता को राम की पत्नी होने के लिए तत्वों के माध्यम से युद्ध करना पड़ा, तो द्रौपदी को पांच पांडवों की पत्नी होने के कारण अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अपनी परिस्थितियों के कारण उन्हें कुछ ऐसा सहना पड़ा जो तिरस्कार से भी बहुत ज्यादा था। द्रौपदी का चीरहरण तो सीता का रावण द्वारा अपहरण। अयोध्या वासियों को अपनी पवित्रता का साक्ष्य देने के लिए दी गई अग्नि परीक्षा। द्रौपदी क्या कोई वस्तु थी जिसे दाँव पर लगाया गया? सीता की श्री राम के प्रति भक्ति और निष्ठा पर क्या कोई संदेह कर सकता है, फिर ये अपमान क्यों ?
दोनों ही अपने युग की श्रेष्ठ नारी थीं, समानरूप से शक्तिशाली थीं, दोनों ने ही अपने वंश में जन्म नहीं लिया। सीता जी राजा जनक को खेत जोतने के समय मिलीं और द्रौपदी यज्ञ की अग्नि से उठीं। दोनों का स्वयंवर हुआ था, दोनों ही दो महान वंशों के पतन का कारण बनीं। दोनों को ही अपने जीवन काल में अनेक पीड़ाओं का सामना करना पड़ा, दोनों को ही काफी हद तक गलत समझा गया, जबकि दोनों का बुनियादी व्यक्तित्व बहुत हद तक अलग था। सीता कोमल तथा मृदुभाषी थीं तो द्रौपदी आक्रामक स्वभाव की थीं।
ता युग द्वापर से बहुत भिन्न था, समाज में आदर्श थे। सीता उसी आदर्शवादी युग की छवि प्रस्तुत करती हैं, वे कोमल, शांत, धीर, निष्ठावान और सहनशील थीं। हमारी भाषाएं समय के साथ विलीन हो सकती हैं पर सीता नहीं। सीता जन-जन के रक्त में बस गई हैं, उसे अब भारतीय जन मानस के मन से निकाल नहीं सकते हैं, आज के युग में भी सीता हर नारी में किसी न किसी रूप में मिल जाती है।
द्वापर युग में द्यूत क्रीड़ा में सर्वस्व हार जाने के पश्चात् युदिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया था। दुर्योधन की ओर से दुःशासन ने द्रौपदी को बालों से पकड़ कर घसीटते हुए सभा में ले आया। निकृष्टता अपने चरम सीमा पर थी, कुल-वधु द्रौपदी का अपमान हो रहा था, सभा में उपस्थित भीष्म पितामह, गुरु द्रोण और विदुर जैसे न्यायकर्ता सिर झुकाए चुप बैठे रहे और उनकी आंखों के समक्ष एक नारी का चीरहरण होता रहा। वे मूक दर्शक बन बैठे रहे, तब श्री कृष्ण ने आकर पांचाली का मान रखा था।
चीरहरण तो आधुनिक युग में रोज होता है पर कमी है कृष्ण की। यह एक चीज द्वापर और कलियुग में बदल गई है। आधुनिक युग की पांचाली को ही यह तय करना है कि वह कृष्ण की झूठी प्रतीक्षा करे या स्वयं ही दुःशासन का गुरुर तोड़े तथा अबला नाम के इस विशेषण से मुक्त हो जाये। द्रौपदी सिर्फ एक पौराणिक चरित्र नहीं है, वो हर युग में हर उम्र की महिलाओं का रूपक है। हमारे आज के युग में अपने ही देश के कोने - कोने में द्रौपदी को महसूस किया जा सकता है। आज के पुरुष प्रधान समाज में यह नारी होने की लाचारी की विडंबना है।
आज के युग में भी लोगों की यह धारणा है कि लक्ष्मण रेखा की अवहेलना के कारण ही सीता को इतने आघात सहने पड़े थे, आज भी समाज में पुरुष की बात का खंडन स्वीकार्य नहीं है। आज भी नारी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन न करे, अन्यथा उसे परित्याग या सामाजिक उपहास का सामना करना पड़ेगा। द्रौपदी के चीर हरण ने यह साबित कर दिया है कि जिस देश या वंश में नारी का इस स्तर तक अपमान होगा, उसका अंत में विनाश ही होगा, जैसे अफगानिस्तान। आज भी नारी को कम प्रताड़ित नहीं किया जाता है, चाहे वो हाथ से हो या वचन से। आज के युवा भी चन्द पैसों के लिए अपनी पत्नी या बहन को किसी को भी सौंप देते हैं, यह जुआ नहीं तो और क्या है।
द्रौपदी आक्रामक स्वभाव की थीं पर अश्वत्थामा को माफ करके उन्होंने अपने चरित्र का दूसरा रूप दिखलाया। वहीं सीता का अग्निपरीक्षा के पश्चात राम को त्याग कर वाल्मीकि आश्रम में जाना उनके चरित्र की दृढ़ता को दिखलाता है, उन्हें गरिमा मंडित करता है।
यह संघर्ष आज भी जारी है। आज की नारी को ही अपनी परिस्थितियों के अनुरूप निश्चित करना है कि वे सीता बनकर जियें या द्रौपदी बनकर।